अक्टूबर 03, 2024, गुरुवार

वर्ष का छब्बीसवाँ सामान्य सप्ताह

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📒 पहला पाठ : योब का ग्रन्थ 19:21-27

21) मेरे मित्रों! मुझ पर दया करो! दया करो! क्योंकि प्रभु के हाथ ने मेरा स्पर्श किया है।

22) तुम ईश्वर की तरह मुझे क्यों सताते हो? तुम मुझे क्यों निगलना चाहते हो?

23 (23-24) ओह! कौन मेरे ये शब्द लिखेगा? कौन इन्हें लोहे की छेनी और शीशे से किसी स्मारक पर अंकित करेगा? इन्हें सदा के लिए चट्टान पर उत्कीर्ण करेगा?

25) मैं यह जानता हूँ कि मेरा रक्षक जीवित हैं और वह अंत में पृथ्वी पर खड़ा हो जायेगा।

26) जब मैं जागूँगा, मैं खड़ा हो जाऊँगा, तब मैं इसी शरीर में ईश्वर के दर्शन करूँगा।

27) मैं स्वयं उसके दर्शन करूँगा, मेरी ही आँखे उसे देखेंगी। मेरा हृदय उसके दर्शनों के लिए तरसता है।

📒 सुसमाचार : सन्त लूकस 10:01-12

1) इसके बाद प्रभु ने अन्य बहत्तर शिष्य नियुक्त किये और जिस-जिस नगर और गाँव में वे स्वयं जाने वाले थे, वहाँ दो-दो करके उन्हें अपने आगे भेजा।

2) उन्होंने उन से कहा, ’’फ़सल तो बहुत है, परन्तु मज़दूर थोड़े हैं; इसलिए फ़सल के स्वामी से विनती करो कि वह अपनी फ़सल काटने के लिए मज़दूरों को भेजे।

3) जाओ, मैं तुम्हें भेडि़यों के बीच भेड़ों की तरह भेजता हूँ।

4) तुम न थैली, न झोली और न जूते ले जाओ और रास्तें में किसी को नमस्कार मत करो।

5) जिस घर में प्रवेश करते हो, सब से पहले यह कहो, ’इस घर को शान्ति!’

6) यदि वहाँ कोई शान्ति के योग्य होगा, तो उस पर तुम्हारी शान्ति ठहरेगी, नहीं तो वह तुम्हारे पास लौट आयेगी।

7) उसी घर में ठहरे रहो और उनके पास जो हो, वही खाओ-पियो; क्योंकि मज़दूर को मज़दूरी का अधिकार है। घर पर घर बदलते न रहो।

8) जिस नगर में प्रवेश करते हो और लोग तुम्हारा स्वागत करते हैं, तो जो कुछ तुम्हें परोसा जाये, वही खा लो।

9) वहाँ के रोगियों को चंगा करो और उन से कहो, ’ईश्वर का राज्य तुम्हारे निकट आ गया है’।

10) परन्तु यदि किसी नगर में प्रवेश करते हो और लोग तुम्हारा स्वागत नहीं करते, तो वहाँ के बाज़ारों में जा कर कहो,

11 ’अपने पैरों में लगी तुम्हारे नगर की धूल तक हम तुम्हारे सामने झाड़ देते हैं। तब भी यह जान लो कि ईश्वर का राज्य आ गया है।’

12) मैं तुम से यह कहता हूँ- न्याय के दिन उस नगर की दशा की अपेक्षा सोदोम की दशा कहीं अधिक सहनीय होगी।

📚 मनन-चिंतन

आज का सुसमाचार में हम देखते हैं कि येसु अपने बहत्तर शिष्यों को भेजते हैं। वह उन्हें जोड़ियों में भेजते हैं, जिससे यह समझ में आता है कि सुसमाचार फैलाने में एक-दूसरे का समर्थन और प्रोत्साहन कितना महत्वपूर्ण है।

येसु शिष्यों को बताते हैं कि उनकी यात्रा कम चीजों के साथ होना चाहिए, बिना अतिरिक्त सामान के। यह हमें यह सिखाता है कि हमें ईश्वर के प्रावधान पर भरोसा करना चाहिए और जो महत्वपूर्ण है उन चीजों पर अर्थात् ‘अपने प्रेम और शाांति को फैलाने’ पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। भौतिक चीजों में उलझना आसान है, लेकिन येसु हमें याद दिलाते हैं कि सच्ची संतुष्टी हमारे ईश्वर के साथ संबंध और दूसरों की सेवा में है।

जब वे नगरों में प्रवेश करे, तो शिष्यों को शांति का संदेश देना है। यह आज के लिए एक शक्तिशाली संदेश है। एक संघर्ष और चिंता से भरे दुनिया में, हमें शांति के संदेशवाहक बनने के लिए बुलाया गया है। अगर हमें अस्वीकृति का सामना करना पड़े, जैसा कि येसु बताते हैं, तो हमें अपने प्रयासों को जारी रखना चाहिए, आशा और प्रेम का संदेश फैलाना चाहिए तथा ईश्वर के मिशन पर ध्यान केंद्रित रखना चाहिए।

अंत में, येसु शिष्यों को आश्वस्त करते हैं कि ईश्वर का राज्य निकट है। यह हमें आश्वस्त करता है कि ईश्वर हमेशा हमारे साथ हैं, हमारे माध्यम से काम कर रहे हैं। जैसे हम अपने दैनिक जीवन में आगे बढ़ते हैं, आइए हम शांति का संदेश और ईश्वर के मार्गदर्शन पर भरोसा लेकर चलें। आइए हम अपने मिशन में साहसी बनें और जिस किसी से भी मिले उनसेे प्रेम को साझा करने में खुशिया महसूस करें। आमेन

फादर डेनिस तिग्गा (भोपाल महाधर्मप्रान्त)

📚 REFLECTION


In today’s Gospel reading from Luke 10:1-12, we see Jesus sending out seventy-two disciples to share His message. He instructs them to go in pairs, emphasizing the importance of teamwork in spreading the good news. This is a reminder that we are not alone in our mission; we have each other for support and encouragement.

Jesus tells the disciples to travel lightly, without extra belongings. This teaches us to trust in God’s provision and to focus on what really matters—spreading His love and peace. It’s easy to get caught up in material things, but Jesus reminds us that true fulfillment comes from our relationship with God and serving others.

As they enter towns, the disciples are to offer peace. This is a powerful message for us today. In a world filled with conflict and anxiety, we are called to be messengers of peace. Even when we face rejection, as Jesus warns might happen, we are to continue sharing His message of hope and love and to keep our focus on God’s mission.

Finally, Jesus assures the disciples that the kingdom of God is near. This is a comforting reminder that God is always present, working in and through us. As we go about our daily lives, let’s carry this message of peace and trust in God’s guidance. May we be courageous in our mission and joyful in sharing the love of Christ with everyone we meet.

-Fr. Dennis Tigga (Bhopal Archdiocese)