13) आप लोगों ने सुना होगा कि जब मैं यहूदी धर्म का अनुयायी था, तो मेरा आचरण कैसा था। मैं ईश्वर की कलीसिया पर घोर अत्याचार और उसके सर्वनाश का प्रयत्न करता था।
14) मैं अपने पूर्वजों की परम्परओं का कट्टर समर्थक था और अपने समय के बहुत-से यहूदियों की अपेक्षा अपने राष्ट्रीय धर्म के पालन में अधिक उत्साह दिखलाता था।
15) किन्तु ईश्वर ने मुझे माता के गर्भ से ही अलग कर लिया और अपने अनुग्रह से बुलाया था;
16) इसलिए उसने मुझ पर- और मेरे द्वारा- अपने पुत्र को प्रकट करने का निश्चय किया, जिससे मैं गैर-यहूदियों में उसके पुत्र के सुसमाचार का प्रचार करूँ। इसके बाद मैंने किसी से परामर्श नहीं किया।
17) और जो मुझ से पहले प्रेरित थे, उन से मिलने के लिए मैं येरूसालेम नहीं गया; बल्कि मैं तुरन्त अरब देश गया और बाद में दमिश्क लौटा।
18) मैं तीन वर्ष बाद केफ़स से मिलने येरूसालेम गया और उनके साथ पंद्रह दिन रहा।
19) प्रभु के भाई याकूब को छोड़ कर मेरी भेंट अन्य प्रेरितों में किसी से नहीं हुई।
20) ईश्वर मेरा साक्षी है कि मैंने आप को जो लिखा है, वह एकदम सच है।
21) इसके बाद मैं सीरिया और किलिकिया प्रदेश गया।
22) उस समय यहूदिया की मसीही कलीसियाएं मुझे व्यक्तिगत रूप से नहीं जानती थीं।
23) उन्होंने इतना ही सुना था कि जो व्यक्ति हम पर अत्याचार करता था, वह अब उस विश्वास का प्रचार कर रहा है, जिसका वह सर्वनाश करने का प्रयत्न करता था
24) और वे मेरे कारण ईश्वर की स्तुति करती थीं।
38) ईसा यात्रा करते-करते एक गाँव आये और मरथा नामक महिला ने अपने यहाँ उनका स्वागत किया।
39) उसके मरियम नामक एक बहन थी, जो प्रभु के चरणों में बैठ कर उनकी शिक्षा सुनती रही।
40) परन्तु मरथा सेवा-सत्कार के अनेक कार्यों में व्यस्त थी। उसने पास आ कर कहा, ’’प्रभु! क्या आप यह ठीक समझते हैं कि मेरी बहन ने सेवा-सत्कार का पूरा भार मुझ पर ही छोड़ दिया है? उस से कहिए कि वह मेरी सहायता करे।’’
41) प्रभु ने उसे उत्तर दिया, ’’मरथा! मरथा! तुम बहुत-सी बातों के विषय में चिन्तित और व्यस्त हो;
42) फिर भी एक ही बात आवश्यक है। मरियम ने सब से उत्तम भाग चुन लिया है; वह उस से नहीं लिया जायेगा।’’
आज का सुसमाचार हमें अपने जीवन में संतुलन के बारे में सिखाता है। मरथा येसु की सेवा करके एक अच्छा काम कर रही थी, लेकिन वह अपने काम पर इतनी केंद्रित हो गई कि वह येसु के साथ उपस्थित रहने के अवसर को चूक गई। दूसरी ओर, मरियम ने येसु के चरणों में बैठने और उनके वचनों को सुनने के महत्व को पहचाना। येसु ने मरथा से कहा कि मरियम ने उत्तम भाग चुना है, जो हमें यह याद दिलाया है कि ईश्वर के साथ रहना हमेशा हमारी प्राथमिकता होनी चाहिए।
जीवन की व्यस्तता - काम, जिम्मेदारियाँ और दैनिक कार्यों से विचलित होना आसान है। लेकिन येसु हमें उनकी उपस्थिति में बैठने, प्रार्थना करने और उनकी बातों को सुनने के लिए समय निकालने के लिए आमंत्रित करते हैं। मरथा की तरह, हम अक्सर ईश्वर के लिए ‘‘कार्य करनेश् में फंस जाते हैं, लेकिन हमें ईश्वर के साथ बस ‘‘रहनेश् के महत्व को भी याद रखना चाहिए।
यहां पर सबक यह नहीं है कि काम या सेवा गलत है, बल्कि यह है कि येसु के साथ हमारा रिश्ता हमारी सर्वोच्च प्राथमिकता होनी चाहिए। जब हम प्रार्थना और चिंतन में उसके साथ समय बिताते हैं, तो बाकी सब कुछ ठीक हो जाता है।
जैसे हम इस पाठ पर विचार करते हैं, आइए हम अपने आप से पूछेंः क्या हम येसु के चरणों में बैठने, उनकी आवाज सुनने और उनके साथ रहने के लिए समय निकाल रहे हैं? आइए मरियम के उदाहरण से सीखें और चुनें कि हमारे लिए क्या बेहतर है? हमारे लिए शांति और ज्ञान जो ईश्वर की उपस्थिति से मिलता है, यही उत्तम है।✍फादर डेनिस तिग्गा (भोपाल महाधर्मप्रान्त)
Today’s Gospel passage teaches us about balance in our lives. Martha was doing a good thing by serving Jesus, but she became so focused on her work that she missed the opportunity to be present with Him. Mary, on the other hand, recognized the importance of sitting at Jesus’ feet and listening to His words. Jesus tells Martha that Mary has chosen the better part, reminding us that being with God should always come first.
It’s easy to become distracted by the busyness of life—work, responsibilities, and daily tasks. But Jesus invites us to take time to sit in His presence, to pray, and to listen to Him. Like Martha, we often get caught up in “doing” for God, but we must also remember the importance of simply “being” with God.
The lesson here is not that work or service is wrong, but that our relationship with Jesus should be our top priority. When we spend time with Him in prayer and reflection, everything else falls into place.
As we reflect on this story, let’s ask ourselves: Are we making time to sit at Jesus’ feet, to hear His voice and be with Him? Let’s learn from Mary’s example and choose what is better—the peace and wisdom that comes from being in the presence of God.
✍ -Fr. Dennis Tigga (Bhopal Archdiocese)
आज हम सन्त फ़्रांसिस असीसी का पर्व मनाते हैं। हम उनके जीवन के बारे में जानते हैं कि उन्होंने किस तरह अपने पुराने व्यर्थ के जीवन को छोड़कर एक नया जीवन अपनाया। एक तरफ़ अपनी मन-मर्ज़ी और संसार के बहकावे में आकर जीने वाला जीवन था, वहीं दूसरी ओर प्रभु येसु के पद चिन्हों पर चलकर शांति और ख़ुशी का जीवन था। जैसे ही उन्होंने प्रभु येसु को पा लिया वैसे ही उनका जीवन पूर्ण हो गया। उन्हें और किसी चीज़ की ज़रूरत नहीं पड़ी। यहाँ तक कि उन्हें अपने घर-परिवार से एवं पैतृक सम्पत्ति से भी बेदख़ल कर दिया गया। लेकिन उन्हें कोई चिंता नहीं थी, क्योंकि उन्हें जीवन की सबसे बड़ी पूँजी जो मिल गयी थी, वह पूँजी स्वयं प्रभु येसु थे। इसी तरह से सन्त पौलुस के जीवन में भी हुआ, जिसके बारे में वो हमें आज के पहले पाठ में बताते हैं।
दर असल हम या तो ईश्वर को छोड़कर सांसारिकता में खो जाते हैं, और अपने प्रभु से दूर हो जाते हैं, या अपने जीवन में ईश्वर के महत्व को समझकर उनके सदा जुड़े रहते हैं। दूसरा विकल्प ही हमारे जीवन को नया अर्थ एवं सच्ची संतुष्टि देता है, हमारे जीवन को नई दिशा देता है। आज के सुसमाचार में भी प्रभु येसु यही सन्देश देते हैं। मरियम और मार्था, दोनों बहनों में से मरियम ने प्रभु के चरणों में बैठकर उनकी जीवनदायी बातों को सुनना चुना वहीं मार्था घर के काम-काज के बारे में चिंता कर रही थी। काम-काज करना भी ज़रूरी है लेकिन उसके बारे में व्यर्थ चिंता करना सही नहीं है। इसलिए प्रभु कहते हैं - “मार्था ! मार्था! तुम बहुत सी बातों की व्यर्थ चिंता करती हो।” आइए हम व्यर्थ की बातों की चिंता करना छोड़कर ईश्वर को अपने जीवन का केंद्र बना लें और उनके सदा जुड़े रहें।
✍ - फ़ादर जॉन्सन बी. मरिया (ग्वालियर धर्मप्रान्त)
Today mother Church celebrates the feast of St. Francis of Assisi. We know about his life that he gave up his old, meaningless life and embraced a new, holy way of living. On the one hand he lived a life guided by passions and worldliness and on the other hand he lived a peaceful and meaningful life by accepting Jesus and deciding to follow him alone. As he welcomed Jesus in his life, he was a totally different person. He did not need anything else. Even though he was disowned by his own family, expelled from house, but nothing could deter him, because he had discovered the greatest treasure of all time, and that treasure was Jesus himself. Similar thing happened in the life of St. Paul, who shares his life experience in the first reading of today.
We either choose to go away from God and be lost in the darkness of the world or we come back to God and remain in him. The second choice gives new life, joy and peace in our life, it gives new hope. Jesus invites us to experience the same. Among both the sisters, Mary chose the best part, which was to sit at the feet of the Lord and listen to him, whereas Martha was worried about many things. Certainly we need to look into the matters of our day to day life, but worrying about them unnecessary is not right. That’s why Jesus say, Martha, Martha why do you worry about so many things!’ Let us forget about the worries of the world and make God as the center of our life and live and remain always in Him alone.
✍ -Fr. Johnson B. Maria (Gwalior Diocese)
ईश्वर हमसे प्यार करता है। जैसा कि संत पौलुस आज का पहला पाठ में कहता है, "उसने मुझ पर - और मेरे द्वारा - अपने पुत्र को प्रकट करने का निश्चय किया, जिससे मैं गैर यहूदियों में उसके पुत्र के सुसमाचार का प्रचार करूं"। उसने स्वयं प्रभु येसु से सुसमाचार का संदेश सीखा; किसी भी मानव स्रोत से नहीं। ईश्वर अपनी उदारता में अपने आपको हमारे सामने प्रकट करता है और चाहता है कि हम सभी लोगों के साथ सुसमाचार का आनंद का साझा करें।
आज का सुसमाचार का पाठ येसु के द्वारा मरथा और मरियम कों उनके घर में भेंट करने के बारे में है। मारथा ने येसु का उनके घर में स्वागत किया। मरियम ने प्रभु के चरणों में बैठकर उनकी शिक्षा सुनती रही। येसु ने मरथा से कहा, "तुम बहुत सी बातों के विषय में चिंतित और व्यस्त हो; फिर भी एक ही बात आवश्यक है। मरियम ने सबसे उत्तम भाग चुन लिया है; वह उस से नहीं लिया जायेगा"।
येसु के साथ व्यक्तिगत प्रार्थना में समय बिताने से और उनकी बात मौन-साधना और पवित्र वचन में सुनने से ही कोई येसु के साथ अपने सम्बन्ध में बढ़ सकता है। प्रार्थना में येसु के साथ समय बिताने से ही आध्यात्मिक जीवन का विकास होता है। प्रार्थना में प्रभु के साथ पहले समय बिताए बिना सुसमाचार की सच्ची घोषणा नहीं हो सकती है - येसु के संग रहना, उनकी शिक्षा सुनना, और सुसमाचार की घोषणा करना।
हम अपने आपसे पूछें: क्या मेरा प्रभु येसु के साथ व्यक्तिगत संबंध है? प्रभु से मेरा सम्बन्ध में बढ़ने के लिए मुझे क्या करना चाहिए ? क्या मैं इसे दैनिक व्यक्तिगत प्रार्थना और पवित्र वचन के पढ़न के द्वारा पोषण करता हूँ?
✍ - फादर जोली जोन (इन्दौर धर्मप्रांत)
God loves us. As Paul says in today’s reading, “God revealed his son to me, so that I might preach the good news about him to the pagans.” He learned the truth of the gospel from the Lord Jesus himself; not from any human source. In his goodness God reveals himself to us and wants us to share the joy of the gospel with all people.
The gospel passage is about the visit of Jesus to the house of Martha and Mary. Martha welcomed Jesus into their house. Mary sat down at the Lord’s feet and listened to him speaking. About his Jesus said, “Mary has chosen the better part; and it is not to be taken from her”.
It is by spending time with Jesus in personal prayer and listening to him - in silence as well as in the Scriptures - that one grows in relationship with him. There can be no spiritual life without time spent with Jesus in prayer. And there can be no proclamation of the gospel without first spending time with the Lord in prayer. Spend time with Jesus, listen to him, and then proclaim the Gospel to others.
Let us ask ourselves: Do I have a personal relationship with the Lord? What must I do to grow in my relationship with him? Do I nourish it with daily personal prayer and reading of the Holy Scripture?
✍ -Fr. Jolly John (Indore Diocese)