5) धिक्कार अस्सूर को! वह मेरे क्रोध की छड़ी है, मेरे कोप का डण्ड़ा है।
6) मैं उसे एक विधर्मी देश के विरुद्ध भेजता हूँ। जिस राष्ट्र पर मेरा क्रोध भड़क उठा था, मैं उसे लूटने और उजाड़ने, उसे कूड़े की तरह रौंदने के लिए अस्सूर को भेजता हूँ।
7) किन्तु वह ऐसा नहीं समझता और मनमानी करता है। वह सर्वनाश करना चाहता और असंख्य राष्ट्रों को मिटा देना चाहता है।
13) क्योंकि उसने कहा, ’मैंने अपनी शक्ति, अपनी बुद्धि और अपनी चतुरता से ऐसा किया है। मैंने राष्ट्रों के सीमान्त मिटाये, उनकी सम्पत्ति लूटी और राजाओं को बलपूर्वक उनके सिंहासनों से गिरा दिया।
14) जिस तरह लोग परित्यक्त नीड़ से अण्डे निकालते हैं, उसी तरह मैंने राष्ट्रों की सम्पत्ति हथिया ली हैं। मैंने सारी पृथ्वी को अपने अधिकार में किया। किसी ने पंख तक नहीं फड़फड़ाया या चोंच खोलकर चीं-चीं तक नहीं की’।“
15) क्या कुल्हाड़ी अपने चलाने वाले के सामने डींग मारती है? क्या आरा अपने को अराकश से बड़ा मानता है? क्या डण्डा अपने चलाने वाले को चला सकता है या लाठी उसे उठा सकती है, जो लकड़ी नहीं है?
16) इसलिए विश्वमण्डल का प्रभु-ईश्वर अस्सूर के हृष्ट-पुष्ट लोगों में रोग भेजेगा और ज्वर, प्रज्वलित अग्नि की तरह, उनका शरीर गलायेगा।
25) उस समय ईसा ने कहा, ’’पिता! स्वर्ग और पृथ्वी के प्रभु! मैं तेरी स्तुति करता हूँ; क्योंकि तूने इन सब बातों को ज्ञानियों और समझदारों से छिपा कर निरे बच्चों पर प्रकट किया है।
26) हाँ, पिता! यही तुझे अच्छा लगा।
27) मेरे पिता ने मुझे सब कुछ सौंपा है। पिता को छोड़ कर कोई भी पुत्र को नहीं जानता। इसी तरह पिता को कोई भी नहीं जानता, केवल पुत्र जानता है और वही, जिस पर पुत्र उसे प्रकट करने की कृपा करे।
येसु का जीवन क्या है? यह सादगी, प्रार्थना और विनम्रता का जीवन है। सरलता विनम्रता का पर्याय है और यही येसु का जीवन है, यही हमारा जीवन भी होना चाहिए। येसु भले ही वह ईश्वर के बराबर था। येसु को हमेशा पिता से नियमित रूप से प्रार्थना करने का भी समय मिलाः उसके साथ संवाद करने के लिए, उसके प्रति बोझ कम करने और उसकी स्तुति करने के लिए। यह हमें भी करना चाहिए। यह बहुत महत्वपूर्ण है कि हम ईश्वर के लिए उससे बात करने और अपने हृदय और मन की शांति में उसकी उपस्थिति को महसूस करने के लिए समय आरक्षित करें। इससे ईश्वर के साथ हमारा बंधन मज़बूत होगा। शुरुआत करने का एक अच्छा बिंदु हर सुबह उठने के बाद प्रार्थना करना है। क्या आप विनम्रता से जीते हैं और क्या आप हमेशा येसु के लिए समय निकालते हैं?
✍ - फादर अल्फ्रेड डिसूजा (भोपाल महाधर्मप्रान्त)
What is the life of Jesus? It’s a life of simplicity, prayer and humility. Simplicity is synonymous with humility and this is the life of Jesus, this ought to be our life too. Jesus even if He was equal with God. Jesus always found time also to pray regularly to the Father: To communicate with Him, unburden to Him and praise Him. This we ought to do also. It is very important that we reserve time for God to talk to Him and feel His presence in the stillness of our hearts and minds. This will strengthen our bond with God. A good point to start is to have a prayer time every morning upon waking up. Do you live humility and do you always find time for Jesus?
✍ -Fr. Alfred D’Souza (Bhopal Archdiocese)
बच्चों के समान
येसु बौध्दि अभिमान और गौरव की तुलना बच्चे जैसे सादगी और नम्रता से करते है। वे एक ही चीज की तलाश करते हैं- ‘‘सबसे अच्छा’’- जो स्वयं ईश्वर है। हृदय की सरलता गुणों की रानी नम्रता से जुड़ी होती हैं, क्योंकि विनम्रता हृदय को अनुग्रह और सत्य की ओर ले जाती है। जिस प्रकार अभिमान हर पाप और बुराई की जड़ हैं, उसी भाँति नम्रता ही एकमात्र ऐसी भूमि है जिसमें ईश्वर की कृपा निहित हो सकती हैं। प्रभु घमण्डियों को नीचा दिखाता और दीनों को अपना कृपापात्र बना लेता है। सूक्ति ग्रंथ 3ः34 प्रभु मुझे बालकों के समान सरलता और विश्वास की पवित्रता प्रदान करें ताकि आपके चेहरे पर खुशी और विश्वास के साथ आपके सर्वदयालु प्रेम को निहार सकूँ।
✍ - फादर अल्फ्रेड डिसूजा
Being Childlike
Jesus contrasts intellectual pride with child-like simplicity and humility. The simple of heart are like "babes" in the sense that they see purely without pretense and acknowledge their dependence and trust in the one who is greater, wiser, and more trustworthy. They seek one thing — the "summum bonum" or "greatest good" - who is God Himself. Simplicity of heart is wedded with humility, the queen of virtues, because humility inclines the heart towards grace and truth. Just as pride is the root of every sin and evil, so humility is the only soil in which the grace of God can take root. It alone takes the right attitude before God. He opposes the proud, but gives grace to the humble (Proverbs 3:34; James 4:6). Lord, give me child-like simplicity and purity of faith to gaze upon your face with joy and confidence in your all-merciful love.
✍ -Fr. Alfred D’Souza
काथलिक कलीसिया की धर्मशिक्षा (CCC 27) हमें सिखाती है, “ईश्वर की इच्छा मानव हृदय में लिखी गई है, क्योंकि मनुष्य ईश्वर द्वारा और ईश्वर के लिए बनाया गया है; और ईश्वर मनुष्य को निरंतर अपनी ओर आकर्षित करते रहते हैं। केवल ईश्वर में ही वह सत्य और खुशी पाएगा जिसे वह हमेशा खोजता रहता है। प्रार्थना, अनुष्ठान, ध्यान इत्यादि इसी खोज की ही अभिव्यक्ति है। संत पौलुस कहते हैं, "उसने एक ही मूलपुरुष से मानव जाति के सब राष्ट्रों की सृष्टि की और उन्हें सारी पृथ्वी पर बसाया। उसने उनके इतिहास के युग और उनके क्षेत्रों के सीमान्त निर्धारित किये। यह इसलिए हुआ कि मनुष्य ईश्वर का अनुसन्धान सकें और उसे खोजते हुए सम्भवतः उसे प्राप्त करें, यद्यपि वास्तव में वह हम में से किसी से भी दूर नहीं है; क्योंकि उसी में हमारा जीवन, हमारी गति तथा हमारा अस्तित्व निहित है।” (प्रेरित-चरित 17: 26-28)। इब्रानियों के पत्र में हम पढ़ते हैं, “प्राचीन काल में ईश्वर बारम्बार और विविध रूपों में हमारे पुरखों से नबियों द्वारा बोला था। अब अन्त में वह हम से पुत्र द्वारा बोला है।" (इब्रानियों 1: 1-2)। सुसमाचार प्रभु येसु को ईश्वर के सबसे बड़े रहस्योद्घाटन के रूप में प्रस्तुत करता है। वे ईश्वर का मानव रूप हैं। वे मानवीय तरीके से ईश्वर को प्रकट करते हैं। पुराने विधान में हम पाते हैं कि ईश्वर स्वयं को ईश्वरीय तरीकों से प्रकट करते थे और लोग उनके निकट आने से डरते थे। नये विधान में "ईश्वर-हमारे साथ" है। हमें उन्हें बच्चों जैसी मासूमियत और उत्सुकता के साथ संपर्क करने की जरूरत है।
✍ -फादर फ्रांसिस स्करिया
The Catechism of the Catholic Church (no.27) teaches us, “The desire for God is written in the human heart, because man is created by God and for God; and God never ceases to draw man to himself. Only in God will he find the truth and happiness he never stops searching for”. There is a quest in man for God which finds its expression in prayers, rituals, meditations and so forth. St. Paul says, “From one ancestor he made all nations to inhabit the whole earth, and he allotted the times of their existence and the boundaries of the places where they would live, so that they would search for God and perhaps grope for him and find him—though indeed he is not far from each one of us. For ‘In him we live and move and have our being’” (Act 17:26-28). In the Letter to the Hebrews we read, “Long ago God spoke to our ancestors in many and various ways by the prophets, but in these last days he has spoken to us by a Son” (Heb 1:1-2). The Gospel presents Jesus as the greatest revelation of God. He is God in human form. He reveals God in a human way. In the Old Testament we find God revealing himself in divine ways and people were afraid to come near him. In the New Testament we have the “God-with-us”. We need to approach him with childlike innocence and eagerness.
✍ -Fr. Francis Scaria