10) “येरूसालेम के साथ आनन्द मनाओ। तुम, जो येरूसालेम को प्यार करते हो, उसके कारण उल्लास के गीत गाओ। तुम, जो उसके लिए विलाप करते थे, उसके कारण आनन्दित हो जाओ,
11) जिससे तुम उसकी संतान होने के नाते सान्त्वना का दूध पीते हुए तृप्त हो जाओ और उसकी गोद में बैठ कर उसकी महिमा पर गौरव करो“;
12) क्योंकि प्रभु यह कहता है, “मैं शान्ति को नदी की तरह और राष्ट्रों की महिमा को बाढ़ की तरह येरूसालेम की ओर बहा दूँगा। उसकी सन्तान को गोद में उठाया और घुटनों पर दुलारा जायेगा।
13) जिस तरह माँ अपने पुत्र को दिलासा देती है, उसी तरह मैं तुम्हें सान्त्वना दूँगा। तुम्हें येरूसालेम से दिलासा मिलेगा।“
14) तुम्हारा हृदय यह देख कर आनन्दित हो उठेगा, तुम्हारा हड्डियाँ हरी-भरी घास की तरह लहलहा उठेंगी। प्रभु अपने सेवकों के लिए अपना सामर्थ्य, किंतु अपने शत्रुओं पर अपना क्रोध प्रदर्शित करेगा।
1) उस समय शिष्य ईसा के पास आ कर बोले, "स्वर्ग के राज्य में सबसे बड़ा कौन है?"
2) ईसा ने एक बालक को बुलाया और उसे उनके बीच खड़ा कर
3) कहा, ’’मैं तुम लोगों से यह कहता हूँ- यदि तुम फिर छोटे बालकों-जैसे नहीं बन जाओगे, तो स्वर्ग के राज्य में प्रवेश नहीं करोगे।
4) इसलिए जो अपने को इस बालक-जैसा छोटा समझता है, वह स्वर्ग के राज्य में सबसे बड़ा है।
आज कैथलिक कलीसिया बालक येसुु की संत तेरेसा का पर्व मना रही है। जैसा कि येसु ने मत्ती 18ः1-4 में अपने शिश्यों से कहा कि स्वर्ग के राज्य में सबसे महान वे हैं जो छोटे बच्चों की तरह बन जाते हैं - विनम्र, भरोसेमंद और ईश्वर पर निर्भर। यह शिक्षा बालक येसुु की संत तेरेसा की आध्यात्मिकता को खूबसूरती से प्रतिबिंबित करती है, जिसका ‘‘छोटा रास्ता’’ बच्चों जैसी सादगी और ईश्वर के प्रेम में पूर्ण विश्वास में निहित है।
संत तेरेसा ने महानता को बड़े कामों या सार्वजनिक पहचान के माध्यम से पाने की कोशिश नहीं की। इसके बजाय, उन्होंने विनम्रता का मार्ग अपनाया, अपनी रोजमर्रा की चुनौतियों और छोटे-छोटे प्रेम भरे कार्यों को ईश्वर के करीब आने का तरीका बनाया। उनका ‘‘छोटा मार्गश् यह मानने में था कि वे कमजोर और छोटी हैं, फिर भी वे ईश्वर की दया और कृपा में पूरी तरह विश्वास करती थीं।
संत तेरेसा का पर्व हमें अहंकार, महत्त्वाकांक्षा और आत्मनिर्भरता को छोड़कर एक बच्चे की तरह विनम्रता और विश्वास अपनाने के लिए बुलाता है। संत तेरेसा की तरह, हमें पवित्रता को असाधारण कार्यों में नहीं, बल्कि जीवन के छोटे-छोटे और सामान्य क्षणों में खोजना है, जो प्रेम से भरे होते हैं। यह बच्चो जैसी विनम्रता का मार्ग स्वर्ग के राज्य की ओर ले जाता है, जहाँ सबसे छोटे ही वास्तव में सबसे बड़े होते हैं।
✍फादर डेनिस तिग्गा (भोपाल महाधर्मप्रान्त)
Today the Catholic Church is celebrating the feast of St. Theresa of Child Jesus. As Jesus tells His disciple in Mt. 18:1-4 that the greatest in the kingdom of heaven are those who become like little children—humble, trusting, and dependent on God. This teaching beautifully mirrors the spirituality of St. Theresa of the Child Jesus, whose “little way” is rooted in childlike simplicity and total trust in God’s love.
St. Theresa did not seek greatness through grand achievements or public recognition; instead, she embraced the path of humility, offering her everyday struggles and small acts of love as a way to grow closer to God. Her “little way” was about recognizing her own weakness and littleness, yet trusting completely in God’s mercy and grace.
The feast of St. Theresa, in light of this Gospel, calls us to let go of pride, ambition, and self-reliance, and to embrace the humility and trust of a child. Like St. Theresa, we are invited to find holiness not in extraordinary deeds but in the small, ordinary moments of life, lived with great love. This path of childlike humility opens the way to the kingdom of heaven, where the “least” are truly the greatest.
✍ -Fr. Dennis Tigga (Bhopal Archdiocese)
जब से कोविद 19 आया है तब से हमारे जीवन में कई बड़े बदलाव आये हैं। उन बदलावों में से एक मुख्य बदलाव है ‘वर्क फ़्राम होम’ का आगमन। इसके अनुसार आपको अपने कार्यस्थल पर जाकर काम करने की ज़रूरत नहीं है; आप घर से ही अपना काम कर सकते हैं। बहुत लोगों के लिए यह कॉन्सेप्ट नया हो, लेकिन हम ख्रिस्तियों के लिए यह नया नहीं होना चाहिए क्योंकि बालक येसु की संत तेरेसा ने यह क़रीब सवा सौ साल पहले ही सफलतापूर्वक कर दिखाया था। बालक येसु की सन्त तेरेसा सभी मिशनों की संरक्षिका सन्त हैं। वह भले ही दूर-दूर तक मिशन कार्य के लिए नहीं गयीं लेकिन फिर भी उन्होंने कॉन्वेंट की चारदीवारी के अन्दर रहकर भी प्रभु के मिशन में अपूर्व योगदान दिया है।
सन्त तेरेसा अपने स्वास्थ्य के कारण दूर-दूर के मिशन कार्य के लिए नहीं जा पाईं, लेकिन उन्होंने अपनी बीमारी, अपने दुःख-दर्द को प्रभु को समर्पित किया और मिशन के लिए निरन्तर प्रार्थना करती रहीं। उन्होंने अपनी प्रार्थनाओं के द्वारा ही अपना मिशन कार्य जारी रखा। चारदीवारी के अन्दर उनके प्रार्थनामय मिशन को जारी रखने के लिए उनकी शक्ति और प्रेरणा का स्रोत उनकी विनम्रता ही थी। प्रभु ने ख़ुद कहा है, “धन्य हैं वे जो विनम्र हैं, क्योंकि उन्हें प्रतिज्ञात देश प्राप्त होगा।” दूसरे शब्दों में कहें तो हम विनम्रता के द्वारा न केवल संसार पर विजय पा सकते हैं बल्कि, स्वर्गराज्य के अधिकारी भी होंगे। बालक येसु की सन्त तेरेसा हमारे लिए प्रार्थना करती रहें। आमेन।
✍ - फ़ादर जॉन्सन बी. मरिया (ग्वालियर धर्मप्रान्त)
Covid 19 has brought so many changes in our lives. One among those changes is the popularity of the concept of ‘work from home.’ According to this concept, we need to go the place of work, rather we can work from wherever we are, even from home. This concept may be new thing for many but, for us, christians this is not new because almost before one century, St. Teresa of Child Jesus did work from home. She is known as the patroness of all the missions. Even though she never went for missions to far and wide places still she contributed a lot from within the convent walls.
St. Teresa could not travel to far mission places due to her ill health and sickness, yet she consecrated her pain and suffering to her Saviour Jesus and constantly prayed for missions. She continued her mission work through her prayers. The source and strength for her prayerful mission within the four walls, was her humility. Jesus has assured us, “blessed are the meek for they shall inherit the earth.” In other words, through humility we can, not only win over the world but also inherit the kingdom of God. May St. Teresa of Child Jesus continue to intercede for us.
✍ -Fr. Johnson B. Maria (Gwalior Diocese)
शिष्य अक्सर महानता के प्रश्न के बारे में चिंतित रहते थे। ऐसा लगता है कि वे यह प्रश्न यह सोचकर पूछते हैं कि येसु ने उनमें से एक को पहले ही सबसे महान के रूप में चुन लिया है, या मानो वे चाहते हैं कि येसु ये निर्णय लें। वे आपस में बहस करते थे कि कौन सबसे बड़ा है। शिष्य जानना चाहते थे कि येसु के प्रशासन में सर्वोच्च पद कौन धारण करेगा। उन्होंने सम्मान तथा पद के सांसारिक साम्राज्य का सपना देखा।
येसु ने उनसे कहा कि जब तक तुम छोटे बच्चे जैसे नहीं बन जाते, तब तक तुम राज्य में प्रवेश नहीं करोगे। यह शायद शिष्यों के लिए एक बड़ी निराशा की बात थी। बच्चों का समाज में कोई स्थान नहीं था। उन्हें जिम्मेदारी और संपत्ति के रूप में अधिक माना जाता था। येसु ने कहा कि हमें राज्य में प्रवेश करने के लिए इस प्रकार की विनम्रता की जगह लेनी होगी, राज्य में महानतम की बात को तो छोड़ ही दें।
बच्चे धमकाते नहीं हैं; लोग अँधेरे में भी उनसे मिलने से नहीं डरते। येसु एक ऐसे व्यक्ति थे जिनसे लोग मिलने से नहीं डरते थे। उनकी उपस्थिति खतरनाक नहीं थी। बच्चे वास्तव में धोखा भी नहीं देते। येसु भी कभी धोखा धडी की बात नहीं करते थे। येसु चाहते है कि हमारा स्वाभाव भी ऐसा बने।
येसु एक गैर-भ्रामक व्यक्ति थे। बच्चों की तरह, येसु नम्रता के एक आदर्श उदाहरण थे और सामाजिक स्थिति के बारे में बेफिक्र थे। बच्चे विनम्र होने की कोशिश नहीं करते हैं क्योंकि वे ऐसे होते ही हैं। चार्ल्स स्पर्जन इसे खूबसूरती से कहते हैं, "विनम्रता की नकल बीमार करती है; किन्तु वास्तविकता आकर्षक है।"
एक व्यक्ति जो वास्तव में राज्य में सबसे महान था वह येसु मसीह है। इसका अर्थ है कि येसु स्वयं एक छोटे बच्चे की तरह विनम्र थे। उन्हें अपनी हैसियत की चिंता नहीं थी। उन्हें ध्यान का केंद्र नहीं बनना था। वे धोखेबाज नहीं थे और उसके पास जाने से डर नहीं लगता था।
इसलिए, जब येसु ने उन्हें बच्चों की तरह बनने के लिए कहा, तो वह वास्तव में उन्हें अपने जैसा बनने के लिए कह रहे थे।
✍फादर रोनाल्ड मेलकम वॉनThe disciples were often concerned about the question of greatness. They seem to ask this question thinking that Jesus has already chosen one of them as greatest, or as if they wanted Jesus to decide among them. They used to argue among themselves about which one was the greatest. The disciples wanted to know who would hold the highest position in the administration Jesus would soon establish. They dreamt of honours and offices, a worldly empire, the kingdoms of the earth.
Jesus told them that unless they become as little children you would not enter the kingdom. This was probably a great disappointment to the disciples. Children were no one in the society. They were regarded more as responsibility and property than individuals. Jesus said we have to take this kind of humble place to enter the kingdom, leave alone the greatest in the kingdom.
Children are not threatening; people are not afraid of meeting them even in the dark. Jesus was someone people were not afraid to meet. His presence was non-threatening. Children really do not deceive.
Jesus was such a non-deceptive person. Like children Jesus was an ideal example of humility and was unconcerned for social status. Children do not try to be humble but they are so. Charles Spurgeon beautifully puts it, “The imitation of humility is sickening; the reality is attractive.”
The one Man who was actually the greatest in the kingdom is Jesus Christ. This means that Jesus Himself was humble like a little child. He was not concerned about his own status. He did not have to be the center of attention. He was not deceptive and He didn’t have an intimidating presence.
So, when Jesus tells them to became like children, he was in fact telling them to be like him.
✍ -Fr. Ronald Melcum Vaughan
प्रभु येसु अपने वचनों से प्रमाणित करते हैं कि स्वर्गराज्य के मापदंड और इस दुनिया के मापदंड में ज़मीन-आसमान का फ़रक है। जो इस दुनिया के सामने बड़े होते हैं, वे स्वर्गराज्य में बडे नहीं होते हैं। आशीर्वचनों (मत्ती 5:1-8) तथा अमीर और लाज़रूस के दृष्टान्त (लूकस 16:19-31) में यह बात हमारे सामने आती है। इसी बात को आगे बढ़ाते हुए प्रभु एक बालक को शिष्यों के बीच खड़ा कर कहते हैं, “मैं तुम लोगों से यह कहता हूँ- यदि तुम फिर छोटे बालकों-जैसे नहीं बन जाओगे, तो स्वर्ग के राज्य में प्रवेश नहीं करोगे। इसलिए जो अपने को इस बालक-जैसा छोटा समझता है, वह स्वर्ग के राज्य में सबसे बड़ा है।” बच्चे मासूम होते हैं। वे बड़ी जिज्ञासा रखते हैं। वे सब कुछ जानना चाहते हैं। वे सभी प्रकार के ज्ञान के लिए अपने हृदय तथा अपने मन-मस्तिष्क को खुले रखते हैं। वे अपने विरुध्द किये गये अपराधों को जल्दी ही भूल जाते हैं। ये सब गुण आध्यात्मिकता में आगे बढ़ने के लिए विश्वासियों की सहायता करते हैं।
✍ -फादर फ्रांसिस स्करिया
Jesus testifies with his words that the yardsticks of the Kingdom of God and the yardsticks of the world are entirely different. Those who are great in the eyes of the world are small in the Kingdom of God and vice versa. In the beatitudes (cf. Mt 5:1-8) and in the parable of the rich man and Lazarus (Lk 16:19-31) this matter becomes clear to us. Taking this teaching further, Jesus makes a child stand in the midst of the disciples and tells them, “unless you change and become like little children you will never enter the kingdom of Heaven. And so, the one who makes himself as little as this little child is the greatest in the kingdom of Heaven.” Children are innocent. They are eager to know and learn. They keep their heart and the mind open to all types of knowledge. They easily forget the offences committed against them. All these qualities are indubitably helpful to the disciples of Christ.
✍ -Fr. Francis Scaria