अक्टूबर 16, 2024, बुधवार

वर्ष का अट्ठाईसवाँ सामान्य सप्ताह

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📒 पहला पाठ : गलातियों के नाम सन्त पौलुस का पत्र 5:18-25

18) यदि आप आत्मा की प्रेरणा के अनुसार चलते है, तो संहिता के अधीन नहीं हैं।

19) शरीर के कुकर्म प्रत्यक्ष हैं, अर्थात् व्यभिचार, अशुद्धता, लम्पटता,

20) मूर्तिपूजा, जादू-टोना, बैर, फूट, ईर्ष्या, क्रोध, स्वार्थ-परता, मनमुटाव, दलबन्दी,

21) द्वेष, मतवालापन, रंगरलियाँ और इस प्रकार की और बातें। मैं आप लोगों से कहता हूँ जैसा कि मैंने पहले भी कहा- जो इस प्रकार का आचरण करते हैं, वे ईश्वर के राज्य के अधिकारी नहीं होंगे।

22) परन्तु आत्मा का फल है-प्रेम, आनन्द, शान्ति, सहनशीलता, मिलनसारी, दयालुता ईमानदारी,

23) सौम्यता और संयम। इनके विरुद्ध कोई विधि नहीं है।

24) जो लोग ईसा मसीह के हैं, उन्होंने वासनाओं तथा कामनाओं-सहित अपने शरीर को क्रूस पर चढ़ा दिया है।

25) यदि हमें आत्मा द्वारा जीवन प्राप्त हो गया है, तो हम आत्मा के अनुरूप जीवन बितायें।

📙 सुसमाचार : सन्त लूकस का सुसमाचार 11:42-46

42) ’’फ़रीसियो! धिक्कार तुम लोगों को! क्योंकि तुम पुदीने, रास्ने और हर प्रकार के साग का दशमांश तो देते हो; लेकिन न्याय और ईश्वर के प्रति प्रेम की उपेक्षा करते हो। इन्हें करते रहना और उनकी भी उपेक्षा नहीं करना, तुम्हारे लिए उचित था।

43 फ़रीसियो! धिक्कार तुम लोगों को! क्योंकि तुम सभागृहों में प्रथम आसन और बाज़ारों में प्रणाम चाहते हो।

44) धिक्कार तुम लोगों को! क्योंकि तुम उन क़ब्रों के समान हो, जो दीख नहीं पड़तीं और जिन पर लोग अनजाने ही चलते-फिरते हैं।’’

45) इस पर एक शास्त्री ने ईसा से कहा, ’’गुरूवर! आप ऐसी बातें कह कर हमारा भी अपमान करते हैं’’।

46) ईसा ने उत्तर दिया, ’’शास्त्रियों! धिक्कार तुम लोगों को भी! क्योंकि तुम मनुष्यों पर बहुत-से भारी बोझ लादते हो और स्वयं उन्हें उठाने के लिए अपनी तक उँगली भी नहीं लगाते।

📚 मनन-चिंतन

आज का सुसमाचार का पाठ हमें सिखाता है कि यद्यपि नियमों और परंपराओं का पालन करना अच्छा है, हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि ईश्वर के लिए वास्तव में क्या मायने रखता है। फरीसी अपने हर प्रकार के साग का दशमांश देने के बारे में बहुत सावधान थे, लेकिन वे बड़े कार्य से चूक गएः जो कि है - दूसरों के प्रति दया, करुणा और न्याय दिखाना। येसु हमें याद दिलाते हैं कि हमारा विश्वास हमें अपने आस-पास के लोगों से प्यार करने और उनकी सेवा करने की ओर ले जाना चाहिए।

अपने दैनिक जीवन में, हम इस पर विचार करें हम अपने विश्वास को किस प्रकार जियें। क्या हम नियमों या रीतियों पर इतने केंद्रित हैं कि हम प्यार और दया दिखाना भूल जाते हैं? हम बाहरी रूप में जो करते हैं उसमें बहुत आसानी से फंस जाते हैं जबकि हमारे भीतरी दिल में जो है उसे नजरअंदाज कर देते हैं। ईश्वर, हर छोटे मोटे नियम का पूरी तरह से पालन करने की अपेक्षा हमारे ह्दय और दूसरों के साथ हमारे संबंधों की अधिक परवाह करते हैं।

आइए विचार करके देखें कि हम अपने जीवन में प्रेम और न्याय को किस प्रकार जी सकते हैं। इसका आशय यह हो सकता है कि जरूरतमंद लोगों की मदद करना, जो सही है उसके लिए खड़ा होना, या बस दूसरों के प्रति अधिक दयालु और समझदार होना।

जब हम अपने विश्वास को जीने का प्रयास कर रहे हैं, आइए याद रखें कि हमारे लिए वास्तव में जो मायने रखता हैः वो है - ईश्वर से प्रेम करना और अपने पड़ोसियों से प्रेम करना। जब हम ऐसा करते हैं, तो हम येसु के हृदय को प्रतिबिंबित करते हैं और वास्तव में अपने विश्वास का सम्मान करते हैं।

फादर डेनिस तिग्गा (भोपाल महाधर्मप्रान्त)

📚 REFLECTION


Today’s passage teaches us that while it’s good to follow rules and traditions, we must not forget what truly matters to God. The Pharisees were very careful about tithing their herbs, but they missed the big picture i.e., showing kindness, compassion, and justice to others. Jesus reminds us that our faith should lead us to love and serve those around us.

In our daily lives, we can reflect on how we practice our faith. Are we so focused on rules or rituals that we forget to show love and kindness? It’s easy to get caught up in what we do on the outside while neglecting what’s in our hearts. God cares more about our hearts and our relationships with others than about following every little rule perfectly.

Let’s consider how we can practice love and justice in our own lives. This might mean helping those in need, standing up for what is right, or simply being more kind and understanding towards others.

As we strive to live out our faith, let’s remember to focus on what truly matters: loving God and loving our neighbours. When we do that, we reflect the heart of Jesus and truly honour our faith.

-Fr. Dennis Tigga (Bhopal Archdiocese)

📚 मनन-चिंतन - 2

हम सब ईश्वर के प्रतिरूप में बनाए गए हैं। इसका अर्थ है कि हमें अपने स्वर्गीय पिता जैसे पवित्र बनना है (देखिए मत्ती ५:४८)। पवित्र बनने के हमारे इस प्रयास में हमारे मार्गदर्शन एवं सहायता के लिए पिता ईश्वर ने हमें पवित्र आत्मा प्रदान किया है। जब हम पवित्र आत्मा मार्गदर्शन के अनुसार और उसी की प्रेरणा से जीवन बिताते हैं तो हम ईश्वर की सच्ची सन्तान बन जाते हैं। वहीं अगर हम पवित्र आत्मा की आवाज़ को अनसुना कर देते हैं, और संसार के बहकावे में आ जाते हैं तो हम अंधकार में खो जाते हैं, ईश्वर से दूर भटक जाते हैं।

आज के पाठ में सन्त पौलुस हमें याद दिलाते हैं कि जो लोग पाप की प्रेरणा में जीवन बिताते हैं, संसार के बहकावे में आकर जीवन बिताते हैं, वे उन सुंदर प्रतीत होती क़ब्रों के समान हैं जो बाहर से तो आकर्षित लगती हैं, लेकिन अंदर से सड़ी हुई हैं। लेकिन जो लोग पवित्र आत्मा की प्रेरणा से जीवन जीते हैं, उन्हें पवित्र आत्मा के फलों से पहचाना जा सकता है। पवित्र आत्मा से परिपूर्ण व्यक्ति का शरीर ईश्वर का निवास बन जाता है। जब हम अपने जीवन को पवित्र आत्मा के हाथों में सौंप देते हैं तो हम ख्रिस्त के साथ एक हो जाते हैं। और जब हम प्रभु में एक हैं तो उनके पुनरुत्थान की महिमा के सहभागी भी होंगे।

- फ़ादर जॉन्सन बी. मरिया (ग्वालियर धर्मप्रान्त)


📚 REFLECTION

We all are created in the image and likeness of God. This means that we are called to be holy and pure like our heavenly Father (cf. Matt 5:48). In our effort and process of becoming holy, God has given us a helper and our guide, the Holy Spirit. When we are guided by the Holy Spirit and are obedient, we become the true children of God. But on the other hand when we ignore the promptings of the spirit and follow the worldly attractions, then we are lost and gone away from God.

St. Paul reminds us in the first reading of today about the people whose life is governed and guided by sin. They become like the rotten tomb, which may be white washed and may made to appear very pleasant and attractive externally, but inside it is filled with filth. But if our life is governed and guided by the Holy Spirit, then its fruits can be seen easily in our life. A person filled with Holy Spirit, becomes a dwelling place of God. When we allow our lives to be over taken by the Holy Spirit, we ourselves form the body of Christ. And we know, if we are one in Christ, we shall enjoy the glory of his resurrection.

-Fr. Johnson B. Maria (Gwalior Diocese)

📚 मनन-चिंतन-3

येसु से संयुक्त रहनेवालों की जीवनशैली के बारे में आज का पहला पाठ में बताया गया है। जो लोग येसु से संयुक्त रहते हैं उन्हें सभी भोग-विलास और सम्बन्धी इच्छाओं को क्रूस पर चढ़ाना होगा। मसीह से संबंधित होने का मतलब हैं पवित्र आत्मा से संचालित होना। इसके विपरीत भोग-विलास का अधीन होने का परिणाम हैं कई प्रकार के पाप, जैसे व्यभिचार, अशुद्धता, लम्पटता, मूर्तिपूजा, जादू-टोना, बैर, फुट, ईर्ष्या, इत्यादि। जबकि, जब कोई व्यक्ति आत्मा द्वारा संचालित किया जाता है तो इसका परिणाम हैं प्रेम, आनंद, शांति, सहनशीलता, मिलनसारी, दयालुता, ईमानदारी, सौम्यता और संयम (गलाति 5:22)। जो मसीह से संयुक्त रहता है उसे आत्मिक फलों का उत्पादन करना चाहिए, न की स्वयं की इच्छानुसार चलना।

आज का सुसमाचार फरीसियों और शास्त्रियों का उनके पाखंडों, गलत प्राथमिकताओं और आडंबरों के लिए कड़ी निंदा है। ये सब बातें भोग विलास और स्वार्थता के लक्षण हैं।

ईश्वर ने हमें अपनी आत्मा दी है और चाहता है कि हम उसके द्वारा संचालित हों। क्या आप पवित्र आत्मा के द्वारा संचालित हैं या अपनी स्वार्थी आत्मा से? इसकी पहचान करना आसान है। इस के लिए आपके जीवन में प्रकट फलों को देखना पर्याप्त है। जैसा कि येसु ने कहा है, एक वृक्ष अपने फलों से पहजाना जाता है।

- फादर जोली जोन (इन्दौर धर्मप्रांत)


📚 REFLECTION

The first reading of today from Galatians talks about the drastic demands of belonging to Christ, that is to crucify all self-indulgent passions and desires. Belonging to Christ means being led by the Spirit. The opposite is being led by self-indulgence which results in all kinds of sins to satisfy the self like fornication, gross indecency, sexual irresponsibility, etc. Whereas, when one is guided by the Spirit it results in love, joy, peace, patience, kindness, goodness, trustfulness, gentleness and self-control (Gal 5:22). One who belongs to Christ must produce spiritual fruits, not the works of self-indulgence.

The gospel is a strong condemnation of Pharisees and lawyers for their hypocrisy, wrong priorities, vainglory which are all signs of self-indulgence.

God has given us his Spirit and wants us to be guided by him. Are you guided by the Spirit or by our own selfish spirit? It is easy to identify. It is enough to look at the types of fruits your life bears. As Jesus said, a tree is known by its fruits.

-Fr. Jolly John (Indore Diocese)