18) प्रभु ने कहा, ''अकेला रहना मनुष्य के लिए अच्छा नहीं। इसलिए मैं उसके लिए एक उपयुक्त सहयोगी बनाऊँगा।''
19) तब प्रभु ने मिट्ठी से पृथ्वी पर के सभी पशुओं और आकाश के सभी पक्षियों को गढ़ा और यह देखने के लिए कि मनुष्य उन्हें क्या नाम देगा, वह उन्हें मनुष्य के पास ले चला; क्योंकि मनुष्य ने प्रत्येक को जो नाम दिया होगा, वही उसका नाम रहेगा।
20) मनुष्य ने सभी घरेलू पशुओं, आकाश के पक्षियों और सभी जंगली जीव-जन्तुओं का नाम रखा। किन्तु उसे अपने लिए उपयुक्त सहयोगी नहीं मिला।
21) तब प्रभु-ईश्वर ने मनुष्य को गहरी नींद में सुला दिया और जब वह सो गया, तो प्रभु ने उसकी एक पसली निकाल ली और उसकी जगह को मांस से भर दिया।
22) इसके बाद प्रभु ने मनुष्य से निकाली हुई पसली से एक स्त्री को गढ़ा और उसे मनुष्य के पास ले गया।
23) इस पर मनुष्य बोल उठा, ''यह तो मेरी हड्डियों की हड्डी है और मेरे मांस का मांस। इसका नाम 'नारी' होगा, क्योंकि यह तो नर से निकाली गयी है।
24) इस कारण पुरुष अपने माता-पिता को छोड़ेगा और अपनी पत्नी के साथ रहेगा और वे दोनों एक शरीर हो जायेंगे।
9) परन्तु हम यह देखते हैं कि मृत्यु की यन्त्रणा सहने के कारण ईसा को महिमा और सम्मान का मुकुट पहनाया गया है। वह स्वर्गदूतों से कुछ ही छोटे बनाये गये थे, जिससे वह ईश्वर की कृपा से प्रत्येक मनुष्य के लिए मर जायें।
10) ईश्वर, जिसके कारण और जिसके द्वारा सब कुछ होता है, बहुत-से पुत्रों को महिमा तक ले जाना चाहता था। इसलिए यह उचित था कि वह उन सबों की मुक्ति के प्रवर्तक हो, अर्थात् ईसा को दुःखभोग द्वारा पूर्णता तक पहुँचा दे।
11) जो पवित्र करता है और जो पवित्र किये जाते हैं, उन सबों का पिता एक ही है; इसलिए ईसा को उन्हें अपने भाई मानने में लज्जा नहीं होती और वह कहते हैं -
2 फ़रीसी ईसा के पास आये और उनकी परीक्षा लेते हुए उन्होंने प्रश्न किया, “क्या अपनी पत्नी का परित्याग करना पुरुष के लिए उचित है?“
3) ईसा ने उन्हें उत्तर दिया? ’’मूसा ने तुम्हें क्या आदेश दिया?’’
4) उन्होंने कहा, “मूसा ने तो त्यागपत्र लिख कर पत्नी का परित्याग करने की अनुमति दी’’।
5) ईसा ने उन से कहा, ’’उन्होंने तुम्हारे हृदय की कठोरता के कारण ही यह आदेश लिखा।
6) किन्तु सृष्टि के प्रारम्भ ही से ईश्वर ने उन्हें नर-नारी बनाया;
7) इस कारण पुरुष अपने माता-पिता को छोड़ेगा और दोनों एक शरीर हो जायेंगे।
8) इस तरह अब वे दो नहीं, बल्कि एक शरीर हैं।
9) इसलिए जिसे ईश्वर ने जोड़ा है, उसे मनुष्य अलग नहीं करे।’’
10) शिष्यों ने, घर पहुँच कर, इस सम्बन्ध में ईसा से फिर प्रश्न किया
11) और उन्होंने यह उत्तर दिया, ’’जो अपनी पत्नी का परित्याग करता और किसी दूसरी स्त्री से विवाह करता है, वह पहली के विरुद्ध व्यभिचार करता है
12) और यदि पत्नी अपने पति का त्याग करती और किसी दूसरे पुरुष से विवाह करती है, तो वह व्यभिचार करती है’’।
13) लोग ईसा के पास बच्चों को लाते थे, जिससे वे उन पर हाथ रख दें; परन्तु शिष्य लोगों को डाँटते थे।
14) ईसा यह देख कर बहुत अप्रसन्न हुए और उन्होंने कहा, ’’बच्चों को मेरे पास आने दो। उन्हें मत रोको, क्योंकि ईश्वर का राज्य उन-जैसे लोगों का है।
15) मैं तुम से यह कहता हूँ- जो छोटे बालक की तरह ईश्वर का राज्य ग्रहण नहीं करता, वह उस में प्रवेश नहीं करेगा।’’
16) तब ईसा ने बच्चों को छाती से लगा लिया और उन पर हाथ रख कर आशीर्वाद दिया।
जब येसु से तलाक के विषय में पूछा गया तो येसु बताते हैं कि मूसा ने लोगों के हृदयों की कठोरता के कारण तलाक की अनुमति दी थी, यह ईश्वर का मूल इरादा नहीं था (मारकुस 10ः5)। येसु विवाह में विश्वासयोग्यता और प्रतिबद्धता के महत्व पर जोर देते हैं। पति-पत्नी के बीच साझा किया जाने वाला प्यार हमारे प्रति ईश्वर के अटूट प्रेम को दर्शाता है।
यह पाठ हमें विवाह की पवित्रता और स्थायी रिश्तों के मूल्य के बारे में सिखाता है। ऐसी दुनिया में जहां प्रतिबद्धता को अस्थायी माना जा सकता है, येसु हमें याद दिलाते हैं कि प्यार और वफादारी किसी भी मजबूत रिश्ते का केंद्र होते हैं। ईश्वर हमें हमारे द्वारा साझा किए गए उन बंधनों का पालन-पोषण और रक्षा करने के लिए कहते हैं, चाहे वह विवाह, परिवार या दोस्ती में हो।
इस पाठ के दूसरे भाग में, येसु छोटे बच्चों का स्वागत करते हुए कहते हैं, ‘‘बच्चों को मेरे पास आने दो, क्योंकि ईश्वर का राज्य इनही का हैश् (मरकुस 10ः14)। यहाँ, येसु हमें एक बच्चे के खुलेपन और विश्वास के साथ ईश्वर के पास जाने की याद दिलाते हैं। बच्चे विनम्रता, सरलता और शुद्ध हृदय - ऐसे गुण का प्रतिनिधित्व करते हैं जिन्हें हम सभी को ईश्वर के साथ अपने रिश्ते में अपनाने का प्रयास करना चाहिए।
जब हम इस पाठ पर विचार करते हैं, आइए हम अपने रिश्तों में ईमानदारी के महत्व और बच्चों के समान हृदय से ईश्वर पर भरोसा करने की आवश्यकता को याद रखें। आइए हम प्रेम, प्रतिबद्धता और विनम्रता के साथ जीने का प्रयास करें, जैसा कि येसु ने सिखाया है।
✍फादर डेनिस तिग्गा (भोपाल महाधर्मप्रान्त)
Jesus explains when he was asked about divorce that while Moses allowed divorce because of the hardness of people’s hearts, this was not God’s original intention (Mark 10:5). Jesus emphasizes the importance of faithfulness and commitment in marriage. The love shared between a husband and wife is meant to reflect God’s unwavering love for us.
This passage teaches us about the sanctity of marriage and the value of enduring relationships. In a world where commitment can be seen as temporary, Jesus reminds us that love and faithfulness are at the heart of any strong relationship. God calls us to nurture and protect the bonds we share, whether in marriage, family, or friendships.
In the second part of this reading, Jesus welcomes little children, saying, “Let the children come to me, for the kingdom of God belongs to such as these” (Mark 10:14). Here, Jesus reminds us to approach God with the openness and trust of a child. Children represent humility, simplicity, and a pure heart—qualities that we should all strive for in our relationship with God.
As we reflect on this passage, let’s remember the importance of faithfulness in our relationships and the need to trust God with a childlike heart. May we seek to live with love, commitment, and humility, just as Jesus taught.
✍ -Fr. Dennis Tigga (Bhopal Archdiocese)
ईश्वर ने समस्त सृष्टि की रचना की तथा वह उसे अच्छी लगी। किन्तु मनुष्य को देखकर उसने कहा, ’’अकेला रहना मनुष्य के लिए अच्छा नहीं। इसलिए मैं उसके लिए एक उपयुक्त सहयोगी बनाऊँगा।’’ (उत्पत्ति 2:18) इसलिए ईश्वर ने स्त्री की रचना की। इस प्रकार नर और नारी एक साथ जीवन बिताने लगे। ये नर और नारी आदम और हेवा थे। ईश्वर ने आदम को हेवा ’मनोरंजन’ के लिए प्रदान नहीं किया बल्कि एक उपयुक्त साथी के रूप में प्रदान किया था।
इस रिश्ते की अनिवार्यता एवं महत्वता पर संत पौलुस कहते हैं, ’’पुरुष अपने माता-पिता को छोड़ेगा और अपनी पत्नी के साथ रहेगा और वे दोनों एक शरीर हो जायेंगे। यह एक महान रहस्य है।" (ऐफिसियों 5:31-32) फ़िर वे आगे कहते है, ’’फिर भी प्रभु के विधान के अनुसार स्त्री के बिना पुरुष कुछ नहीं है और पुरुष के बिना स्त्री कुछ नहीं। यदि पुरुष से स्त्री की सृष्टि हुई, तो पुरुष का जन्म स्त्री से होता है और सब कुछ का मूलस्त्रोत ईश्वर है।’’ (1 कुरिन्थियों 7:11-12) प्रभु येसु ने सभी आशंकाओं और अनियमिताओं पर पूर्ण विराम लगाते हुये इस रिश्ते पर ईश्वरीय इच्छा को पुनः इंगित कर कहा, ’’किन्तु सृष्टि के प्रारम्भ से ही ईश्वर ने उन्हें नर-नारी बनाया; इस कारण पुरुष अपने माता-पिता को छोडेगा और दोनों एक शरीर हो जायेंगे। इस तरह अब वे दो नहीं, बल्कि एक शरीर है। इसलिए जिसे ईश्वर ने जोडा है, उसे मनुष्य अलग नहीं करे।’’ (मारकुस 10:6-9)
इस प्रकार यह निर्विवादित सत्य है कि पति-पत्नी का रिश्ता ईश्वर द्वारा ठहराया संबंध है। इस संबंध की बुनियाद पर दोनों का जीवन, परिवार तथा समस्त मानवजाति का भविष्य टिका रहता है। प्रवक्ता ग्रन्थ कहता है, ’’मैं तीन बातें पसन्द करता हूँ, वे प्रभु और मनुष्यों को प्रिय हैं भाइयों का मित्रभाव, पड़ोसी का प्रेम और पति-पत्नी का सामंजस्य।’’ (प्रवक्ता 25:1-2) पति-पत्नी को एक-दूसरे को ईश्वर द्वारा प्रदत्त उपहार मानकर अपने गृहस्थ जीवन को जीना चाहिए। यदि वे एक-दूसरे को उपहार मानेगें तो एक-दूसरे का ख्याल भी रखेंगे। इस दृष्टिकोण से वे आपस में प्रेम का तालमेल स्थापित करेंगे जो ईश्वर को प्रिय है। इसके विपरीत यदि वे अपने वैवाहिक साथी को समझौता मानकर इसे झंझट समझेंगे तो वे अपने दाम्पत्य जीवन के बोझ में दब जायेंगे।
दाम्पत्य जीवन में एकता एवं सामंजस्य का रहस्य प्रेम है। संत पौलुस इस प्रेम की व्याखा करते हुये कहते है, ’’प्रेम सहनशील और दयालु है। प्रेम न तो ईर्ष्या करता है, न डींग मारता, न घमण्ड, करता है। प्रेम अशोभनीय व्यवहार नहीं करता। वह अपना स्वार्थ नहीं खोजता। प्रेम न तो झुंझलाता है और न बुराई का लेखा रखता है। वह दूसरों के पाप से नहीं, बल्कि उनके सदाचरण से प्रसन्न होता है। वह सब-कुछ ढाँक देता है, सब-कुछ पर विश्वास करता है, सब-कुछ की आशा करता है और सब-कुछ सह लेता है।...प्रेम का कभी अन्त नहीं होगा... प्रेम ही सब से महान् हैं।’’ (1 कुरि. 13:4-8,13)
इस प्रकार पति-पत्नी को प्रेम के इन गुणों- सहनशीलता, दया, विनम्रता, सद्व्यवहार, विश्वास, आशा आदि को एक-दूसरे के प्रति अपने व्यवहार में ढालना चाहिए। यदि वे एक-दूसरे के बदलने का इंतजार किये बिना स्वयं को की बदलने लगे तो भी उनका साथी उनके भले व्यवहार के कारण बदल जायेगा। ’’क्या जाने, हो सकता है कि पत्नी अपने पति की मुक्ति का कारण बन जाये और पति अपनी पत्नी की मुक्ति का कारण।’’ (1 कुरि. 7:16) इस बात को संत पेत्रुस भी अपने पहले पत्र में लिखते है, ’’पत्नियो! आप अपने पतियों के अधीन रहें। यदि उन में कुछ व्यक्ति अब तक सुसमाचार स्वीकार नहीं करते, तो वे आपका श्रद्धापूर्व तथा पवित्र जीवन देख कर शब्दों के कारण नहीं, बल्कि अपनी पत्नियों के आचरण के कारण विश्वास की ओर आकर्षित हो जायेंगे। (1पेत्रुस 3:1-2)
साधारणः पति-पत्नी अपने जीवन में इस पहलू पर ध्यान नहीं देते हैं कि उनका व्यवहार एक दूसरे को प्रभावित करता है। यदि पत्नी अपने पति के व्यक्तित्व की कमियों के बावजूद भी उसके प्रति सकारात्मकता प्रदर्शित करते हुए उससे अच्छा व्यवहार करे तो अवश्य वह अपने अच्छे व्यवहार से पति का हृदय जीत लेगी। इसके विपरीत जैसा साधारणः देखा जाता है कि दोनों ही एक दूसरे से एक निश्चित व्यवहार की मांग करते हुए रस्साकशी का जीवन जीने के लिए मजबूर हो जाते हैं। ऐसी स्थिति में वे अपने दाम्पत्य जीवन में ईश्वर के उस महान रहस्य को नहीं पहचान पायेंगे जैसा की धर्मग्रंथ हमें बताता है।
पति एंव पत्नी दोनों को विवाह संस्कार को ईश्वर का ठहराया विधान मानकर एक-दूसरे के अभावों का प्रेम एवं एकता के साथ पूरा करना चाहिये तथा अपनी परेशानियों को विवाह के संस्कार के दायरे में ही देखना चाहिये तथा एक दूसरे से छूटकारा पाने का प्रयत्न नहीं करना चाहिये।
✍फादर रोनाल्ड मेलकम वॉनGod created the whole universe and he liked it. But seeing the man, he said, "It is not good for a man to be alone. Therefore, I will make a suitable companion for him." (Genesis 2:18) So God created the woman. Thus, male and female started living together. These men and women were Adam and Eve. God did not provide Eve to Adam for 'entertainment' but as a suitable companion.
On the inevitability and importance of this relationship, Saint Paul says, "The man will leave his parents and live with his wife and they will become one body." This is a great mystery." (Ephesians 5:31-32) Then he goes on to say, "Yet according to the law of the Lord, a man is nothing without a woman, and a woman is nothing without a man. When created, a man is born of a woman, and God is the source of everything." (1 Corinthians 7:11-12)
The Lord Jesus, putting a complete stop to all the apprehensions and irregularities, again pointed out the divine will on this relationship and said, "But from the very beginning of creation God made them male and female; Because of this man will leave his parents and both will become one body. So now they are not two, but one body. Therefore, what God has joined, that man shall not separate.” (Mark 10:6-9)
Thus, it is an indisputable truth that the husband-wife relationship is a God-ordained relationship. On the basis of this relationship rests the life of both, the family and the future of all mankind. The book of Sirach says, "Three things I like are dear to the Lord and men; Friendship of brothers, love of neighbour, and harmony of husband and wife." (Sirach 25:1-2) Husband and wife ought to consider each other as a gift given by God, should live their married life.
If they treat each other as a gift, then they will also take care of each other. From this point of view they will establish the harmony of love which is dear to God. On the contrary, if they consider their matrimonial partner as a compromise and consider it a hassle, then they will be buried in the burden of their married life.
The secret of unity and harmony in married life is love. Saint Paul explains this love by saying, "Love is tolerant and kind. Love is neither jealous, nor bragging, nor proud. Love does not behave indecently. He does not seek his own interest. Love neither annoys nor keeps an account of evil. He is pleased not by the sins of others, but by their good conduct. It envelops everything, believes in everything, hopes for everything and bears everything. ... Love will never end... Love is the greatest of all. '' (1 Cor. 13:4-8,13)
Thus, husband and wife should inculcate these qualities of love – tolerance, kindness, humility, good behaviour, trust, hope, etc. in their behaviour towards each other. Even if they change themselves without waiting for each other to change, their partner will change because of their good behaviour. "Who knows, maybe the wife may become the cause of her husband's salvation and the husband the cause of his wife's salvation." (1 Cor. 7:16) Saint Peter also writes this in his first letter, "Wives! Be subject to your husbands. If some of them do not yet accept the gospel, they will be attracted to the faith not because of the words, but because of the conduct of their wives, seeing your reverent and holy life. (1 Peter 3:1-2)
It is simple that the husband and wife do not pay attention to this aspect in their life that their behaviour affects each other. If the wife behaves well in spite of the shortcomings of her husband's personality by showing positivity towards him, then she will surely win the heart of the husband by her good behaviour. On the contrary, it is seen that both are forced to lead a life of tug of war demanding a certain behaviour from each other.
In such a situation, they will not be able to recognize the great mystery of God in their married life as the scriptures tell us. Both husband and wife should fulfil each other's shortcomings with love and unity, considering the marriage ceremony as the ordained law of God and should see their problems within the scope of marriage ceremony and should not try to get rid of each other.
✍ -Fr. Ronald Melcum Vaughan
हमारा प्रभु ईश्वर एक है, और ईश्वर में तीन जन हैं: पिता, पुत्र और पवित्र आत्मा। यह हमें ईश्वर और उसमें समाहित पवित्र रिश्ते की विशेषता बतलाता हैं। पवित्र त्रित्व का रिश्ता एक पवित्र, गूढ, अटूट और एकता का रिश्ता है। आज के सुसमाचार में भी हम एक ऐसे रिश्ते से रूबरू होते है जो कि एक पवित्र रिश्ता है और इस रिश्ते से परिवार का निर्माण होता है। यह रिश्ता पति और पत्नी के बीच का रिश्ता है जो विवाह के द्वारा एक दूसरे से जुडते है। यह कलीसिया का एक पवित्र संस्कार है।
प्रभु ईश्वर ने सृष्टि-कार्य से अपना रिश्ता सृष्टि से बनाये रखा हैं: सृष्टिकर्ता-सृष्टि का रिश्ता, विशेष रूप से ईश्वर और मनुष्य का रिश्ता। उन्होनें हमें अपना स्वरूप बनाकर एक रिश्ते को एक नयी दिशा देकर एक अमिट रिश्ते को कायम किया हैं। परन्तु मनुष्य ने पाप में गिरकर अपने आप को इस रिश्ते से दूर कर दिया। फिर भी प्रभु ईश्वर ने कभी भी मनुष्य का साथ नहीं छोड़ा और हमेशा किसी न किसी प्रकार से इस रिश्ते को बनाये रखने की कोशिश की। ‘‘मैं तुम्हे अपनी प्रजा मानूँगा और तुम्हारा ईश्वर होऊॅंगा।’’(निर्ग0 6:7; यिर 30:22; 31:1,33; 7:23; उत्पत्ति 17:8, निर्ग0 29:45, एजे0 20:20)
आज के सुसमाचार में हम पति-पत्नि के रिश्ते के बीच में उलझन सम्बद्धित प्रश्न के बारे में सुनते है, जो कि फरीसियों द्वारा ईसा से पूछा गया। यह प्रश्न पति-पत्नी के रिश्ते को सुलझाने हेतु नहीं परंतु प्रभु ईसा की परीक्षा और उन्हे किसी प्रकार से फॅंसाने हेतु पूछा गया। ईसा के साथ यह कोई नयी बात नहीं थी क्योकि अक्सर फरीसी और शास्त्री उन्हें किसी न किसी प्रकार से फॅसाने की कोशिश किया करते थे। इस बार वे पति द्वारा पत्नी को त्यागने के विषय को लेकर ईसा के पास आये थे। जो कि मूसा द्वारा दिया गया था, ‘‘यदि कोई व्यक्ति किसी स्त्री से विवाह करे, बाद में वह उसे इसलिए नापसन्द करे कि वह उस में कोई लज्जाजनक बात पाता हो और उसे त्याग पत्र दे’’ (विधि विवरण 24:1)। प्रभु इसका जवाब देते हुए कहते है ‘‘उन्होनें तुम्हारे हृदय की कठोरता के कारण ही यह आदेश लिखा’’ अर्थात् यह जो नियम या आदेश था ईश्वर द्वारा नहीं अपितु मनुष्य द्वारा प्रेरित था। इस पर प्रभु येसु ईश्वर के नियम या ईश्वर के विचार को प्रकट करते हैं। प्रभु कहते है, ‘‘किन्तु सृष्टि के प्रारम्भ ही से ईश्वर ने उन्हें नर-नारी बनाया; इस कारण पुरुष अपने माता-पिता को छोडे़गा और दोनो एक शरीर हो जायेंगे। इस तरह अब वे दो नहीं, बल्कि एक शरीर हैं। इसलिए जिसे ईश्वर ने जोड़ा है, उसे मनुष्य अलग नहीं करे।’’ ईसा का यह कथन हमें निम्न बातें बताता है।
पहलाः पति-पत्नि का रिश्ता अभी का बनाया हुआ नहीं परन्तु बहुत पहले से बनाया हुआ है, ‘‘सृष्टि के प्रारंभ से ही’’पति-पत्नि के जन्म से भी बहुत पहले। क्योकि ईश्वर जब हमें गढ़ता है, बनाता है तो वह हमारे जन्म से पूर्व ही हमें जानता है और हमारे लिए र्निधारित योजनाए बनाता हमारी हित की योजनाएं, हमारे मंगलमय जीवन की योजनाएं, आशामय भविष्य की महत्वपूर्ण योजनाएं जिनमें से विवाह का रिश्ता भी एक है।
दूसराः एकता का रिश्ता- विवाह के बाद वे दो नहीं अपितु एक हो जाते है जिस प्रकार पवित्र त्रित्व एक है। इसलिए संत पौलुस एफेसियों के नाम अपने पत्र में पतियों से कहते है, ‘‘पति अपनी पत्नी को इस तरह प्यार करे, मानो वह उसका शरीर हो। कोई अपने शरीर से बैर नहीं करता। उल्टे, वह उसका पालन-पोषण करता और उसकी देख-भाल करता रहता है।’’(एफे0 5:28-29) प्रभु ईश्वर ने नारी को नर के अंग से ही बनाया, ‘‘तब प्रभु-ईश्वर ने मनुष्य को गहरी नींद में सुला दिया और जब वह सो गया, तो प्रभु ने उसकी पसली निकाल ली और उसकी जगह को मांस से भर दिया। इसके बाद प्रभु ने मनुष्य से निकाली हुई पसली से एक स्त्री को गढ़ा और उसे मनुष्य के पास ले गया’’ (उत्पत्ति 2:21,22)
तीसराः ईश्वर की इच्छा- ईश्वर और मनुष्य के विचार में बहुत फर्क है ‘‘प्रभु यह कहता है-तुम लोगों के विचार मेरे विचार नहीं हैं और मेरे मार्ग तुम लोगों के मार्ग नहीं हैं। जिस तरह आकाश पृथ्वी से ऊॅंचा है, उसी तरह मेरे मार्ग तुम्हारे मार्गों से और मेरे विचार तुम्हारे विचारों से ऊॅंचे हैं।’’ यह रिश्ता किसी मनुष्य द्वारा नहीं परंतु ईश्वर द्वारा बनाया हुआ है, ‘‘जिसे ईश्वर ने जोड़ा है, उसे मनुष्य अलग नहीं करे।’’ जिस रिश्ते को ईश्वर ने जोड़ा है, र्निधारित किया है उसे मनुष्य केवल अपने स्वार्थ के लिए या अपनी जिम्मेदारी से बचने के लिए या किसी भी स्वार्थी मतलब से अलग नहीं करे।
संत मत्ती का सुसमाचार इस विषय को स्पष्ट रूप से प्रस्तुत करता है। ’’मैं तुम लोगों से कहता हूँ कि व्यभिचार के सिवा किसी अन्य कारण से जो अपनी पत्नी का परित्याग करता और किसी दूसरी स्त्री से विवाह करता है, वह भी व्यभिचार करता है।’’ (मत्ती 19:9) आज कल का ज़माना बहुत ही अलग है आजकल परित्याग या डिवोर्स आम बात होती जा रही हैं। हर छोटी से छोटी बात पर परिवार टूटते जा रहें है, पति-पत्नी में झगड़े, विवाद बढ़कर डिवोर्स का रूप ले रही है। आज कल डिवोर्स के कई कारण हो सकते हैः बीमारी, गरीबी, दहेज, शराब, ससुराल की कड़वाहट आदि परन्तु संत मत्ती का वचन स्पष्ट रूप से बताता है कि व्यभिचार के सिवा किसी अन्य कारण से जो अपनी पत्नी का परित्याग करता और किसी दूसरी स्त्री से विवाह करता है, वह भी व्यभिचार करता है। पति और पत्नी के बीच झगड़ा, टकरार, परेशानी, मुसीबत, सुख-दुःख तो आम बात है परंतु इनको लेकर परित्याग करना अर्थात् ईश्वर के समक्ष की गई प्रतीज्ञा का निरादर हैं। विवाह के समय पति-पत्नी ईश्वर के समक्ष यह वादा करते हैं कि -चाहे सुख हो या दुःख हर परिस्थ्तिति में मैं आपका या आपकी पति या पत्नी बना रहूँगा/रहूँगी। विवाह का रिश्ता एक पवित्रता भरा रिश्ता है जो तोड़ने के लिए नही परंतु निभाने के लिए बना हुआ है। जिस प्रकार मसीह और कलीसिया का रिश्ता है उसी प्रकार पतिपती और पत्नी का भी रिश्ता होना चाहिए। एक दूसरे के प्रति प्रेम और सर्मपण (एफे0 5:21-33)। यह रिश्ता दुख, या समस्या देखकर भागने का नहीं परन्तु अपने जीवन, प्रार्थना एवं श्रद्धापूर्वक जीवन द्वारा विपरीत परिस्थिती को अनुकुल स्थ्तिी बनाने की है। संत जोसफ, संत मोनिका, संत रीता, संत थोमस मोर, बालक येसु की संत तेरेसा के माता-पिता, संत लूईस और ज़ेली मार्टिन इसके ज्वलंत उदाहरण है। और यह सब उनके त्यागपूर्ण, पवित्रता एवं संघर्षपूर्ण जीवन की कहानी है। ‘‘पत्नियों! आप अपने पतियों के अधीन रहें। यदि उन में कुछ व्यक्ति अब तक सुसमाचार स्वीकार नहीं करते, तो वे आपका श्रद्धापूर्ण तथा पवित्र जीवन देख कर शब्दों के कारण नहीं, बल्कि अपनी पत्नियों के आचरण के कारण विश्वास की ओर आकर्षित हो जायेंगे।’’(1 पेत्रुस 3:1-2)।
आज का सुसमाचार हमें अलग होने का नही अपितु एक रहकर ईश्वरीय रिश्ते को अनुभव करने का निमंत्रण है।
✍फ़ादर डॆनिस तिग्गा