अगस्त 05, 2024, सोमवार

वर्ष का अठारहवाँ सामान्य सप्ताह

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📒 पहला पाठ : यिरमियाह 28:1-17

1) यूदा के राजा योशीया के शासनकाल के प्रारम्भ में, चैथे वर्ष के पाँचवें महीने में अज्जूर के पुत्र हनन्या- गिबओन में रहने वाले नबी- ने प्रभु के मन्दिर में याजकों तथा समस्त जनता के सामने यिरमियाह से यह कहा,

2) “विश्वमण्डल का प्रभु, इस्राएल का ईश्वर यह कहता हैः मैं बाबुल के राजा का जूआ तोडूँगा।

3) मैं ठीक दो वर्ष बाद प्रभु के मन्दिर के वे सब सामान वापस ले आऊँगा जिन्हें बाबुल का राजा नबूकदनेज़र यहाँ से बाबुल ले गया था।

4) यहोयाकीम के पुत्र, यूदा के राजा यकोन्याह को और यूदा के सब निर्वासितों को भी मैं बाबुल से यहाँ वापस ले आऊँगा- यह प्रभु की वाणी है- क्योंकि मैं बाबुल के राजा का जूआ तोड़ूँगा।“

5) किन्तु नबी यिरमियाह ने सब याजकों समस्त जनता के सामने नबी हनन्या को सम्बोधित करते हुए कहा,

6) “एवमस्तु! प्रभु ऐसा ही करें! प्रभु तुम्हारी भवियवाणी पूरी करे और प्रभु के मन्दिर के सब सामान और सब निर्वासितों को भी वापस ले आये।

7) किन्तु जो बात मैं तुम को और सारी जनता को बताने जा रहा हूँ, उसे ध्यान से सुनो।

8) तुम्हारे और मेरे पहले जो नबी थे, वे प्राचीन काल से, शक्तिशाली देशों और बड़े राज्यों के लिए युद्ध, विपत्ति और महामारी की भवियवाणी करते आ रहे हैं।

9) जो नबी शान्ति की भवियवाणी करता है, वह तभी प्रभु का भेजा हुआ नबी माना जा सकता है, जब उसकी भवियवाणी पूरी हो जाये।“

10) इस पर नबी हनन्या ने नबी यिरमियाह के कन्धे पर से जूआ उतारा और उसे तोड़ डाला।

11) तब हनन्या समस्त जनता के सामने यह बोला, “प्रभु यह कहता है: मैं इसी तरह बाबुल के राजा नबूकदनेज़र का जूआ तोड़ूँगा। मैं ठीक दो वर्ष बाद उसे सब राष्ट्रों के कन्धे पर से उतार कर तोड़ दूँगा।“ इसके बाद नबी यिरमियाह अपनी राह चला गया।

12) जब हनन्या ने नबी यिरमियाह के कन्धे पर से जूआ उतार कर तोड़ दिया था, तो उस के थोड़े समय बाद प्रभु की वाणी यिरमियाह को यह कहते हुए सुनाई दी,

13) “जाओ और हनन्या से कहो- यह प्रभु की वाणी है। तुमने लकड़ी का जूआ तोड़ा, इसके बदले लोहे का जूआ आयेगा;

14) क्योंकि विश्वमण्डल का प्रभु, इस्राएल का ईश्वर यह कहता हैः मैं सब राष्ट्रों के कन्धे पर लोहे का जूआ रखने जा रहा हूँ। वे सब बाबुल के राजा नबूकदनेज़र के अधीन होंगे। मैंने बनैले पशुओं को भी उसके अधीन कर दिया है।“

15) नबी यिरमियाह ने नबी हनन्या से कहा, “हनन्या! ध्यान से मेरी बात सुनो! प्रभु ने तुम को नहीं भेजा है। तुमने इस प्रजा को झूठी आशा दिलायी है।

16) इसलिए प्रभु यह कहता हैः मैं तुम को इस पृथ्वी पर से मिटा दूँगा। तुम इसी वर्ष मर जाओगे; क्योंकि तुमने प्रभु के विरुद्ध विद्रोह का प्रचार किया है।“

17) उसी वर्ष के सातवें महीने नबी हनन्या का देहान्त हो गया।

📙 सुसमाचार : मत्ती 14:22-36

22) इसके तुरन्त बाद ईसा ने अपने शिष्यों को इसके लिए बाध्य किया कि वे नाव पर चढ़ कर उन से पहले उस पार चले जायें; इतने में वे स्वयं लोगों को विदा कर देंगे।

23) ईसा लोगों को विदा कर एकान्त में प्रार्थना करने पहाड़ी पर चढे़। सन्ध्या होने पर वे वहाँ अकेले थे।

24) नाव उस समय तट से दूर जा चुकी थी। वह लहरों से डगमगा रही थी, क्योंकि वायु प्रतिकूल थी।

25) रात के चैथे पहर ईसा समुद्र पर चलते हुए शिष्यों की ओर आये।

26) जब उन्होंने ईसा को समुद्र पर चलते हुए देखा, तो वे बहुत घबरा गये और यह कहते हुए, "यह कोई प्रेत है", डर के मारे चिल्ला उठे।

27) ईसा ने तुरन्त उन से कहा, "ढारस रखो; मैं ही हूँ। डरो मत।"

28) पेत्रुस ने उत्तर दिया, "प्रभु! यदि आप ही हैं, तो मुझे पानी पर अपने पास आने की अज्ञा दीजिए"।

29) ईसा ने कहा, "आ जाओ"। पेत्रुस नाव से उतरा और पानी पर चलते हुए ईसा की ओर बढ़ा;

30) किन्तु वह प्रचण्ड वायु देख कर डर गया और जब डूबने लगा तो चिल्ला उठा, "प्रभु! मुझे बचाइए"।

31) ईसा ने तुरन्त हाथ बढ़ा कर उसे थाम लिया और कहा, "अल़्पविश्वासी! तुम्हें संदेह क्यों हुआ?"

32) वे नाव पर चढे और वायु थम गयी।

33) जो नाव में थे, उन्होंने यह कहते हुए ईसा को दण्डवत् किया "आप सचमुच ईश्वर के पुत्र हैं"।

34) वे पार उतर कर गेनेसरेत पहुँचे।

35) वहाँ के लोगों ने ईसा को पहचान लिया और आसपास के गाँवों में इसकी ख़बर फैला दी। वे सब रोगियों को ईसा के पास ले आ कर

36) उन से अनुनय-विनय करते थे कि वे उन्हें अपने कपड़े का पल्ला भर छूने दें। जितनों ने उसका स्पर्श किया, वे सब-के-सब अच्छे हो गये।

📚 मनन-चिंतन - 1

आज का सुसमाचार हमें रोटियों के चमत्कार की घटना पर विचार करने के लिए आमंत्रित करता है। भोजन खिलाने की यह व्यवस्था बाइबल में नई नहीं है। निर्गमन ग्रंथ अध्याय 16 में जब इस्राएलियों ने मूसा को पुकारा, तो ईश्वर ने स्वर्ग से मन्ना बरसाया। उन्हें बटेर का मांस दिया जाता था और जब वे प्यासे होते थे तो उन्हें चट्टान से पानी दिया जाता था। ईश्वर ने उनकी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए उदारतापूर्वक उन्हें सब कुछ प्रदान किया। हमारे करुणामय पिता ईश्वर जरूरतमंदों की देखभाल करने से कभी नहीं थकते। जैसा कि स्तोत्रकार ने स्तोत्र 78:19 में पूछा है, "क्या ईश्वर जंगल में मेज़ बिछा सकता है”? हाँ, वह ऐसा कर सकता है। हमने आज सुसमाचार में यही सुना है। यहाँ हम आज के चमत्कारिक घटना में ईश्वर की करुणा और लोगों की आवश्यकता के मिलन को देखते हैं। यह ईश्वर की शक्ति और शिष्यों की असहाय अवस्था का मिलन है। सच में लोगों को भोजन की अत्यंत आवश्यकता थी और वह पूरी हो गईं । हम पाते हैं लाजरूस की मृत्यु होने पर उसकी बहनें मार्था और मरियम असहाय थी, उसी प्रकार शिष्य भी इस परिस्थिती में असहाय थे। परन्तु येसु के लिए इस समय पाँच रोटियों और दो मछलियों का छोटा सा योगदान पर्याप्त था। हमारे ख्रीस्तीय जीवन की परिभाषा ही है कि हम अपने लिए नहीं बल्कि दूसरों के लिए जीते हैं। इसलिए हमें अपनी ओर से जो कुछ भी हो सके योगदान करने की आवश्यकता है। उसने हम सभी को दूसरों की देखभाल के इस कार्य में भाग लेने के लिए आमंत्रित किया अपने शिष्यों की तरह वह भी चाहते हैं कि उनके मिशन के लिए हमारा हाथ आगे बढ़े।

- ब्रदर नमित तिग्गा (भोपाल महाधर्मप्रान्त)


📚 REFLECTION

The Gospel of the day invites us to ponder over the incident of the multiplication of the loaves. This event of feeding is not new in the Bible. When the Israelites cried to Moses in Exodus Chapter 16, God rained down manna from heaven. They were given quail meat and when they were thirsty they were given water from the rock. God provided for them generously to satisfy their needs. God never grows tired of caring for the needy. As psalmist asked in Psalm 78: 19, “Can God spread a table in the wilderness? Yes he can. That is what we heard in the Gospel today. Here we see a meeting of the compassion of God and the need of the people. There is a meeting of the power of God and the helplessness of the disciples. People were desperately in need of food and they are fulfilled. Martha and Mary were helpless when Lazarus died. So also disciples were helpless. But Jesus has control over all the situations. The little contribution of five loaves and two fish was enough for him. So what we need is to contribute from our side whatever we can. He invites all of us to share in this act of caring for others. As he took the help of his disciples so also he wants our helping hand to be extended for his mission.

-Bro. Namit Tigga (Bhopal Archdiocese)

📚 मनन-चिंतन - 2

योहन बपतिस्ता के सिर काटने की कहानी के बाद पांच हजार लोगों को खिलाने की कहानी है, जिसे हम आज के सुसमाचार में पढ़ते हैं। हेरोद के जन्मदिवस की भोज और येसु द्वारा पाँच हज़ार लोगों को प्रदान किए जाने वाले भोजन के बीच कितना अंतर है। भव्य रात्रिभोज, हेरोद की भोज की विशेषता है, लेकिन रोटी से येसु का भोजन, जीवन की मूलभूत आवश्यकता है । हेरोद की भोज की विशेषता घृणा से है, येसु का भोजन करुणा से है। हेरोद की भोज मृत्यु में समाप्त होती है, येसु का भोजन जीवन का निर्वाह करता है। रोटी का चमत्कार एक करुणा की कहानी है। यह एक प्रचुरता की कहानी है जिसमें ईश्वर प्रदाता है। यह एक यूखरीस्तिय कहानी है जिसमें प्रभु भोज के अधिस्वर शामिल हैं। इस कहानी में सबसे खास बात यह है कि येसु ने अपने शिष्यों से कहा कि उन्हें भूखी भीड़ को खाना खिलाना चाहिए। हमारा प्रारंभिक बिंदु यह नहीं है कि हमारे संसाधन क्या हैं, बल्कि यह है कि आवश्यकता क्या है। हमें उन आवश्यकताओंको को पूरा करने की इच्छा रखने की जरूरत है।

- फादर संजय कुजूर एस.वी.डी.


📚 REFLECTION

The story of the beheading of John the Baptist is followed by the story of the feeding of the five thousand which we read in today’s gospel. What a contrast between Herod’s gruesome dinner party and the meal that Jesus provides for the five thousand. Herod’s party is characterized by lavish dinner but Jesus’ meal by bread, the most basic of foods. Herod’s party is characterized by hatred, Jesus’ meal by compassion. Herod’s party ends in death, Jesus’ meal sustains life. The Feeding of the Five Thousand is a compassion story. It is an abundance story in which God is the provider. It is a Eucharistic story with its overtones of the Lord’s Supper. What stands out in this story is that Jesus told his disciples that they should feed the crowd. Our starting point is not to be what our resources are, but rather what the need is. We need to have a willingness to meet those needs.

-Fr. Snjay Kujur SVD

📚 मनन-चिंतन - 3

आज हम इस पर मनन-चिंतन करते हैं कि किस तरह प्रभु येसु जो कुछ पल अकेले रहकर प्रार्थना करना चाहते थे, और बाद में अपने शिष्यों के साथ होना चाहते थे, लेकिन वे देखते हैं कि उनके शिष्य उनसे दूर जा चुके है और उनकी नाव लहरों में हिचकोले खा रही है। प्रभु येशु शिष्यों के डर और संघर्ष को महसूस कर सकते थे। उन्हें मालूम था कि भले ही शिष्यों ने उन्हें नहीं पुकारा लेकिन उन्हें जाकर उनके साथ रहना है, इतना ही उन्हें पर्याप्त साहस प्रदान करेगा। कभी-कभी जब हम अपने जीवन की चुनौतियों और कठिन परिस्थितियों में फँस जाते हैं तो प्रभु येसु की उपस्थिति मात्र से ही सारे संकट दूर हो जाएँगे, प्रभु येसु को कोई चमत्कार करने की ज़रूरत नहीं है, बस उनका हमारे साथ रहना ही काफ़ी है।

सबसे बढ़कर अच्छी बात तो यह है कि हम तक पहुँचने के लिए प्रभु येसु किसी बाधा को पार करने के लिए तैयार हैं, उन्हें कुछ भी नहीं रोक सकता है क्योंकि उनकी दृष्टि हमारी ओर लगी हुई है, उसके लिए हम मूल्यवान हैं। लेकिन सबसे बड़ा प्रश्न तो यह है कि हमारी दृष्टि किसकी ओर है, प्रभु की ओर या कहीं और? क्या हमारा ध्यान प्रभु येसु पर है या हमारे खुद के जीवन पर, खुद की परेशानियों और चिंताओं पर, हमारे डर और चुनौतियों पर? यदि ऐसा है तो हम भी सन्त पेत्रुस की तरह प्रभु येसु की तरफ़ बढ़ नहीं पाएँगे, बल्कि अगर हमारा ध्यान प्रभु येसु से हटा तो डूबने का भी ख़तरा बना रहेगा। आइए हम प्रभु येसु से सदा हमारे साथ रहने की कृपा माँगे और हमारे दिन-प्रतिदिन के जीवन में अपना ध्यान प्रभु पर लगाएँ। आमेन।

- फादर जॉन्सन बी. मरिया (ग्वालियर धर्मप्रान्त)


📚 REFLECTION

Today we see Jesus who went alone to pray, wanted to join the disciples, but they were away from the shore and the boat was being tossed by waves, the wind was against them. Jesus could feel the anguish and struggle of the disciples. He knew that even if they had not called him, he had to be with them, that would give them relief. Sometimes when we are amidst the problems and difficulties of our lives, mere presence of Jesus, can put them away, he need not do anything, just be with us and everything will be all right.

And we know that to reach to us he can cross all boundaries, nothing can stop him, because his focus is on us, we are precious to him. But the real question is where is our focus? Is our focus Jesus or our own life, our own fears, worries and problems? If so then we may not be able to walk like Peter and may even get drowned if we take away our focus from Jesus. Let us ask Jesus to always be with us and give us grace to always look to him in all our affairs of daily life. Amen.

-Fr. Johnson B.Maria (Gwalior)