1) हमारे पिता ईश्वर और प्रभु ईसा मसीह पर आधारित थेसलनीकियों की कलीसिया के नाम पौलुस, सिल्वानुस और तिमथी का पत्र।
2) पिता ईश्वर और प्रभु ईसा मसीह आप लोगों को अनुग्रह तथा शान्ति प्रदान करें!
3) भाइयो! आप लोगों के विषय में ईश्वर को निरन्तर धन्यवाद देना हमारा कर्तव्य है; क्योंकि आपका विश्वास बहुत अच्छी तरह फल-फूल रहा है और आप सब में प्रत्येक का दूसरों के प्रति प्रेम बढ़ रहा है।
4) इसलिए हम ईश्वर की कलीसियाओं में आप लोगों पर गौरव करते हैं, क्योंकि आप धैर्य और विश्वास के साथ हर प्रकार का अत्याचार और कष्ट सहन करते हैं।
5) इसके द्वारा ईश्वर का वह निर्णय न्यायोचित सिद्ध हो जाता है, जो आप को ईश्वर के राज्य के योग्य समझेगा, जिसके लिए आप अब दुःख भोगते हैं।
11) हम निरन्तर आप लोगों के लिए यह प्रार्थना करते हैं कि ईश्वर आप को अपने बुलावे के योग्य बनाये और आपकी प्रत्येक सदिच्छा तथा विश्वास से किया हुआ आपका प्रत्येक कार्य अपने सामर्थ्य से पूर्णता तक पहुँचा दे।
12) इस प्रकार हमारे ईश्वर की और प्रभु ईसा मसीह की कृपा के द्वारा हमारे प्रभु ईसा मसीह का नाम आप में गौरवान्वित होगा और आप लोग भी उन में गौरवान्वित होंगे।
13) ’’ढोंगी शास्त्रियों और फरीसियों! धिक्कार तुम लोगों को! तुम मनुष्यों के लिए स्वर्ग का राज्य बन्द कर देते हो।
14) तुम स्वय प्रवेश नहीं करते और जो प्रवेश करना चाहते हैं, उन्हें रोक देते हो।
15) ’’ढोंगी शास्त्रियों और फरीसियों! धिक्कार तुम लोगों को! एक चेला बनाने के लिए तुम जल और थल लाँघ जाते हो और जब वह चेला बन जाता है, तो उसे अपने से दुगुना नारकी बना देते हो।
16) ’’अन्धे नेताओं! धिक्कार तुम लोगों को! तुम कहते हो- यदि कोई मन्दिर की शपथ खाता है, तो इसका कोई महत्व नही; परन्तु यदि कोई मन्दिर के सोने की शपथ खाता है, तो वह बँध जाता है।
17) मूर्खों और अन्धों! कौन बडा है- सोना अथवा मन्दिर, जिस से वह सोना पवित्र हो जाता है?
18) तुम यह भी कहते हो- यदि कोई वेदी की शपथ खाता है, तो इसका कोई महत्व नही; परन्तु यदि कोई वेदी पर रखे हुए दान की शपथ खाता है, तो वह बँध जाता है?
19) अन्धा ! कौन बडा है- दान अथवा वेदी, जिस से वह दान पवित्र हो जाता है?
20) इसलिय जो वेदी की शपथ खाता है, वह उसकी और उस पर रखी हुई चीजों की शपथ खाता है।
21) जो मन्दिर की शपथ खता है, वह उसकी और उस में निवास करने वाले की शपथ खाता है।
22) और जो स्वर्ग की शपथ खाता है, वह ईश्वर के सिंहासन और उस पर बैठने वाले की शपत खाता है।
जीवन का सफर सही राह पर चले तो जीवन सफल हो जाता है। जीवन का सफर अगर सही राह पर न हो, तो जीवन नरक बन जाता है। सुसमाचार में प्रभु येसु शास्त्रियों और फरीसियों को “रे ढोंगियों” कहकर संबोधित करते हैं। इसके कई मुख्य कारण हैं। शास्त्री और फरीसी दूसरों को दिखाने के लिए अपने चेहरों को मलिन कर उपवास किया करते थे। वे दिखावा के लिए लंबी-लंबी प्रार्थना किया करते थे। वे दूसरों को नीचा दिखाते हुए ईश्वर के सामने अपनी बढ़ाई किया करते थे। वे विधवाओं व बेसहारों की संपत्ति चट कर जाया करते थे। सुसमाचार के अनुसार वे एक शिष्य बनाने के लिए जल और थल लांघ जाया करते थे। जब वह शिष्य बन जाता तो वे उसे अपने से भी ज्यादा नरक का भागी बना दिया करते थे। क्या अंधा किसी को रास्ता दिखा सकता है? क्या कोई गूंगा किसी को परामर्श दे सकता है? अगर नहीं, तो चुप रहना अधिक उचित होगा। क्या हम भी शास्त्री और फरीसी की तरह हैं, जो दूसरों के जीवन में बाधा बनते हैं? यदि हम उनके जैसे हैं तो हमें अपनी राहों और शिक्षाओं को बदलने की अति आवश्यकता है। हमें सच्चे शिक्षक येसु की शिक्षाओं पर चलना है। प्रभु येसु कहते हैं, “मार्ग सत्य और जीवन मैं हूँ”। हमें प्रभु येसु को अपने जीवन का सच चारा ही बनाना है जो हममें से हरेक के जीवन को सफल बना देता है। प्रभु येसु हमें स्वर्ग में ले जाने की शिक्षा देता है।
✍ - ब्रदर कपिल देव (ग्वालियर धर्मप्रान्त)
If the journey of life goes on the right path, life becomes successful. If the traveller is not on the right path in the journey of life, life becomes hell. In the gospel, Lord Jesus addresses the scribes and Pharisees as “you hypocrites”. There are several main reasons for this. The scribes and Pharisees used to fast by smearing their faces to show others. They used to say long prayers just to show off. They used to glorify themselves before God while belittling others. They used to steal the property of widows and destitutes. According to the Gospel, the scribes and Pharisees travelled across land and sea to make a disciple. When he became a disciple, they used to make him more liable to hell than themselves. Can a blind person show the way? Can a dumb person give advice? If not, it would be best to remain silent. Are we also like the scribes and Pharisees, who become obstacles in the lives of others? If we are like them then we desperately need to change our ways and teachings. We have to follow the true teacher and his teachings. Lord Jesus says I am the way, the truth and the life. We have to make Lord Jesus the true fodder of our life which makes the life of each one of us successful. Lord Jesus teaches us to go to heaven.
✍ -Bro. Kapil Dev (Gwalior Diocese)
ये धिक्कार मत्ती लिखित सुसमाचार के ५:३-११ के आठ आशीर्वचन के विपरीत हैं। येसु के कठोर शब्द ईश्वरीय चेतावनी और निंदा थी। येसु के कठोर शब्द भ्रष्ट नेताओं के लालच और भौतिक लाभ के लिए धर्म के दुरुपयोग पर निर्देशित है। येसु उनके अधिकार और शक्ति के दैनिक दुरुपयोग पर सवाल उठाते हैं जहाँ सेवा के पदों को व्यक्तिगत लाभ के साधन में बदल दिया जाता है। विशेष रूप से धार्मिक अभ्यास को अंधविश्वास में विकृत करना ईश्वर के लिए घृणाजनक है। आंतरिक अंधापन केवल भ्रष्टाचार, निंदा और दु:ख की ओर ले जाता है। आज हमारी चुनौती है की एक अच्छे व्यक्ति बनकर, अपने विश्वास को व्यवहार में लाना और लोगों को विश्वास में लाने की वजह बनाना। पहला पाठ के निर्दिष्ट मनोभाव में, आइए हम पौलुस, सिल्वानुस और तिमथी के साथ जुड कर विश्वास के जीवन और हमारे विश्वासियों के प्यार के लिए ईश्वर को धन्यवाद दें और उन्हें आशीर्वचन में वर्णित गुणों को जीने के लिए प्रोत्साहित करें।
✍ - फादर संजय कुजूर एस.वी.डी.
These woes stand in contrast to the eight beatitudes of Matthew 5:3-11. Jesus spoke harshly yet this was not the language of personal irritation but of divine warning and condemnation. Jesus’ attack is directed at the leaders’ greed and their corruption of religion for material gain. Jesus questions their daily abuse of authority and power where positions of service are turned into instruments of personal gain. Particularly offensive to the Lord was the twisting of religious practice into something that resembles superstition. Interior blindness only leads to corruption, cynicism, and unhappiness. Our challenge today is to be the person, putting our faith into practice, giving people a reason to believe. In the spirit of the first reading let us join with Paul, Silvanus and Timothy in thanking God for the life of faith and labor of love of our faithful and encourage them to lead the virtues described in the beatitudes.
✍ -Fr. Snjay Kujur SVD