1) देखो! सन्देशवाहक पर्वतों पर आ रहा है, वह शांति घोषित करने आ रहा है। यूदा! अपने पर्व मनाओ और अपनी मन्नतें पूरी करो। कुकर्मी फिर कभी तुझ पर आक्रमण नहीं करेगा- उसका सर्वनाश हो गया है।
3) लुटेरों ने याकूब और इस्राएल को उजाडा और उनकी दाखबारियों को नष्ट किया है, किन्तु प्रभु याकूब और इस्राएल को उनका प्राचीन वैभव लौटा देगा।
3:1) धिक्कार है रक्तपिपासु निनीवे को! वह झूठ और लूट से कुट-कूट कर भरा हुआ है और लूटपाट से बाज नहीं आता।
2) सुनो-चाबुक की फटकार, पहियों की खडखडाहट, घोड़ों की टाप और रथों की घरघराहट।
3) देखो-घोड़ों का सरपट, तलवारों की दमक और भालों की चमक। कितने ही घायल और कितने ही मारे हुए! असंख्य शव पडे हुए हैं- लोग उन पर ठोकर खा कर गिर रहे हैं।
6) मैं तझ पर कीचड उछालूँगा, तुझे अपमानित करूँगा और काठ में तरे पांव जकड दूँगा।
7) जो तुझ पर दृष्टि डालेगा, वह मुँह फेर कर कहेगा- ''निनीवे का सर्वनाश हो गया है। कौन उस पर दया करेगा? तुझे सान्त्वना देने वालों को में कहाँ से ले आऊँ?''
24) इसके बाद ईसा ने अपने शिष्यों से कहा, "जो मेरा अनुसरण करना चाहता है, वह आत्मत्याग करे और अपना क्रूस उठा कर मेरे पीछे हो ले;
25) क्योंकि जो अपना जीवन सुरक्षित रखना चाहता है, वह उसे खो देगा और जो मेरे कारण अपना जीवन खो देता है, वह उसे सुरक्षित रखेगा।
26) मनुष्य को इस से क्या लाभ यदि वह सारा संसार प्राप्त कर ले, लेकिन अपना जीवन गँवा दे? अपने जीवन के बदले मनुष्य दे ही क्या सकता है?
27) क्योंकि मानव पुत्र अपने स्वर्गदूतों के साथ अपने पिता की महिमा-सहित आयेगा और वह प्रत्येक मनुष्य को उसके कर्म का फल देगा।
28) मैं तुम से कहता हूँ - यहाँ कुछ ऐसे लोग विद्यमान हैं, जो तब तक नहीं मरेंगे, जब तक वे मानव पुत्र को राजकीय प्रताप के साथ आता हुआ न देख लें।"
येसु अपने शिष्यों से कहते हैं, "यदि कोई मेरा अनुसरण करना चाहता है, वह आत्मत्याग करे और अपना क्रूस उठाकर मेरे पीछे हो लें।" वे ऐसा क्यों कहते हैं? इसका उत्तर और पृष्ठभूमि आज के सुसमाचार के पिछले अंश में मिलती है, जहाँ येसु अपने शिष्यों को अपनी पीड़ा, मारे जाने और अपने पुनरुत्थान के बारे में बताते हैं। यदि पेत्रुस, की जगह में कोई अन्य व्यक्ति भी होता तो मैं समझता हूँ उसने भी पेत्रूस जैसा ही कहा होता। वह येसु से कहता है, "ईश्वर ऐसा न करे। प्रभु! यह आप पर कभी नहीं बीतेगी।" इस संदर्भ में येसु हमें शिष्यत्व के बारे में सिखाना चाहते हैं। शिष्य या अनुयायी बनना कोई आसान काम नहीं है। व्यक्ति को उसका अनुसरण करने में उत्साहित, केंद्रित और निरंतरता समाहित रहना चाहिए। वो हमारे समक्ष कुछ महत्वपूर्ण नियम और शर्तें हैं जो शिष्यत्व पर लागू होते हैं वे हैं - आत्मत्याग, क्रूस उठाना और उनका अनुसरण करना। आत्मत्याग करने का उनका सीधा आशय स्वयं को अस्वीकार करना नहीं बल्कि हमें अपनी चाह और इच्छाओं को अस्वीकार या उपेक्षा करते हुए ईश्वर की इच्छा को स्वीकार करने से है। हमें उनकी योजना और उनकी इच्छा की तलाश करनी चाहिए। हर चीज़ में उनकी इच्छा होनी चाहिए। हे प्रभु, मेरी इच्छा नहीं, बल्कि तेरी ही इच्छा पूरी हो - ऐसा मनोभाव होना चाहिए। तो यह सब ईश्वर की इच्छा को पूर्ण प्राथमिकता देने के बारे में है। इसलिए चाहे हमारा क्रूस कुछ भी हो, आइए हम उसे उठाएं और अपनी मृत्यु तक उनका अनुसरण करें।
✍ - ब्रदर नमित तिग्गा (भोपाल महाधर्मप्रान्त)
Dear brothers and sisters, Jesus tells his disciples, “If any want to become my followers let them deny themselves and take up their cross and follow me.” Why does he say this? The answer and the background of this saying is found in the previous passage of today’s Gospel, where Jesus tells his disciples about his suffering, being killed and his resurrection. Peter, as every human being might have said to Jesus, “This must never happen to you.” It is in this line Jesus wants to teach us about the discipleship. To be a disciple or follower is not an easy task. One should be radical, focused and constant in following him. There are important terms and conditions which He places on discipleship namely- denying one self, taking up the cross and following him. So to deny oneself simply means that we must accept and seek the will of God denying or neglecting our own wills and desires. In everything it has to be his will. Lord your will be done not my own will. So it is all about total priority to God’s will. So whatever may be our cross let us take up and follow him up to our death.
✍ -Bro. Namit Tigga (Bhopal Archdiocese)
येसु अपने शिष्यों को शिष्यत्व के अर्थ के बारे में निर्देश देते हैं। येसु चेलों को याद दिलाते हैं कि उनका अनुसरण करना महिमा का मार्ग नहीं, बल्कि यह आत्म-त्याग और क्रूस का मार्ग है। येसु, शिष्यत्व की मांगों को प्रस्तुत करते हैं। येसु, शिष्यत्व के तीन मांगे सामने रखते हैं- १) आत्मत्याग करना २) अपना क्रूस उठाना ३) येसु का अनुसरण करना । खीस्तीय जीवन का अर्थ-आत्मत्याग करना है। स्वयं की इच्छा को त्याग कर ईश्वर के लिए जीना खीस्तीय जीवन की प्रमुख पहलू है। क्रूस उठाकर चलने का फल, जीवन है। जीवन से येसु का क्या तात्पर्य है? खीस्तीय जीवन, बलिदानों एवं पुरस्कारों के साथ तब शुरू होता है जब हम पहली बार अपना क्रूस उठाना शुरू करते हैं और येसु का अनुसरण करते हैं। पहली दो माँगें उन कार्यों पर ज़ोर देती हैं जो आप मसीह के साथ चलने की शुरुआत में ही करते हैं। आप आत्म-त्याग कर और अपना क्रूस उठा कर, अंत तक येसु का अनुसरण करने को तैयार रहते हैं। लेकिन तीसरी मांग शिष्यत्व की निरंतर प्रकृति पर जोर देती है।
✍ - फादर संजय कुजूर एस.वी.डी.
Jesus instructs his disciples on the meaning of discipleship. Jesus reminds the disciples that following Him would not be the road to glory, but it is the road to self-denial and a cross. Jesus begins by presenting the demands of discipleship. Jesus gives three demands of discipleship 1) you must deny yourself, 2) you must take up your cross, and 3) you must keep following Jesus. Christianity is self-abandonment. Freedom from the tyranny of the self is a primary facet of Christianity. The reward of cross-bearing is life. What does Jesus mean by life? The Christian life, with its costs and rewards, begins when we first begin to take up our cross and follow Jesus. The first two demands emphasize the actions you take right at the beginning of your walk with Christ. You deny yourself and take up your cross, ready to follow Jesus right to the end. But the third demand emphasizes the continuing nature of discipleship.
✍ -Fr. Snjay Kujur SVD
आज हम प्रभु येसु का आह्वान सुनते हैं जिसमें वह वह हमसे आत्मत्याग करने और अपना क्रूस लेकर उनका अनुसरण करने के लिए कहते हैं। आगे वह हमें भरोसा दिलाते हैं कि यदि हमें अपना जीवन सुरक्षित रखना है तो उसे प्रभु के लिए समर्पित करना होगा। इसमें कोई फ़ायदा नहीं कि हम सब कुछ प्राप्त कर लें लेकिन अपनी आत्मा के लिए कुछ भी ना पाएँ। प्रभु येसु का अनुसरण करने के लिए यह कुछ बहुत कड़वी शिक्षा और चुनौती है।
प्रभु येसु का अनुसरण करने से पहले शिष्य बनने की तीन शर्तें हैं, जो हमें जाननी हैं। पहली शर्त या प्रभु येसु का शिष्य बनने का पहला चरण है आत्मत्याग। इसका मतलब है कि हम नगण्य हैं, कुछ भी नहीं हैं। अगर हमारा अस्तित्व नहीं है, तो किसका अस्तित्व है? हममें प्रभु येसु का अस्तित्व होना है, संत पौलुस के शब्दों को याद कीजिए- “…अब मैं जीवित नहीं रहा बल्कि मसीह मुझमें जीवित हैं…”( गलातियों 2:20)। पहले कदम के बाद शिष्य बनने के लिए दूसरा कदम आता है और वह है, अपना क्रूस उठाना। हमारा क्रूस हमारे दिन-प्रतिदिन की कठिनाइयाँ, दुःख-तकलीफ़ें और कष्ट हो सकते हैं, ऐसे लोग हो सकते हैं जो हमारी समझ से बाहर हैं, ऐसी परिस्थितियों का हमें आत्मत्याग की भावना के साथ त्याग करना है। यदि आत्मत्याग का पहला कदम सही से नहीं रखा तो दूसरा कदम उससे भी अधिक कठिन होगा और तीसरा कदम जो प्रभु येसु का अनुसरण करना है वह पहले और दूसरे कदम के बिना असम्भव होगा। यानी कि आत्मत्याग और क्रूस उठाए बिना हम प्रभु येसु का अनुसरण नहीं कर सकते। प्रभु येसु का अनुसरण करने का मतलब है, सब कुछ में उन्हीं के जैसे बनना, उनका मनोभाव, उनका करुण स्वभाव, उनका समर्पण, लोगों के प्रति उनका प्रेम और उनकी त्याग की भावना को अपनाना होगा।आइए हम ईश्वर से प्रभु येसु के सच्चे शिष्य बनने की कृपा माँगें और अपने जीवन को प्रभु के लिए सुरक्षित रखें। आमेन।
✍ - फादर जॉन्सन बी. मरिया (ग्वालियर धर्मप्रान्त)
Today we hear Jesus inviting us to deny ourselves, take up the cross and follow him. Further, he assures us that if we have to preserve our life we must lose it for him, and there is no use in gaining whole world and losing our life without any spiritual gain. These are some of the very bitter and challenging conditions to be the true disciple of Jesus or to follow him.
There are three steps to discipleship before we start following him. First step is to deny oneself. This means that you are nothing. You don’t exist in you, then who exists? Christ must exist in you, remember the words of St. Paul, “…it is no longer I who live, but Christ who lives in me…” (Gal.2:20). After the first step comes second one which is to take up the cross. The cross could be our daily challenges, difficulties, situations and people that we don’t understand, we need to face them with same attitude of self-denial. If the first step of self-denial is not taken efficiently, second will be much difficult, third step which is following Jesus, will be almost impossible without the other two steps. Following Jesus would mean being like him in everything, his attitude, his compassion, his dedication, his love for people, his spirit of sacrifice. Let us pray to God to bless us with the grace to be his true disciple and find meaning for our lives. Amen.
✍ -Fr. Johnson B.Maria (Gwalior)