अगस्त 08, 2024, गुरुवार

वर्ष का अठारहवाँ सामान्य सप्ताह

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📒पहला पाठ : यिरमियाह का ग्रन्थ 31:31-34

31) प्रभु यह कहता हैः “वे दिन आ रहे हैं, जब मैं इस्राएल के घराने और यूदा के घराने के साथ एक नया विधान स्थापित करूँगा।

32) यह उस विधान की तरह नहीं होगा, जिसे मैंने उस दिन उनके पूर्वजों के साथ स्थापित किया था, जब मैंने उन्हें मिस्र से निकालने के लिए हाथ से पकड़ लिया था। उस विधान को उन्होंने भंग कर दिया, यद्यपि मैं उनका स्वामी था।“ यह प्रभु की वाणी है।

33) ष्“वह समय बीत जाने के बाद मैं इस्राएल के लिए एक नया विधान निर्धारित करूँगा।’ यह प्रभु की वाणी है। “मैं अपना नियम उनके अभ्यन्तर में रख दूँगा, मैं उसे उनके हृदय पर अंकित करूँगा। मैं उनका ईश्वर होऊँगा और वे मेरी प्रजा होंगे।

34) इसकी जरूरत नहीं रहेगी कि वे एक दूसरे को शिक्षा दें और अपने भाइयों से कहें- ’प्रभु का ज्ञान प्राप्त कीजिए’ ; क्योंकि छोटे और बड़े, सब-के-सब मुझे जानेंगे।“ यह प्रभु की वाणी है। “मैं उनके अपराध क्षमा कर दूँगा, मैं उनके पापों की याद नहीं रखूँगा।“

📙 सुसमाचार : सन्त मत्ती का सुसमाचार 16:13-23

13) ईसा ने कैसरिया फि़लिपी प्रदेश पहुँच कर अपने शिष्यों से पूछा, ’’मानव पुत्र कौन है, इस विषय में लोग क्या कहते हैं?’’

14) उन्होंने उत्तर दिया, ’’कुछ लोग कहते हैं- योहन बपतिस्ता; कुछ कहते हैं- एलियस; और कुछ लोग कहते हैं- येरेमियस अथवा नबियों में से कोई’’।

15) ईस पर ईसा ने कहा, ’’और तुम क्सा कहते हो कि मैं कौन हूँ?

16) सिमोन पुत्रुस ने उत्तर दिया, ’’आप मसीह हैं, आप जीवन्त ईश्वर के पुत्र हैं’’।

17) इस पर ईसा ने उस से कहा, ’’सिमोन, योनस के पुत्र, तुम धन्य हो, क्योंकि किसी निरे मनुष्य ने नहीं, बल्कि मेरे स्वर्गिक पिता ने तुम पर यह प्रकट किया है।

18) मैं तुम से कहता हूँ कि तुम पेत्रुस अर्थात् चट्टान हो और इस चट्टान पर मैं अपनी कलीसिया बनाऊँगा और अधोलोक के फाटक इसके सामने टिक नहीं पायेंगे।

19) मैं तुम्हें स्वर्गराज्य की कुंजिया प्रदान करूँगा। तुम पृथ्वी पर जिसका निषेध करोगे, स्वर्ग में भी उसका निषेध रहेगा और पृथ्वी पर जिसकी अनुमति दोगे, स्वर्ग में भी उसकी अनुमति रहेगी।’’

20) इसके बाद ईसा ने अपने शिष्यों को कड़ी चेतावनी दी कि तुम लोग किसी को भी यह नहीं बताओ कि मैं मसीह हूँ।

21) उस समय से ईसा अपने शिष्यों को यह समझाने लगे कि मुझे येरुसालेम जाना होगा; नेताओं, महायाजकों और शास्त्रियों की ओर से बहुत दुःख उठाना, मार डाला जाना और तीसरे दिन जी उठना होगा।

22) पेत्रुस ईसा को अलग ले गया और उन्हें यह कहते हुए फटकारने लगा, ’’ईश्वर ऐसा न करे। प्रभु! यह आप पर कभी नहीं बीतेगी।’’

23) इस पर ईसा ने मुड़ कर, पेत्रुस से कहा ’’हट जाओ, शैतान! तुम मेरे रास्ते में बाधा बन रहो हो। तुम ईश्वर की बातें नहीं, बल्कि मनुष्यों की बातें सोचते हो।’’

📚 मनन-चिंतन - 1

हमने अपने जीवनकाल में विभिन्न परीक्षाओं का सामना किया होगा। यह जानने के लिए परीक्षाएं और मूल्यांकन आयोजित किए जाते हैं कि छात्रों ने विषय-वस्तु को कितना समझ लिया है। जब छात्र परीक्षा में अच्छा प्रदर्शन करते हैं तो शिक्षक खुश होते हैं। ऐसी ही स्थिति आज के सुसमाचार में घटित होती है। येसु अपने शिष्यों से अपनी पहचान के संबंध में प्रश्न पूछते हैं।

(1) लोग मेरे बारे में क्या कहते हैं?

(2) आप क्या कहते हैं, मैं कौन हूँ?

शिष्य गण काफ़ी समय से येसु का अनुसरण कर रहे थे। जबकि येसु ने लोगों को ईश्वर के राज्य के बारे में सिखाया था, शिष्यों ने भी सीखा था और उन्हें इसके गहरे अर्थ से अवगत कराया था। ईश्वर के राज्य के बारे में रहस्यों को प्रकट करने के बाद अब येसु जानना चाहते हैं कि वे कितना समझ गए हैं। येसु को जानने का मतलब ईश्वर और उसके राज्य को जानना है। उनकी शिक्षाओं को जानना, जीना और पालन करना ही स्वर्ग प्राप्त करना है। उन्होंने उत्तर दिया, कुछ लोग कहते हैं कि योहन बपतिस्मा देने वाला मृतकों में से जी उठा है। अन्य लोग एलिय्याह कहते हैं क्योंकि उसे नबियो की पंक्ति में राजकुमार के रूप में जाना जाता है। और फिर भी अन्य लोग यिरमियाह महान नबी कहते हैं। अब व्यक्तिगत प्रश्न का उत्तर पेत्रुस ने सही दिया और येसु खुश हो गए। येसु का ज्ञान या अनुभव व्यक्तिगत रूप में होना चाहिए। येसु हम प्रत्येक से व्यक्तिगत उत्तर की माँग करते हैं। हमारा उत्तर क्या हो सकता है? एक नबी, पिता, भाई, मित्र या मार्गदर्शक आदि। उनके साथ हमारा व्यक्तिगत अनुभव या रिश्ता कैसा है।

- ब्रदर नमित तिग्गा (भोपाल महाधर्मप्रान्त)


📚 REFLECTION

In our lifetime we might have faced various exams. The exams and the tests are being conducted in order to know whether the students have grasped the subject matter. When students do well in exams the teachers are happy. A similar situation takes place in today’s Gospel. Jesus asks questions to his disciples regarding his identity.

(1) Who do people say I am?

(2) Who do you say I am?

Disciples were following Jesus for quite long time. While Jesus taught people about the kingdom of God disciples also had learnt and the deeper meaning was made known to them. After having been disclosed about the kingdom of God now Jesus wants to know how much they have understood. To know Jesus is to know God and his kingdom. To live his teaching is to obtain salvation. They replied, some say John the Baptist who has risen from the dead. Others say Elijah for he is known as prince in prophetic line. And still others say Jeremiah the great prophet. Now the answer to the personal question is given by Peter correctly and Jesus is happy. The knowledge of Jesus has to be a personal one. Jesus demands a personal answer from every one of us. What could be our reply? A prophet, parent, brother, friend or guide etc. How is our personal experience with him?

-Bro. Namit Tigga (Bhopal Archdiocese)

📚 मनन-चिंतन - 2

येसु का प्रश्न सही उत्तर पाने के बारे में इतना नहीं है जितना कि यह ईश्वर के जीवन का साक्षी देना और प्रमाणित करने के बारे में है। यह हमारी बुद्धि के बारे में कम और हमारे दिल के बारे में अधिक है। यह समझने से ज्यादा प्यार पर आधारित है। यह हमें केवल येसु के बारे में जानने से लेकर येसु को जानने तक ले जाता है। येसु को मसीह के रूप में घोषित करना विश्वास का उपहार है। हमारा विश्वास येसु के शिष्यों के समुदाय की एक चट्टान की नींव है। जब हम विश्वास की घोषणा करते हैं, तो हम प्रेरितिक समुदाय के विश्वास में भाग लेते हैं। यद्यपि पेत्रुस सभी शिष्यों में पहला शिष्य है, फिर भी उसे येसु के मार्ग को स्वीकार करना कठिन लगता है। येसु चट्टान बनने के लिए पेत्रुस की सोच और दृष्टिकोण में बदलाव की माँग करते है।

- फादर संजय कुजूर एस.वी.डी.


📚 REFLECTION

Jesus’ question isn’t so much about getting the right answer as it is about witnessing and testifying to God’s life. It is less about our intellect and more about our heart. It is grounded in love more than understanding. It moves us from simply knowing about Jesus to knowing him. Proclaiming Jesus as Christ is a gift of faith. Our faith is a rock foundation of the community of disciples of Jesus. When we make the pronunciation of faith, we participate in the faith of the apostolic community. Even though Peter is the first disciple among all the disciples, he finds it difficult to accept the way of Jesus. Jesus demands a change in the thinking and the attitude of Peter to be the rock.

-Fr. Snjay Kujur SVD