अगस्त 13, 2024, मंगलवार

वर्ष का उन्नीसवाँ सामान्य सप्ताह

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📒पहला पाठ : एज़ेकिएल का ग्रन्थ 2:8-3:4

8) “मानवपुत्र! मैं जो कहने जा रहा हूँ, उसे सुनो। इस विद्रोही प्रजा की तरह विद्रोह मत करो। अपना मुँह खोलो और जो दे रहा हूँ, उसे खा लो।“

9) मैंने आँखें ऊपर उठा कर देखा कि एक हाथ मेरी ओर बढ़ रहा है और उस में एक लपेटी हुई पुस्तक थी।

10) उसने उसे खोल दिया। काग़ज पर दोनों ओर लिखा हुआ था- उस पर विलाप, मातम और शोक गीत अंकित थे।

1) उसने मुझ से कहा, “मानवपुत्र! जो अपने-सामने हैं, उसे खा लो। यह पुस्तक खा जाओ और तब इस्राएल की प्रजा को सम्बोधित करो।“

2) मैंने अपना मुँह खोला और उसने मुझे यह पुस्तक खिलायी।

3) उसने मुझ से कहा “मानवपुत्र! मैं जो पुस्तक दे रहा हूँ, उसे खाओ और उस से अपना पेट भर लो“। मैंने उसे खा लिया; मेरे मुँह में उसका स्वाद मधु-जैसा मीठा था।

4) उसने मुझ से कहा, “मानवपुत्र! इस्राएल की प्रजा के पास जा कर उसे मेरे शब्द सुनाओ।

📙 सुसमाचार : सन्त मत्ती का सुसमाचार 18:1-5,10,12-14

1) उस समय शिष्य ईसा के पास आ कर बोले, ’’स्वर्ग के राज्य में सबसे बड़ा कौन है?’’

2) ईसा ने एक बालक को बुलाया और उसे उनके बीच खड़ा कर

3) कहा, ’’मैं तुम लोगों से यह कहता हूँ- यदि तुम फिर छोटे बालकों-जैसे नहीं बन जाओगे, तो स्वर्ग के राज्य में प्रवेश नहीं करोगे।

4) इसलिए जो अपने को इस बालक-जैसा छोटा समझता है, वह स्वर्ग के राज्य में सबसे बड़ा है।

5) और जो मेरे नाम पर ऐसे बालक का स्वागत करता है, वह मेरा स्वागत करता है।

10) ’’सावधान रहो, उन नन्हों में एक को भी तुच्छ न समझो। मैं तुम से कहता हूँ- उनके दूत स्वर्ग में निरन्तर मेरे स्वर्गिक पिता के दर्शन करते हैं।

12) तुम्हारा क्या विचार है - यदि किसी के एक सौ भेड़ें हों और उन में से एक भी भटक जाये, तो क्या वह उन निन्यानबे भेड़ों को पहाड़ी पर छोड़ कर उस भटकी हुई को खोजने नहीं जायेगा?

13) और यदि वह उसे पाये, तो मैं विश्वास दिलाता हूँ कि उसे उन निन्यानबे की अपेक्षा, जो भटकी नहीं थी, उस भेड़ के कारण अधिक आनंद होगा।

14) इसी तरह मेरा स्वर्गिक पिता नहीं चाहता कि उन नन्हों में से एक भी खो जाये।

📚 मनन-चिंतन

लोगों को स्वर्ग राज्य के बारे में जानकारी प्रदान करना प्रभु येसु की शिक्षा का अभिन्न अंग था। कभी वे दृष्टांतो के माध्यम से या किसी उदाहरण के द्वारा इसकी शिक्षा लोगों को प्रदान करते हैं। आज के सुसमाचार में प्रभु येसु शिष्यों के द्वारा स्वर्ग राज्य के बारे में किए गए सवाल का जवाब देते हैं। वे उन्हें कहते हैं जब तक वे छोटे बच्चों की तरह नहीं बन जाते तब तक वे स्वर्गराज में प्रवेश नहीं कर सकते हैं। वे उन्हें नन्हे बच्चों के समान बनने का आह्वान करते हैं। वे इसलिए ऐसा कहते हैं कि बच्चों का हृदय निर्मल होता है। इस संदर्भ में प्रभु येसु एक आशीर्वचन में कहते हैं कि जिनका हृदय निर्मल है वे ईश्वर के दर्शन करेंगे।। नन्हे बच्चों के दिल में किसी के प्रति कोई बुरी भावना नहीं रहती है। वे सब लोगों के साथ घुल मिल जाते हैं। इसी बात को प्रभु येसु अपने शिष्यों को बताते हैं। आज हम इस बात पर मनन करें कि क्या हमारा हृदय साफ है? क्या हम किसी के प्रति घृणा की भावना तो नही रखते हैं। और क्या हम स्वर्गराज्य में प्रवेश करना चाहते हैं? अगर हम स्वर्गराज में प्रवेश करना चाहते हैं तो हमारे आचरण को एक बालक की तरह बनाना होगा। जिस प्रकार एक बालक पूर्ण रूप से अपने माता-पिता पर आश्रित रहता है, उसी तरह हमें भी ईश्वर पर आश्रित रहना होगा। ईश्वर की आज्ञाओं का पालन करना होगा। तभी हम स्वर्ग राज्य में प्रवेश करने के लायक बन जायेंगे, जहाँ ना कोई भेदभाव होगा, जहाँ सांसारिक दृष्टि कोण से बड़ा व्यक्ति सबसे छोटा एवं सबसे छोटा व्यक्ति सबसे बड़ा माना जाएगा।

ब्रदर रोशन डामोर (झाबुआ धर्मप्रान्त)

📚 REFLECTION


Providing information about the Kingdom of heaven to people was an integral part of Lord Jesus’ teaching. Sometimes he imparts its teachings to people through parables or by examples. In today’s Gospel, Lord Jesus answers the question asked by the disciples about the kingdom of heaven. He tells them that they cannot enter the kingdom of heaven until they become like little children. He calls them to become like little children. He says this because children have pure hearts. In this context, Lord Jesus says in a Beatitude that those who have pure hearts will see God. Little children do not have any bad feelings towards anyone in their hearts. They mingle with all people. Lord Jesus tells this to his disciples. Today let us contemplate on whether our hearts are clean? Do we have feelings of hatred towards anyone? And do we want to enter the kingdom of heaven? If we want to enter the kingdom of heaven, then our behaviour will have to be made like that of a child. Just like a child is completely dependent on his parents, we too will have to depend on God. We will have to follow God’s commandments. Only then will we be able to enter the kingdom of heaven, where there will be no discrimination, where from a worldly point of view, a big person will be considered small and the biggest person will be considered the smallest

-Bro. Roshan Damor (Jhabua Diocese)

📚 मनन-चिंतन - 2

शिष्यों की दृष्टिकोण वयस्कों की तरह प्रतिस्पर्धी और तुलनात्मक थी। येसु ने उन्हें दिखाया कि दुनिया को देखने का एक और तरीका है। येसु लोकप्रिय मूल्यों में थोड़ी बदलाव लाते हैं। येसु दो दृश्यों की पेशकश करते: विनम्र बालक और आश्रित भेड़। येसु की सबसे बड़ी चिंताओं में कमजोरों और छोटों की देखभाल करना था।येसु के प्रचार और उनके जीवन का एक निरंतर विषय था छोटे और खोए हुए का महत्व। इसलिए वह आपको और मुझे ढूंढते है! यहाँ येसु ने ईश्वर को हर किसी के लिए पहरेदार के रूप में चित्रित किया है, विशेष रूप से उन लोगों के लिए जो कमजोर और आश्रित हैं। यदि कलीसिया में नेतृत्व संख्या का खेल है, तो हम रविवार के पवित्र मिस्सा के लिए उपस्थित लोगों के साथ खुश होंगे। येसु चाहते हैं कि हम कलीसिया के हर सदस्य के लिए सही चिंता करें, खासकर जो भटक गए हैं।

- फादर संजय कुजूर एस.वी.डी.


📚 REFLECTION

The disciples were used to the competitive and comparative habits of adults. Jesus showed them that there is another way of seeing the world. Jesus turns popular values upside down. Jesus offers two strong images: the humble child and dependent sheep. Among Jesus' greatest concerns was his care for the weak and the little ones. A constant theme of Jesus' preaching and of his life was the importance of the little one and the lost one. That's why he looks for you and me! Jesus here portrays God as watching out for everyone, especially those who are vulnerable and dependant. If leadership in the Church plays the number game, then we will be happy with those present for the Sunday mass. Jesus desires us to have the right concern for every member of the community especially who have gone astray.

-Fr. Snjay Kujur SVD