1) योशुआ ने सिखेम में सब इस्राएली वंशों को इकट्टा कर लिया। इसके बाद उसने इस्राएल के वयोवृद्ध नेताओ, न्यायकर्ताओं और शास्त्रियों को बुला भेजा और वे सब ईश्वर के सामने उपस्थित हो गये।
2) तब योशुआ ने समस्त लोगों से कहा, इस्राएल का प्रभु ईश्वर यह कहता है प्राचीन काल में तुम लोगों के पूर्वज, इब्राहीम और नाहोर का पिता तेरह, फरात नदी के उस पार निवास करते थे।
15) यदि तुम ईश्वर की उपासना नहीं करना चाहते, तो आज ही यह कर लो कि तुम किसकी उपासना करना चाहते हो- उन देवताओं की, जिनकी उपासना तुम्हारे पूर्वज नदी के उस पार करते थे अथवा अमोरियों के देवताओं की, जिनके देश में तुम रहते हो। मैं और मेरा परिवार, हम सब प्रभु की उपासना करना चाहते हैं।
16) लोगों ने उत्तर दिया, ’’प्रभु के छोड़ कर अन्य देवताओं की उपासना करने का विचार हम से कोसों दूर है।
17) हमारे प्रभु-ईश्वर ने हमें और हमारे पूर्वजों को दासता के घर से, मिस्र देश से निकाल लिया है। उसी ने हमारे सामने महान् चमत्कार दिखाये हैं। हम बहुत लम्बा रास्ता तय कर चुके हैं, बहुत से राष्ट्रों से हो कर यहाँ तक आये हैं और सर्वत्र उसी ने हमारी रक्षा की है।
18) हम भी प्रभु की उपासना करना चाहते हैं, क्योंकि वही हमारा ईश्वर है।
21) हम मसीह के प्रति श्रद्धा रखने के कारण एक दूसरे के अधीन रहें।
22) पत्नी प्रभु जैसे अपने पति के अधनी रहे।
23) पति उसी तरह पत्नी का शीर्ष है, जिस तरह मसीह कलीसिया के शीर्ष हैं और उसके शरीर के मुक्तिदाता।
24) जिस तरह कलीसिया मसीह के अधीन रहती है, उसी तरह पत्नी को भी सब बातों में अपने पति के अधीन रहना चाहिए।
25) पतियो! अपनी पत्नी को उसी तरह प्यार करो, जिस तरह मसीह ने कलीसिया को प्यार किया। उन्होंने उसके लिए अपने को अर्पित किया,
26) जिससे वह उसे पवित्र कर सकें और वचन तथा जल के स्नान द्वारा शुद्ध कर सकें;
27) क्योंकि वह एक ऐसी कलीसिया अपने सामने उपस्थित करना चाहते थे, जो महिमामय हो, जिस में न दाग हो, न झुर्री और न कोई दूसरा दोष, जो पवित्र और निष्कलंक हो।
28) पति अपनी पत्नी को इस तरह प्यार करे, मानो वह उसका अपना शरीर हो।
29) कोई अपने शरीर से बैर नहीं करता। उल्टे, वह उसका पालन-पोषण करता और उसकी देख-भाल करता रहता है। मसीह कलीसिया के साथ ऐसा करते हैं,
30) क्योंकि हम उनके शरीर के अंग हैं।
31) धर्मग्रन्थ में लिखा है- पुरुष अपने माता-पिता को छोड़ेगा और अपनी पत्नी के साथ रहेगा और वे दोनों एक शरीर हो जायेंगे।
32) यह एक महान रहस्य है। मैं समझता हूँ कि यह मसीह और कलीसिया के सम्बन्ध की ओर संकेत करता है।
60) उनके बहुत-से शिष्यों ने सुना और कहा, ‘‘यह तो कठोर शिक्षा है। इसे कौन मान सकता है?’’
61) यह जान कर कि मेरे शिष्य इस पर भुनभुना रहे हैं, ईसा ने उन से कहा, ‘‘क्या तुम इसी से विचलित हो रहे हो?
62) जब तुम मानव पूत्र को वहाँ आरोहण करते देखोगे, जहाँ वह पहले था, तो क्या कहोगे?
63) आत्मा ही जीवन प्रदान करता है, मांस से कुछ लाभ नहीं होता। मैंने तुम्हे जो शिक्षा दी है, वह आत्मा और जीवन है।
64) फिर भी तुम लोगों में से अनेक विश्वास नहीं करते।’’ ईसा तो प्रारम्भ से ही यह जानते थे कि कौन विश्वास नहीं करते और कौन मेरे साथ विश्वासघात करेगा।
65) उन्होंने कहा, ‘‘इसलिए मैंने तुम लोगों से यह कहा कि कोई मेरे पास तब तक नहीं आ सकता, जब तक उसे पिता से यह बरदान न मिला हो’’।
66) इसके बाद बहुत-से शिष्य अलग हो गये और उन्होंने उनका साथ छोड़ दिया।
67) इसलिए ईसा ने बारहों से कहा, ‘‘कया तुम लोग भी चले जाना चाहते हो?’’
68) सिमोन पेत्रुस ने उन्हें उत्तर दिया, ‘‘प्रभु! हम किसके पास जायें! आपके ही शब्दों में अनन्त जीवन का सन्देश है।
69) हम विश्वास करते और जानते हैं कि आप ईश्वर के भेजे हुए परमपावन पुरुष हैं।’’
यदि जीवन में सना सुख ही सुख मिलता रहे, तो इससेहमें कोई आनंद नहीं मिलता। यदि हमें जीवन में आनंद का अनुभव करना है तो हमें कठिनाइयों का सामना करना अति आवश्यक है। जैसे कि जब कोई स्त्री प्रसव वेदना को झेलते हुए अपनी पहली संतान को जन्म देती है तो वह संतान को देखते ही अपनी सारी वेदना को भूल जाती है। उस समय उसके पुत्र या पुत्री का चेहरा देखना उसे आनंद से भर देता है। हम सुसमाचार में देखते हैं, प्रभु येसु के कुछ शिष्य उनकी शिक्षा को कठोर कहते हुए उनका परित्याग करते हैं। प्रभु येसु की शिक्षा कठोर क्यों है? पहला कारण प्रभु येसु कहते है कि, जो मेरा अनुसरण करना चाहता है वह आत्मत्याग करे और अपना क्रूस उठाकर मेरे पीछे होले। दूसरा कारण वह अपना मांस खाने को बोलते हैं जो कि यहूदी प्रथा के अनुसार बहुत अशुद्ध है औरकोई किसी मनुष्य का मांस कैसे खा सकता है।परन्तु येसु के कुछ शिष्य जिस उद्देश्य के साथ उनका अनुसरण करने आए थे वे उसे पूर्ण होते हुए नहीं देख रहे थे। उन्हें लगा,यदि वे येसु का अनुसरण करेंगे तो उनकी दैनिक जरूरतें पूरी होती रहेंगी। उन्हें जीवन में सुख का अनुभव होता रहेगा। प्रिय भाइयो और बहनो, प्रभु येसु के ये शिष्य सांसारिक सुख के ही पीछे रह गए। वे येसु की शिक्षा का महत्त्व नहीं समझ पाए। परन्तु येसु के अन्य शिष्य उनकी शिक्षा में व उन में विश्वास करते लगे थे। पेत्रुस अपने विश्वास को व्यक्त करते हुए बोला, प्रभु हम कहाँ जाएं, आपके शब्दों में ही अनन्त जीवन है। वास्तव में प्रभु येसु की शिक्षा आत्मा और जीवन है। आमेन
✍ - ब्रदर कपिल देव (ग्वालियर धर्मप्रान्त)
If we only get happiness in life, then we do not get any joy from it. If we want to experience happiness in life, it is very important for us to face difficulties. For example, when a woman gives birth to her first child after suffering the pain of labour, she forgets all her pain as soon as she sees the child. At that time seeing the face of her son or daughter fills her with joy. We see in the gospel, some of the disciples of Lord Jesus abandon His teaching, calling it harsh. Why is the teaching of Lord Jesus harsh? The first reason Lord Jesus says is that whoever wants to follow Me must renounce himself and take up his cross and follow Me. The second reason is that he asks to eat his own flesh which is very impure according to Jewish tradition and how can anyone eat the flesh of any human being. But some of Jesus' disciples were not seeing the purpose with which they had come to follow him being fulfilled. They felt that if they followed Jesus, their daily needs would be met. They will continue to experience happiness in life. Dear brothers and sisters, these disciples of Lord Jesus remained only after worldly pleasures. They could not understand the importance of Jesus' teaching. But other disciples of Jesus started believing in his teachings and in him. Expressing his faith, Peter said, Lord where should we go, there is eternal life in your words only. Truly the teaching of Lord Jesus is spirit and life. Amen.
✍ -Bro. Kapil Dev (Gwalior Diocese)
प्रभु येसु अपने अनुयायों को एक बहुत ही महत्वपूर्ण शिक्षा देते हैं। वे लोगों के सामने खुद के जीवन व मकसद को लोगों के सामने उजागर कर देते हैं। वो यह है की वे इस संसार में स्वर्ग से उतरी हुई वह रोटी है जो मनुष्यों को अनंत जीवन देती है। अनंत जीवन में प्रवेश करने के लिए येसु के शरीर और रक्त का पान करना आवश्यक है। अपने इस शरीर और रक्त को कलवारी पर सबों के लिए अर्पित कर येसु ने संसार को जीवन दिया। यही उनके इस दुनिया में आने का उद्देश्य था।
येसु की इस महान घोषणा व महान रहस्य के प्रकटीकरण के बाद उम्मीद की जा रही थी होगी की लोग और भी अधिक संख्या में उनके पास आएंगे। क्योंकि उन्होंने अनंत जीवन का सन्देश सुनाया था। पर लोगों की प्रतिक्रिया इसके बिलकुल विपरीत थी। वे एक-एक करके वहां से जाने लगे। तब येसु ने जो सवाल पूछा वो बहुत ही मार्मिक है। ऐसा लगता है कि येसु बहुत अधिक निराश व हतोत्साहित हो गए थे। कितनी उम्मीद व उत्साह से भरकर उन्होंने लोगों को अनंत जीवन का सन्देश दिया पर लोग सिर्फ भौतिक भूख मिटाकर ही संतुष्ट थे। ऐसे में पेत्रुस का जवाब येसु को बहुत सुकून देता है। "हम कहाँ जाएँ, आपके ही शब्दों में अनंत जीवन का सन्देश है। "
हो सकता है पेत्रुस ने येसु से जो कहा उसका वे पूरा अर्थ नहीं समझ रहे होंगे लेकिन उन्हें इतना ज़रूर पता था कि इस जीवन में सबसे आवश्यक है अनंत जीवन का सन्देश: ईश्वर का वचन और वो सिर्फ येसु के पास ही है। मनुष्य सिर्फ रोटी से ही नहीं जीता वह ईश्वर के मुख से निकलने वाले हर एक शब्द से जीता है। पेत्रुस ने इस बात को समझ लिया था कि चाहे कुछ भी हो जाये पर, 'अनन्त जीवन के वचन तो सिर्फ येसु के पास ही हैं और जीवन में अगर यह मिल गया तो फिर और किसी चीज़ की कमी न सताएगी।
✍फादर प्रीतम वसुनिया - इन्दौर धर्मप्रांतLord Jesus gives a very important teaching to his followers. He exposes his life and purpose to the people that He is the Bread that came down from heaven in this world that gives eternal life to humans. It is necessary to be nourished by His Body and Blood in order to enter into eternal life. Jesus gave life to the world by offering his body and blood for all on Calvary. This was the purpose of his coming into this world.
After this great announcement of Jesus and the revelation of the great secret, it was expected that people would come to him in greater numbers. For he preached the message of eternal life. But the reaction of the people was quite the opposite. They started leaving from there one by one. Then the question that Jesus asked is very touching. It seems that Jesus had become very discouraged disappointed. Filled with so much hope and enthusiasm, he gave the message of eternal life to the people, but people were satisfied only with material food. In such a situation, the answer of Peter gives great comfort to Jesus. "Where we go, in your own words is the message of eternal life." Peter may not have understood the full meaning of what he said to Jesus, but he did know that what is most important in this life is the message of eternal life: the word of God and that is only found in Jesus. Man does not live by bread alone; he lives by every word that comes the mouth of God. Peter had understood that no matter what happens, 'the word of eternal life is in Jesus only and if on finds it in life, that’s more than enough for the fulfilment of one’s earthly life
✍ -Fr. Preetam Vasuniya
येसु ने बहत्तर शिष्यों को नियुक्त कर उन्हें चंगाई, सुसमाचार सुनाने एवं विभिन्न शक्तियों से सम्पन्न कर भेजा। (देखिए लूकस 10:1-20) इन शिष्यों ने जगह-जगह जाकर महान कार्य किये। "बहत्तर शिष्य सानन्द लौटे और बोले, "प्रभु! आपके नाम के कारण अपदूत भी हमारे अधीन होते हैं"। (लूकस 10:17) इस प्रकार ये शिष्य प्रभु के साथ रहकर बहुत खुश थे। किन्तु संत योहन के सुसमाचार 6:60 में हम पाते हैं कि प्रभु येसु को सुनने वालों में से बहुत से लोग उन्हें छोड़ कर चले जाते हैं। शायद उन बहत्तर शिष्यों में से बहुतों ने यह कहकर कि "ये तो कठोर शिक्षा है इसे कौन मान सकता है?" येसु के विरूद्ध लगभग विद्रोह किया। येसु की शिक्षा इतनी कठोर क्यों महसूस होती है? शिष्यों की ऐसी तीव्र प्रतिक्रिया को हम सहज ही समझ सकते हंक क्योंकि येसु की शिक्षा का पालन करना इतना आसान नहीं है जितना की सुनना एवं सुनाना। हम उनकी शिक्षा को सुनकर आनन्द विभोर तो हो सकते हैं किन्तु जब उसे जीवन में लागू करने की बारी आती है तो हम कतराने लगते हैं। यहॉ तक कि हेरोद भी योहन बपतिस्ता के प्रवचनों को सुनकर आनन्दित होता था तथा उसकी सराहना करता था, "हेरोद योहन को धर्मात्मा और सन्त जान कर उस पर श्रद्धा रखता और उसकी रक्षा करता था। हेरोद उसके उपदेश सुन कर बड़े असमंजस में पड़ जाता था। फिर भी, वह उसकी बातें सुनना पसन्द करता था।" (मारकुस 6:20) योहन के प्रति इतनी प्रशंसा एवं श्रद्धा के बावजूद भी हेरोद योहन को जेल में डलवा देता है तथा अनिच्छा से ही सही मगर उसे मरवा डालता है। हेरोद सुसमाचार के प्रति आकर्षित तो हुये पर उसकी शिक्षानुसार नहीं चल पाये।
राज्यपाल फेलिक्स भी पौलुस को सुनना पंसद करता था तथा ईसा मसीह के बारे में सुनना चाहता था। किन्तु जब "पौलुस न्याय, आत्मसंयम तथा भावी विचार के विषय में बोलने लगा, तो फेलिक्स पर भय छा गया और उसने कहा, ’’तुम इस समय जा सकते हो। अवकाश मिलने पर मैं तुम को फिर बुलाऊँगा।’’ (प्रेरित चरित 24:25) इस प्रकार जब पौलुस ने फेलिक्स के जीवन के उन संदेहास्पद पहलुओं को इंगित किया तो उसने पौलुस को वापस भेज दिया।
पुराने विधान में हम पाते हैं कि योशुआ लोगों को ईश्वर को अपनाने या छोडने का विकल्प देते हुए कहते हैं, ’’यदि तुम ईश्वर की उपासना नहीं करना चाहते, तो आज ही तय कर लो कि तुम किसकी उपासना करना चाहते हो- .....मैं और मेरा परिवार, हम सब प्रभु की उपासना करना चाहते हैं।’’ इसके उत्तर में लोग तुरन्त ईश्वर को चुनते है, ’’लोगों ने उत्तर दिया, ’’प्रभु के छोड़ कर अन्य देवताओं की उपासना करने का विचार हम से कोसों दूर है।’’ (योशुआ 24:15-16) किन्तु हम जानते हैं कि पराजय एवं विषम परिस्थितियों में वे लोग शीघ्र ही प्रभु की शिक्षाओं त्याग कर कुढकुढाने लगते थे। इस प्रकार वे अपनी शपथ पर कायम नहीं रह सके तथा भटक गये। उनकी समस्या भी प्रभु की शिक्षाओं का पालन थी।
एक धनी युवक येसु का अनुसरण करना चाहता था किन्तु प्रभु की शिक्षा, ’’अपनी सारी सम्पत्ति बेच कर गरीबों को दे दो और स्वर्ग में तुम्हारे लिए पूंजी रखी रहेगी’’ (मत्ती 19:21) को सुनकर वह निराश होकर चला जाता है। उसके लिये येसु का अनुसरण करना एक अंशकालीन क्रिया मात्र थी किन्तु जब येसु उसे जीवनपर्यन्त प्रतिबद्धता के लिए बुलाते हैं तो वह इस बुलाहट को कठोर पाकर पीछे हट जाता है।
धर्मग्रंथ में हमें ऐसे अनेकों उदाहरण मिलेंगे जब लोगों ने ईश्वर की शिक्षा को कठोर मानकर त्याग दिया। हमें संत पेत्रुस के कथन एवं विश्वास ’’प्रभु हम किसके पास जाये! आपके ही शब्दों में अनन्त जीवन का संदेश है’’ से प्रेरणा एवं सीख ग्रहण करना चाहिए। पेत्रुस ने येसु को मुक्ति का एकमात्र स्रोत एवं उनकी शिक्षा को मुक्ति का एकमात्र साधन माना। दानिएल के ग्रंथ में शद्रक, मेशक और अबेदनगो ने मौत के मुँह में पहुँचकर भी ईश्वर की शिक्षा को नहीं त्यागा और कहा, ’’यदि कोई ईश्वर है, जो ऐसा कर सकता है, तो वह हमारा ही ईश्वर है, जिसकी हम सेवा करते हैं। वह हमें प्रज्वलित भट्टी से बचाने में समर्थ है और हमें आपके हाथों से छुडायेगा।’’ (दानिएल 3:17) उसके आगे के वचन उनके विश्वास की गहराई से हमारा परिचय कराते हैं। वे आगे कहते हैं, “यदि वह ऐसा नहीं करेगा, तो राजा! यह जान लें कि हम न तो आपके देवताओं की सेवा करेंगे और न आपके द्वारा संस्थापित स्वर्ण-मूर्ति की आराधना ही।’’
इब्राहिम ने भी अपनी सभी विपत्तियों में ईश्वर पर भरोसा रखा यहॉ तक कि अपने एकलौते पुत्र इसहाक को चढाने से पीछे नहीं हटे। (देखिस उत्पति 22:15-19) आइये हम भी अपने विश्वास में दृढ़ बने तथा स्तोत्रकार की तरह प्रभु से प्रार्थना करे, ’’प्रभु! मुझे अपना मार्ग दिखा, जिससे मैं तेरे सत्य के प्रति ईमानदार रहूँ। मेरे मन को प्रेरणा दे, जिससे मैं तेरे नाम पर श्रद्धा रखूँ।’’ (स्तोत्र 86:11)
जब प्रभु ने कहा, "जीवन की रोटी मैं हूँ। ....स्वर्ग से उतरी हुई वह जीवन्त रोटी मैं हूँ। यदि कोई वह रोटी खायेगा, तो वह सदा जीवित रहेगा। जो रोटी में दूँगा, वह संसार के लिए अर्पित मेरा मांस है।" जो मेरा मांस खाता और मेरा रक्त पीता है, उसे अनन्त जीवन प्राप्त है और मैं उसे अन्तिम दिन पुनर्जीवित कर दूँगा," (योहन 6०:48,51,54) तो शिष्य एवं अन्य उपस्थित लोग उनकी बातें समझ नहीं पाये। येसु का कथन यूखारिस्त की पूर्वसूचना थी जिसमें येसु लोगों के लिए जीवंत शरीर और रक्त बन जाते हैं। लोग इस महान रहस्य एवं सच्चाई को समझ नहीं पाये इसलिए वे ऐसी तीव्र प्रतिक्रिया देते हैं। येसु ने इससे पहले भी अनेक बार कठोर शब्दों में शिक्षा दी थी जैसे उन्होंने फरीसियों और शास्त्रियों को ढोंगी कहा, शत्रुओं से प्रेम करना सिखलाया, विवाह को अटूट बंधन बताया, संकरे द्वार और विस्तृत द्वार के भेद को समझाया, वेश्याओं और नाकेदारों को बुलाया, शिष्यों के पैर धौये, नगरों को धिक्कारा, विश्राम के दिन चंगाई के कार्य किये, आत्मत्याग पर बल दिया, क्षमाशीलता का नया पाठ पढाया, स्वयं को संसार की ज्योति तथा भला चरवाहा बताया आदि। किन्तु उन्होंने कभी भी विद्रोह जैसी बातें नहीं की। लोगों के लिए यह समझना असंभव था कि कैसे ईश्वर मनुष्य बन सकता है तथा वहीं ईश्वर कैसे उनके लिए उनका भोजन बन जायेगा। वे ईश्वर के इस महान प्रेम को यूखारिस्त में परिणीत होता नहीं देख सके। उनके लिए ईश्वर की धारणा शायद दूसरी रही हो किन्तु वे येसु की रोटी और रक्त की शिक्षा को सिरे से नकार देते हैं। लोगों की इस प्रतिक्रिया को हम संत पौलुस के कथन से समझ सकते हैं, ’’प्राकृत मनुष्य ईष्वर के आत्मा की शिक्षा स्वीकार नहीं करता। वह उसे मूर्खता मानता और उसे समझने में असमर्थ है, क्योंकि आत्मा की सहायता से ही उस शिक्षा की परख हो सकती है।’’ (1 कुरि. 2:14) इस कारण बहुत से शिष्य अलग हो गये और उन्होंने उनका साथ छोड़ दिया। यूखारिस्त एक महान रहस्य है और इसे हम ईश्वर की कृपा के बिना समझ नहीं पायेंगे, स्वीकार नहीं कर पायेंगे।
जब येसु ने बचे हुये अपने बारह शिष्यों से पूछा कि ’’क्या तुम लोग भी चले जाना चाहते हो? तो पेत्रुस ने भावपूर्वक एक प्रेरणादायक तथा अंतदृष्टि से परिपूर्ण उत्तर दिया, ’’प्रभु! हम किसके पास जाये! आपके ही शब्दों में अनन्त जीवन का संदेश है।’’ पेत्रुस भले ही यूखारिस्त के रहस्य एवं सच्चाई को नहीं समझा हो किन्तु वह अपने येसु को त्यागना नहीं चाहता था। ईश्वर की कृपा से वह अब जानने लगा था कि प्रभु येसु मसीह हैं और ईश्वर के पुत्र हैं और इसलिए उनके वचनों पर उसे विश्वास करना चाहिए। इसलिए वह येसु के साथ बना रहता है तथा समय आने पर कालांतर में वह इस सच्चाई एवं रहस्य को भलीभांति समझ जाता है।
✍फादर रोनाल्ड वाँन