अक्टूबर 30, 2024, बुधवार

वर्ष का तीसवाँ सामान्य सप्ताह

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📒 पहला पाठ : एफ़ेसियों के नाम सन्त पौलुस का पत्र 6:1-9

1) बच्चो! अपने माता-पिता की आज्ञा मानों, क्योंकि यह उचित है।

2) अपने माता-पिता का आदर करो। यह पहली ऐसी आज्ञा है, जिसके साथ एक प्रतिज्ञा भी जुड़ी हुई है,

3) जो इस प्रकार है- जिससे तुम्हारा कल्याण हो और तुम बहुत दिनों तक पृथ्वी पर जीते रहो।

4) पिता अपने बच्चें को खिझाया नहीं करें, बल्कि प्रभु के अनुरूप शिक्षा और उपदेश द्वारा उनका पालन-पोषण करें।

5) दासों से मेरा अनुरोध है कि जो लोग इस पृथ्वी पर आपके स्वामी हैं, आप डरते कांपते और निष्कपट हृदय से उनकी आज्ञा पूरी करें, मानो आप मसीह की सेवा कर रहे हों।

6) आप मुनष्यों को प्रसन्न करने के उद्देश्य से दिखावे मात्र के लिए नहीं, बल्कि मसीह के दासों की तरह ऐसा करें, जो सारे हृदय से ईश्वर की इच्छा पूरी करते हैं।

7) आप प्रसन्नता से अपना सेवा-कार्य करते रहें, मानो आप मनुष्यों की नहीं, बल्कि प्रभु की सेवा करते हों;

8) क्योंकि आप जानते हैं कि प्रत्येक मनुष्य, चाहे वह दास हो या स्वतन्त्र, जो भी भलाई करेगा, उसका पुरस्कार वह प्रभु से प्राप्त करेगा।

9) आप, जो स्वामी हैं, दासों के साथ ऐसा ही व्यवहार करें। आप धमकियाँ देना छोड़ दें; क्योंकि आप जानते हैं कि स्वर्ग में उनका और आपका एक ही स्वामी है, और वह किसी के साथ पक्षपात नहीं करता।

📒 सुसमाचार : सन्त लूकस का सुसमाचार 13:22-30

22) ईसा नगर-नगर, गाँव-गाँव, उपदेश देते हुए येरुसालेम के मार्ग पर आगे बढ़ रहे थे।

23) किसी ने उन से पूछा, ’’प्रभु! क्या थोड़े ही लोग मुक्ति पाते हैं?’ इस पर ईसा ने उन से कहा,

24) ’’सँकरे द्वार से प्रवेश करने का पूरा-पूरा प्रयत्न करो, क्योंकि मैं तुम से कहता हूँ-प्रयत्न करने पर भी बहुत-से लोग प्रवेश नहीं कर पायेंगे।

25) जब घर का स्वामी उठ कर द्वार बन्द कर चुका होगा और तुम बाहर रह कर द्वार खटखटाने और कहने लगोगे, ’प्रभु! हमारे लिए खोल दीजिए’, तो वह तुम्हें उत्तर देगा, ’मैं नहीं जानता कि तुम कहाँ के हो’।

26) तब तुम कहने लगोगे, ’हमने आपके सामने खाया-पीया और आपने हमारे बाज़ारों में उपदेश दिया’।

27) परन्तु वह तुम से कहेगा, ’मैं नहीं जानता कि तुम कहाँ के हो। कुकर्मियो! तुम सब मुझ से दूर हटो।’

28) जब तुम इब्राहीम, इसहाक, याकूब और सभी नबियों को ईश्वर के राज्य में देखोगे, परन्तु अपने को बहिष्कृत पाओगे, तो तुम रोओगे और दाँत पीसते रहोगे।

29) पूर्व तथा पश्चिम से और उत्तर तथा दक्षिण से लोग आयेंगे और ईश्वर के राज्य में भोज में सम्मिलित होंगे।

30) देखो, कुछ जो पिछले हैं, अगले हो जायेंगे और कुछ जो अगले हैं, पिछले हो जायेंगे।’’

📚 मनन-चिंतन

आज का पाठ हमें सिखाता है कि ईश्वर के राज्य का हिस्सा होना केवल सदस्यता लेना या इसे हल्के में लेना नहीं है। इसका मतलब है कि हमें मेहनत करनी होगी और प्रतिबद्ध रहना होगा। ‘‘संकीर्ण दरवाजा’’ उन चुनौतियों का प्रतिनिधित्व करता है जिनका सामना हम अपना विश्वास जीते समय करते हैं। येसु का अनुसरण करना कठिन हो सकता है, और हमें ऐसे चुनाव करने होते हैं जो प्रभु की शिक्षाओं से मेल खाते हों।

जब येसु कहते हैं, ‘‘मैं तुम्हें नहीं जानता,’’ यह वाक्य हमें गहन चिंतन करने पर मजबूर करना चाहिए। हमें अपने ईश्वर के साथ अपने रिश्ते पर ध्यान देना चाहिए। क्या हम सच में उसी तरीके से जी रहे हैं जैसा वे चाहते हैं?

यह पाठ हमें यह भी याद दिलाता है कि ईश्वर का राज्य सभी के लिए खुला है, यहां तक कि उन लोगों के लिए भी जिन्हें हम शायद इसमें शामिल नहीं होना समझते हो। विभिन्न पृष्ठभूमियों और विभिन्न प्रकार से जीवन यापन करने वाले लोग उस ईश्वर के परिवार का हिस्सा बन सकते हैं। हममें दोस्ताना व्यवहार होना चाहिए और सभी लोगों के साथ मसीह का प्यार साझा करना चाहिए, चाहे वे कोई भी हों।

आइये हम अपनी आस्था को गंभीरता से लें, यह जानते हुए कि ईश्वर की कृपा हर किसी के लिए है जो उसकी खोज करता है। और सभी का ईश्वर के प्रेमपूर्ण परिवार में स्वागत करते हुए, उनके कृपा को दूसरों के साथ हमेशा साझा करते रहें।

फादर डेनिस तिग्गा (भोपाल महाधर्मप्रान्त)

📚 REFLECTION


Today’s reading teaches us that being part of God’s Kingdom isn’t just about being a member or taking it for granted. It means we need to work hard and stay committed. The “narrow door” represents the challenges we face when we try to live our faith. Following Jesus can be tough, and we have to make choices that match His teachings.

When Jesus says, “I don’t know you,” it should make us think. We need to look at our relationship with God. Are we really living the way He wants us to?

This reading also reminds us that God’s Kingdom is open to everyone, even those we might think don’t belong. People from all backgrounds and walks of life can be part of God’s family. We should be friendly and share Christ’s love with everyone, no matter who they are.

Let’s be serious about our faith, knowing that God’s kindness is there for everyone who looks for Him. And let’s remember to share that kindness with others, welcoming everyone into God’s loving family.

-Fr. Dennis Tigga (Bhopal Archdiocese)

📚 मनन-चिंतन - 2

प्रभु येसु सदा एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाते रहते थे, क्योंकि वह हमेशा अपने पिता के कार्य में व्यस्त रहते थे। उनके पास हर तरह के लोग चले आते थे, हर उम्र के और हर प्रकार के लोग। उनमें ऐसे लोग थे जो धनवान थे, जो दरिद्र थे, यहाँ तक कि छोटे बच्चे भी उनकी ओर खिंचे चले आते थे। प्रभु येसु सबके लिए खुला निमंत्रण देते थे, लेकिन सब के सब प्रभु येसु की शिक्षाओं पर नहीं चल पाते थे। बहुत से लोगों को प्रभु की शिक्षाएँ बहुत कठिन लगीं, इसलिए वह प्रभु को छोड़कर चले जाते हैं (देखिए योहन ६:६०-६६)। लेकिन ऐसे भी लोग थे, जिन्होंने कठिन मार्ग को चुना, संकरे मार्ग को चुना। संकरे मार्ग पर चलना बहुत कठिन है।

चूँकि संकरे मार्ग पर चलना कठिन है और चौड़े मार्ग पर चलना सुगम है, तो बहुत सारे लोग चौड़ा मार्ग ही चुनते हैं। लेकिन वे नहीं जानते कि चौड़ा मार्ग विनाश की ओर ले जाता है। आज दुनिया अलग दिशा में जा रही है, लोगों में नैतिकता नाम की चीज़ नहीं बची है। लोग हमेशा सुख सुविधा और ख़ुशी का शोर्ट्कट ढूँढते हैं। लेकिन सच्ची ख़ुशी हमें अपने जीवन में ईश्वर की इच्छा पूरी करने में ही मिल सकती है। लेकिन जीवन में ईश्वर की इच्छा पूरी करना आसान नहीं है। यदि हम आसान राह चुनते हैं तो हो सकता है हम ईश्वर के लिए अनजान हो जाएँ, और ईश्वर हमें नकार दें। प्रभु येसु की शिक्षाओं पर चलना बहुत कठिन है, लेकिन ईश्वर सदा हमारे साथ हैं।

- फ़ादर जॉन्सन बी. मरिया (ग्वालियर धर्मप्रान्त)


📚 REFLECTION

Jesus was always busy and on the move to do his Father’s work. Even he had no time to rest for a while. Many people flocked to him, people of all ages and all walks. There were people who were rich, people who were poor, even small children were there. Jesus’ invitation was open to all but all could not live according to the teachings of Jesus. Many found it very difficult and deserted Jesus (cf John 6:60-66). But there were some people who chose the tough path, the narrow road. The journey on the narrow path is most difficult.

Since it is difficult to walk on the narrow path and easy to walk on the wide path, many choose the easy way. But that easy way leads to destruction. Today the world is so much advanced, people are losing the sense of morality. They always look for comforts and shortcuts to attain happiness in life. But the true happiness is attained by doing the will of God. It is not easy at all. If we choose the easy path, God may not recognize us, even though we maybe regular to church and prayers. Living according to the teachings of Jesus is tough path. God is ever ready to help and guide us.

-Fr. Johnson B. Maria (Gwalior Diocese)