6) इस बात का ध्यान रखें कि जो कम बोता है, वह कम लुनता है और जो अधिक बोता है, वह अधिक लुनता है।
7) हर एक ने अपने मन में जिनता निश्चित किया है, उतना ही दे। वह अनिच्छा से अथवा लाचारी से ऐसा न करे, क्योंकि ‘‘ईश्वर प्रसन्नता से देने वाले को प्यार करता है’’।
8) ईश्वर आप लोगों को प्रचुर मात्रा में हर प्रकार का वरदान देने में समर्थ है, जिससे आप को कभी किसी तरह की कोई कमी नहीं हो, बल्कि हर भले काम के लिए चन्दा देने के लिए भी बहुत कुछ बच जाये।
9) धर्मग्रन्थ में लिखा है- उसने उदारतापूर्वक दरिद्रों को दान दिया है, उसकी धार्मिकता सदा बनी रहती है।
10) जो बोने वाले को बीज और खाने वाले को भोजन देता है, वह आप को बोने के लिए बीज देगा, उसे बढ़ायेगा और आपकी उदारता की अच्छी फसल उत्पन्न करेगा।
24) मैं तुम लोगो से यह कहता हूँ- जब तक गेंहूँ का दाना मिटटी में गिर कर नहीं मर जाता, तब तक वह अकेला ही रहता है; परंतु यदि वह मर जाता है, तो बहुत फल देता है।
25) जो अपने जीवन को प्यार करता है, वह उसका सर्वनाश करता है और जो इस संसार में अपने जीवन से बैर करता है, वह उसे अनंत जीवन के लिये सुरक्षित रखता है।
26) यदि कोई मेरी सेवा करना चाहता है तो वह मेरा अनुसरण करे। जहाँ मैं हूँ वहीं मेरा सेवक भी होगा। जो मेरी सेवा करेगा, मेरा पिता उस को सम्मान प्रदान करेगा।
आज के सुसमाचार में प्रभु कहते हैं, "मैं तुम से सच सच कहता हूँ, जब तक गेहूं का एक दाना भूमि में गिरकर मर नहीं जाता, तब तक वह अकेला ही रहता है, परन्तु यदि वह मर जाता है, तो बहुत फल लाता है।" इस परिच्छेद में येसु जिस गेहूँ के दाने का उल्लेख कर रहे हैं, वह दाना स्वयं येसु है। येसु गेहूँ का वह दाना है जो मरा और पुनर्जीवित हुआ। येसु हमारे लिए मर गये और वह फिर से जी उठे। संत पौलूस अपने पत्र (1 कुरिंथ 15:14), में लिखते हैं- "यदि मसीह पुनर्जीवित नहीं हुआ तो हमारा उपदेश व्यर्थ है और आप लोगों का विश्वास भी व्यर्थ है”। मसीह ने अपने पुनरुत्थान द्वारा हमें प्रमाण दिया है कि हम पुनर्जीवित होंगे। इसके द्वारा उन्होंने अनन्त जीवन का मार्ग खोल दिया है। उनकी मृत्यु और पुनरुत्थान ने स्वर्गीय राज्य के लिए समृद्ध फसल पैदा की है। संत योहन के सुसमाचार 12:25 में येसु कहते हैं, जो कोई अपने जीवन से प्रेम करता है, वह इसे खो देगा, और जो लोग इस संसार में अपने जीवन से घृणा करते हैं, वे इसे बनाए रखेंगे।" यहाँ येसु हमें अपने जीवन से घृणा करने के लिए नहीं कह रहे हैं क्योंकि हमारा जीवन ईश्वर से प्रदत्त अनमोल उपहार है। अपने स्वयं के जीवन से घृणा करने का तात्पर्य स्वतंत्र रूप और स्वेच्छा से येसु और उसके उद्देश्य के लिए अपना जीवन समर्पित कर देना है। दूसरे शब्दों में, हमारे लिए उनकी योजना और उद्देश्य को अधिक महत्व देना चाहिए। काथलिक कलीसिया सिखाती है कि ईसा मसीह बिना किसी को छोड़ के पूरी मानवता के लिए मरे। ऐसा एक भी इंसान न तो कभी हुआ है और न ही कभी होगा जिसके लिए मसीह ने कष्ट न सहा हो। ख्रीस्तीय जीवन का अर्थ ही है दूसरों की भलाई के लिए अपना जीवन जीना। इसलिए हम सभी अपने परिवार, समाज और कलीसिया में गेहूँ का एक दाना बनने के लिए बुलाए गए हैं। तो आइए हम येसु और संत लॉरेंस जिनका पर्व हम आज मनाते हैं, उनसे प्रेरित होकर एक दूसरे के लिए गेहूँ का दाना बनने के लिए सीखें।
✍ - ब्रदर नमित तिग्गा (भोपाल महाधर्मप्रान्त)
In today’s Gospel the Lord says, “Truly truly I say to you; unless a grain of wheat falls into the Earth and dies it remains alone, but if it dies, it bears much fruit.” The grain of wheat that Jesus is referring to in this passage is himself. Jesus is that grain of wheat. Dear friends, Jesus died for us and he rose again. St. Paul writes in his letter 1Cor. 15:14, “if Christ has not been raised, then our proclamation is in vain and your faith is in vain”. Christ by his resurrection has given us the proof that we will be raised. By this he has opened the path to eternal life. His death and resurrection has produced the rich harvest for heavenly kingdom. In Jn. 12:25 he says, whoever loves his life, will lose it, and those who hate their life in this world will keep it.” Here Jesus is not asking us to hate our life because our life is a precious gift of God. Hating one’s own life is freely and willingly laying down our life for Jesus and his purpose; in other words, giving more importance to his plan and purpose for us. The Church teaches that Christ died for the whole humanity without any exception. There has never been and never will be a single human being for whom Christ did not suffer. Christian life is about living our life for the good of others. So, all of us are called to become grains of wheat in our own church, family and society. Let us learn from Jesus and St. Lawrence whose feast we celebrate today to become the grain of wheat for the sake of others.
✍ -Bro. Namit Tigga (Bhopal Archdiocese)
मृत्यु को अक्सर हम जीवन का अंत समझते हैं, परंतु मृत्यु जीवन का अंत नहीं परंतु नये जीवन की शुरूआत है। गेहूँ का दाना जब तक नहीं मरता वह अकेला रहता है, परंतु जब वह मिट्टी में गिर कर मर जाता है तो वह अनेक दानों में परिवर्तित हो जाता है। एक पवित्र और प्रभुमय मनुष्य की मृत्यु इस संसार की दृष्टि में अंत सा प्रतीत होता हों परंतु उस व्यक्ति के मृत्यु से अनेक पवित्र और प्रभुमय मनुष्य की उत्पत्ति होती है। संत लॉरेंस की शहादत ने अनेक व्यक्तियों के जीवन में ईश्वर के प्रति विश्वास और साहस को जन्म दिया। इसी प्रकार हर एक ख्रीस्तीय को अपना जीवन ईश्वर के लिए पूर्ण रूप से समर्पित होकर जीना चाहिए।
✍फादर डेन्नीस तिग्गाWe often think of death as the end of life, but death is not the end of life but the beginning of a new life. Unless the grain of wheat dies it remains alone, but when it falls into the ground and dies, it turns into many grains. The death of a pious and godly man may seem like an end in the eyes of this world, but many pious and godly men are born from that person's death. The martyrdom of St. Lawrence gave birth to faith in God and courage in the lives of many people. Similarly, every Christian should live his/her life completely devoted to God.
✍ -Fr. Dennis Tigga
गेहूँ के दाने को फल पैदा करने के लिए सिर्फ मरने से काम नहीं चलेगा। इसे 'पृथ्वी में गिरना' चाहिए, मिटटी में गिरना चाहिए। जहाँ से उसे एक नए जीवन की शुरुआत के लिए पर्याप्त उर्वरता, और खनिज पदार्थ प्राप्त होंगे। हम भी पाने जीवन में अपने दम पर कुछ हासिल नहीं कर पाएंगे। हमें उस पोषण की आवश्यकता है जो येसु प्रदान हमें करते है, क्योंकि वही हमारा जीवन है। "मार्ग सत्य और जीवन मैं हूँ। "
येसु यहां कहते हैं कि 'सेवा करना' और 'अनुसरण करना' एक ही बात है। यह हम पर निर्भर नहीं करता कि हम उनकी सेवा कैसे करें या कहाँ करें। हमें पहले उनका अनुसरण करना चाहिए और उन्हें हमें उस स्थान तक ले जाने देना चाहिए जहां वे सेवा या सेवकाई के लिए हमें ले जाना चाहते हैं। एक शिष्य यह नहीं कह सकता, 'मैंने इसे अपने तरीके से किया!' नहीं शिष्य यदि अपने तरीके से ही काम करे और अपना जीवन जीए तो वह शिष्य नहीं अपनी मर्ज़ी का मालिक है।
✍फादर प्रीतम वसुनिया - इन्दौर धर्मप्रांतIt will not do for the grain of wheat just to die in order to produce fruit. It must ‘fall into the earth’. We will achieve nothing on our own. We need the nourishment which Jesus provides, for he is our life. "I am the way, the truth and the life."
Jesus says here that ‘serving’ and ‘following’ him are the same thing. It is not for us to choose how or where to serve him. We must follow first and let him lead us to where he wants us to serve. A disciple cannot say, ‘I did it my way!’ One who does things his way, cannot be called a disciple for he is the master of his own will.
✍ -Fr. Preetam Vasuniya