नवंबर 03, 2024, इतवार

वर्ष का इकतीवाँ सामान्य इतवार

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📒 पहला पाठ : विधि-विवरण 6:2‍-6

2) यदि तुम अपने पुत्रों और पौत्रों के साथ जीवन भर अपने प्रभु-ईश्वर पर श्रद्धा रखोगे और जो नियम तथा आदेश मैं तुम्हें दे रहा हूँ, यदि तुम उनका पालन करोगे, तो तुम्हारी आयु लम्बी होगी।

3) इस्राएल यदि तुम सुनोगे और सावधानी से उनका पालन करोगे, तो तुम्हारा कल्याण होगा, तुम फलोगे-फूलोगे और जैसा कि प्रभु, तुम्हारे पूर्वजों के ईश्वर ने कहा, वह तुम्हें वह देश प्रदान करेगा, जहाँ दूध और मधु की नदियाँ बहती हैं।

4) इस्राएल सुनो। हमारा प्रभु-ईश्वर एकमात्र प्रभु है।

5) तुम अपने प्रभु-ईश्वर को अपने सारे हृदय, अपनी सारी आत्मा और अपनी सारी शक्ति से प्यार करो।

6) जो शब्द मैं तुम्हें आज सुना रहा हूँ वे तुम्हारे हृदय पर अंकित रहें।

📒 दूसरा पाठ : इब्रानियों 7:23‍-28

23) वे बड़ी संख्या में पुरोहित नियुक्त किये जाते हैं, क्योंकि मृत्यु के कारण अधिक समय तक पद पर रहना उनके लिए सम्भव नहीं।

24) ईसा सदा बने रहते हैं, इसलिए उनका पौरोहित्य चिरस्थायी हैं।

25) यही कारण है कि जो लोग उनके द्वारा ईश्वर की शरण लेते हैं, वह उन्हें परिपूर्ण मुक्ति दिलाने में समर्थ हैं; क्योंकि वे उनकी ओर से निवेदन करने के लिए सदा जीवित रहते हैं।

26) यह उचित ही था कि हमें इस प्रकार का प्रधानयाजक मिले- पवित्र, निर्दोष, निष्कलंक, पापियों से सर्वथा भिन्न और स्वर्ग से भी ऊँचा।

27) अन्य प्रधानयाजक पहले अपने पापों और बाद में प्रजा के पापों के लिए प्रतिदिन बलिदान चढ़ाया करते हैं। ईसा को इसकी आवश्यकता नहीं होती, क्योंकि उन्होंने यह कार्य एक ही बार में उस समय पूरा कर लिया, जब उन्होंने अपने को बलि चढ़ाया।

28) संहिता जो दुर्बल मनुष्यों को प्रधानयाजक नियुक्त करती है, किन्तु संहिता के समाप्त हो जाने के बाद ईश्वर की शपथ के अनुसार वह पुत्र पुरोहित नियुक्त किया जाता है, जिसे सदा के लिए परिपूर्ण बना दिया है।

📒 सुसमाचार : मारकुस 12:28ब-34

28) तब एक शास्त्री ईसा के पास आया। उसने यह विवाद सुना था और यह देख कर कि ईसा ने सदूकियों को ठीक उत्तर दिया था, उन से पूछा, “सबसे पहली आज्ञा कौन सी है?“

29) ईसा ने उत्तर दिया, “पहली आज्ञा यह है- इस्राएल, सुनो! हमारा प्रभु-ईश्वर एकमात्र प्रभु है।

30) अपने प्रभु-ईश्वर को अपने सारे हृदय, अपनी सारी आत्मा, अपनी सारी बुद्धि और सारी शक्ति से प्यार करो।

31) दूसरी आज्ञा यह है- अपने पड़ोसी को अपने समान प्यार करो। इनसे बड़ी कोई आज्ञा नहीं।“

32) शास्त्री ने उन से कहा, “ठीक है, गुरुवर! आपने सच कहा है। एक ही ईश्वर है, उसके सिवा और कोई नहीं है।

33) उसे अपने सारे हृदय, अपनी सारी बुद्धि और अपने सारी शक्ति से प्यार करना और अपने पड़ोसी को अपने समान प्यार करना, यह हर प्रकार के होम और बलिदान से बढ़ कर है।“

34) ईसा ने उसका विवेकपूर्ण उत्तर सुन कर उस से कहा, “तुम ईश्वर के राज्य से दूर नहीं हो"। इसके बाद किसी को ईसा से और प्रश्न करने का साहस नहीं हुआ।

📚 मनन-चिंतन

पुराने जमाने में शास्त्री लोगों का काम था धर्मशास्त्र की हस्तलिखित प्रतियां बनाना, और इस काम को उन्हें बड़ी सावधानी से करना होता था। प्रतियां बनाते समय वे सारे धर्मग्रंथ के एक-एक शब्द को सावधानी से पढ़ते और समझते थे, इसलिए उन्हें धर्मग्रंथ की अच्छी जानकारी थी। ऐसा ही यह शास्त्री प्रभु से सबसे बड़ी आज्ञा के बारे में पूछता है। दर असल जो दस आज्ञायें प्रभु ने नबी मूसा के द्वारा लोगों को प्रदान की थीं, वे धर्मगुरुओं ने बढ़ा-चढ़ा कर अनेक कर लीं थीं। ऐसा स्वाभाविक था कि इतने सारे नियमों और आज्ञाओं में एक साधारण व्यक्ति के लिए यह समझना मुश्किल था कि उनमें सबसे महत्वपूर्ण कौन सी आज्ञा या नियम है। शायद इसी समस्या को समझते हुए यह शास्त्री गुरुवर प्रभु येसु से सबसे पहली और सबसे महत्वपूर्ण आज्ञा के बारे में पूछता है।

यहाँ यह ध्यान देने वाली बात है कि उसने सिर्फ एक सबसे बड़ी आज्ञा के बारे पूछा था और प्रभु येसु ने उसे केवल एक नहीं बल्कि एक आज्ञा में समाहित तीन आज्ञायें बता दीं। ऐसा शायद इसलिए क्योंकि ईश्वर को प्यार करने की यह आज्ञा एक दूसरे को प्यार करे बिना अधूरी है, और एक दूसरे को प्यार करना तब तक संभव नहीं है जब तक कि हम स्वयं को प्यार न करें। अर्थात जब हम खुद को स्वीकार करते हैं, प्यार करते हैं, तभी हम दूसरों को स्वीकार कर पाएंगे, उन्हें प्यार कर पाएंगे, और इसके फलस्वरूप ही हम ईश्वर को प्यार कर पाएंगे। इसी एक आज्ञा पर अन्य सारी आज्ञायें आधारित हैं। ईश्वर हमें अपने जीवन में उनकी आज्ञाओं को दिल से मानने और पालन करने की कृपा दे।

फ़ादर जॉन्सन बी. मरिया (ग्वालियर धर्मप्रान्त)

📚 REFLECTION


In ancient times, it was the job of the scribes to create handwritten copies of religious scriptures, and they had to do this work with great care. While making copies, they read and understood every single word of the scriptures meticulously, which gave them a good understanding of the texts. It is in this context that a scribe asks the Lord about the greatest commandment. In fact, the ten commandments that the Lord provided to the people through the prophet Moses had been exaggerated and multiplied by the religious leaders. Given that there were so many rules and commandments, it was naturally difficult for an ordinary person to discern which commandment or rule was the most important. Perhaps understanding this problem, the scholar asks Lord Jesus about the first and most important commandment.

It is noteworthy that he asked about only one greatest commandment, yet the Lord provided him with three commandments encompassed within one. This is likely because the command to love God is incomplete without loving one another, and it is not possible to love others unless we love ourselves. In other words, when we accept and love ourselves, only then can we accept and love others, and as a result, we can love God. All other commandments are based on this one commandment. May God grant us the grace to wholeheartedly believe in and follow His commandments in our lives.

-Fr. Johnson B. Maria(Gwalior Diocese)

📚 मनन-चिंतन - 2

आज के पाठों का सार है यदि हम ईश्वर के साथ जीवन यापन करना चाहते हैं तो हमें अपने जीवन में ईश्वर द्वारा दी गई ईश्वरीय प्रेम और पड़ोसी प्रेम की आज्ञाओं का पालन करना नित्तान्त आवश्यक है।

कहा गया है कि हम इस पृथ्वी या संसार में जिस वस्तु या चीज को अत्यधिक चाहते हैं उसका सौंदर्य या चमक धीरे-धीरे कम होती जाती है। ऐसा क्यों? ऐसा इसलिए होता है कि समय के साथ उसका मूल्य कम होते जाता है। पर यदि हम ईश्वरीय प्रेम और पड़ोसी प्रेम को देखें तो यह इसके ठीक विपरीत है। यह जितना ज्यादा से ज्यादा उपयोग में लाया जाता है उसका मूल्य बढ़ता ही जाता है।

इसका उदाहरण स्वरूप आज के पहले पाठ विधि विवरण ग्रंथ 6:2-6, मूसा लोगों से कहते हैं कि यदि तुम अपने पुत्रों और पौत्रों के साथ जीवन भर प्रभु पर श्रध्दा रखोगे और उसके नियमों का पालन करोगे, तो तुम्हारी आयु लंबी होगी और इसी में तुम्हारा कल्याण है।

हम कितनी बार पवित्र वचनों को प्रवचनों में सुनते हैं, कितनी बार हमें कहा जाता है कि हम ईश्वर में अपनी जीवन को केन्द्रित करें। लेकिन कई बार हमारा जीवन बहुमूल्य मोती को संजोये नहीं रखता है। हम अपने क्रियाकलापों में व्यस्त होकर प्रभु के जीवंत वचनो से अपने को अलग कर देते हैं।

आज के दूसरे पाठ इब्रानियों के नाम पत्र 7:23-28 में कहा गया है, यहूदी याजक मनुष्य मात्र थे। इसलिए उन्हें बारम्बार बलि चढ़ानी पड़ती थी। परन्तु हमारे प्रभु येसु मसीह ने एक ही बार सारी मानव जाति के पापों के लिए पूर्ण प्रायश्चित किया। यह सब इसलिए संभव हुआ कि येसु हर क्षण पिता ईश्वर के साथ थे। उनके जीवन में उनका अतुल्य स्थान था।

इसी के संदर्भ में मैं आप सभों को एक राजा की कहानी का जिक्र करता हूँ जो हमेशा आंनदमय जीवन बिता रहा था। लेकिन वह जीवन में एक चीज से चिंतित और दुःखी था कि उसकी कोई संतान नहीं थी। वह आपनी प्रजा को अत्यंत प्यार करता था। एक दिन की बात है- राजा के घनिष्ट मित्र ने कहा, “स्वामी जी आप अपनी प्रजा के ही किसी बालक को गोद ले लें” और राजा ने गोद लेने के लिए बालकों से दो शर्तें रखी। जो भी युवक या बालक राजा के दरबार में दत्तक पुत्र बनना चाहता है उसमें ईश्वर और पड़ोसी के प्रति प्रेम होना चाहिए। इस प्रकार हम देखते हैं कि राजा के दरबार में आकर कई युवकों और बालकों ने दत्तक पुत्र बनने का प्रयास किया। कई युवक और बालक अच्छे से अच्छे कपड़े पहनकर राजा के समाने पेश हुये, लेकिन राजा ने उन्हें एक-एक करके अयोग्य घोषित कर दिया। अंत में एक फट्टे पुराने कपड़े पहने युवक आया और राजा के सामने राज दरबार में दत्तक पु़त्र बनने का दावा पेश किया। राजा ने सहर्ष उसे गले लगाकर उसका चुंबन किया क्योंकि वह युवक ईश्वर से भय एवं प्यार करता था और अपने पड़ोसी को भी अपने ही समान समझता था। इसे देखकर मीडिया या पत्रकारों ने राजा के पास जाकर उनका साक्षात्कार लिया और राजा से जानना चाहा कि क्यों उन्होंने ऐसे युवक या बालक को अपना दत्तक पुत्र माना। तो राजा का दो टूक जवाब था कि मैंने ऐसे बालक को पहली बार मेरे जीवन में देखा जिसने मेरे जीवन को झकझोर कर रख दिया, जिसकी मुझे अपने जीवन मे खोज थी।

आज के तीसरे पाठ - सुसमाचार – के द्वारा प्रभु हमें सुखमय जीवन जीने के लिए दो बातें बतलाते हैं। ईश्वर को प्यार करना और पड़ोसी को प्यार करना। हमारा जीवन कई प्रकार के प्रश्नों से भरा रहता है। कई बार हम मन ही मन ईश्वर के अनुरूप बनने का प्रयास करते हैं और कई बार हमारे प्रयास कुछ हद तक सफल भी होते हैं। लेकिन कई बार हम अत्यधिक उत्साह के कारण अपने मार्ग से भटक जाते हैं और हमारी चुनौतियाँ हमें सान्सारिक सागर की ओर डूबा देती है। फिर इसी चुनौती का समाधान खोजते-खोजते हम अपने जीवन को ईश्वर से दुर कर देते हैं।

इसलिए आज युख्रीस्तीय बलिदान में हमें प्रण लेना है कि हम जीवन में प्रभु से संयुक्त रहने के लिए हमें ईश्वरीय वचन को मूल मंत्र की तरह अपनायेंगे जिसे हम प्रभु के लिए समर्पित कर सकें।

फादर आइजक एक्का