जुलाई 11, 2024, गुरुवार

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वर्ष का चौदहवाँ सामान्य सप्ताह

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📒 पहला पाठ : होशेआ का ग्रन्थ 11:1-4,8c-9,12

1) इस्राएल जब बालक था, तो मैं उसे प्यार करता था और मैंने मिस्र देश से अपने पुत्र को बुलाया।

2) मैं उन लोगों को जितना अधिक बुलाता था, वे मुझ से उतना ही अधिक दूर होते जाते थे। वे बाल-देवताओं को बलि चढाते और अपनी मूर्तियों के सामने धूप जलाते थे।

3) मैंने एफ्राईम को चलना सिखाया। मैं उन्हें गोद में उठाय करता था, किन्तु वे नहीं समझे कि मैं उनकी देखरेख करता था।

4) मैं उन्हें दया तथा प्रेम की बागडोर से टहलाता था। जिस तरह कोई बच्चे को उठा कर गले लगाता है, उसी तरह मैं भी उनके साथ व्यवहार करता था। मैं झुक कर उन्हें भोजन दिया करता था।

8) मेरा हृदय यह नहीं मानता, मुझ में दया उमड आती है।

9) मैं अपना क्रोध भडकने नहीं दूँगा, मैं फिर एफ्राईम का विनाश नहीं करूँगा, क्योंकि मैं मनुय नहीं, ईश्वर हूँ। मैं तुम्हारे बीच परमपावन प्रभु हूँ- मुझे विनाश करने से घृणा है।

📒 सुसमाचार : सन्त मत्ती का सुसमाचार 10:7-15

7) राह चलते यह उपदेश दिया करो- स्वर्ग का राज्य निकट आ गया है।

8) रोगियों को चंगा करो, मुरदों को जिलाआ, कोढि़यों को शुद्ध करो, नरकदूतों को निकालो। तुम्हें मुफ़्त में मिला है, मुफ़्त में दे दो।

9) अपने फेंटे में सोना, चाँदी या पैसा नहीं रखो।

10) रास्ते के लिए न झोली, न दो कुरते, न जूते, न लाठी ले जाओ; क्योंकि मज़दूर को भोजन का अधिकार है।

11) ’’किसी नगर या गाँव में पहुँचने पर एक सम्मानित व्यक्ति का पता लगा लो और नगर से विदा होने तक उसी के यहाँ ठहरो।

12) उस घर में प्रवेश करते समय उसे शांति की आशिष दो।

13) यदि वह घर योग्य होगा, तो तुम्हारी शान्ति उस पर उतरेगी। यदि वह घर योग्य नहीं होगा, तो तुम्हारी शान्ति तुम्हारे पास लौट आयेगी।

14) यदि कोई तुम्हारा स्वागत न करे और तुम्हारी बातें न सुने तो उस घर या उस नगर से निकलने पर अपने पैरों की धूल झाड़ दो।

15) मैं तुम से यह कहता हूँ- न्याय के दिन उस नगर की दशा की अपेक्षा सोदोम और गोमोरा की दशा कहीं अधिक सहनीय होगी।

📚 मनन-चिंतन

येसु का हमारे लिए भी वही निर्देश है कि हम उसके कार्यों को आगे बढ़एँ ; बीमारों को चंगा करंे, मुर्दों को जिलाएँ, कोढ़ियों को शुद्ध करंे, दुष्टात्माओं को निकालें। दूसरे शब्दों में, येसु हमें दूसरों के जीवन में विशेष रूप से गरीबों के जीवन में बदलाव लाने के लिए कह रहे हैं। आइए हम स्वार्थी न हों, बल्कि उनकी जरूरतों के प्रति संवेदनशील हों, ऐसा करने से हम खुद को येसु के करीब लाते हैं। क्या हम इस दुनिया में येसु के मिशन को पूरा करने के लिए तैयार हैं? आइए हम येसु के निर्देशों का पालन करने से न डरें क्योंकि यह स्वर्ग में उनके अनंत राज्य के लिए पहले से ही हमारे लिए एक पुरस्कार है जो निश्चित रूप से किसी दिन हमारे पास आएगा। यदि आपके पास इस संसार की सारी भौतिक संपत्ति है फिर भी आपके हृदय में येसु की शांति नहीं है तो आप क्या प्राप्त करेंगे?

- फादर अल्फ्रेड डिसूजा (भोपाल महाधर्मप्रान्त)


📚 REFLECTION

The instruction of Jesus for the apostles is HIS marching order for us as well; Cure the sick, raise the dead, cleanse the lepers, drive out demons. In other words Jesus is telling us to make a difference in the lives of others most especially the poor. Let us not be selfish, let us rather be sensitive to their needs for in doing so we bring ourselves closer to Jesus. Would we gain financial windfall for doing Jesus mission in this world? No we will not but let us not be afraid to follow the instruction of Jesus for it’s already a prelude for us for HIS eternal kingdom in heaven which will certainly come to us someday. What will you gain if you have all the material wealth in this world yet you don't have the peace of Jesus in your heart?

-Fr. Alfred D’Souza (Bhopal Archdiocese)

📚 मनन-चिंतन - 2

सुसमाचार का मूल्य

येसु ने अपने शिष्यों को दो प्रकार की आज्ञा दी उसके नाम से बोलना और उसकी शक्ति से कार्य करना। सुसमाचार संदेश का मूल काफी सरल है- ईश्वर का राज्य निकट है। ईश्वर का राज्य क्या हैं? यह उन पुरूषों और महिलाओं का समाज हैं जो ईश्वर के प्रति समर्पित हैं और उन्हें अपना राजा और ईश्वर के रूप में सम्मानित करते हैं। उन्होंने जो कुछ येसु से प्राप्त किया था उन्हें बिना किसी प्रतिफल की अपेक्षा के दूसरों को देना चाहिये। उन्हें अपने दृष्टिकोण से दिखाना चाहिए कि, उनकी प्राथमिकता सर्वप्रथम ईश्वर है ना कि, भौतिक लाभ। येसु के शिष्य होने के नाते हमारी प्राथमिकताऐं क्या है? हम किसे अपने जीवन में ज्यादा महत्व देते हैं- संसार को या ईश्वर को?

- फादर अल्फ्रेड डिसूजा


📚 REFLECTION

The Cost of the Gospel

Jesus gave his disciples a two-fold commission: to speak in his name and to act with his power. The core of the gospel message is quite simple: the kingdom (or reign) of God is imminent! What is the kingdom of God? It is that society of men and women who submit to God and who honour Him as their King and Lord. What they had received from Jesus they must pass on to others without expecting remuneration. They must show by their attitude that their first interest is God, not material gain. They must serve without guile, full of charity, peace, and simplicity. The worker of God must not be overly-concerned with material things, but the people of God must never fail in their duty to give the worker of God what he needs to sustain. Do you pray for the work of the Gospel and support it with your material resources?

-Fr. Alfred D’Souza

📚 मनन-चिंतन - 3

ईश्वर केवल इस ब्रह्मांड का निर्माता और निर्वाहक नहीं है। वे केवल दार्शनिकों का मूलस्रोत भी नहीं है। वे हमारे पिता हैं। वे हमारे प्रति प्रेम के खातिर सब कुछ करते हैं। आदि में प्रेम था। हमारे गर्भधारण से पहले वे हमें जानते थे। हमारे जन्म लेने से पहले ही उन्होंने हमें बुलाया था। वास्तव में, हमारे प्रति प्रेम के कारण ही उन्होंने इस ब्रह्मांड की रचना की। अंत में उन्होंने अपनी सृष्टि के मुकुट के रूप में मानव को बनाया। तत्पश्चात उन्होंने नव निर्मित दुनिया की देखभाल के लिए उसे मानव को सौंपा। उनका प्रेम उस पर भी सीमित नहीं है। वे हमसे प्रेम करते रहते हैं। आज के पहले पाठ में प्रभु कहते हैं, "इस्राएल जब बालक था, तो मैं उसे प्यार करता था और मैंने मिस्र देश से अपने पुत्र को बुलाया। ... मैंने एफ्राईम को चलना सिखाया। मैं उन्हें गोद में उठाय करता था, किन्तु वे नहीं समझे कि मैं उनकी देखरेख करता था। मैं उन्हें दया तथा प्रेम की बागडोर से टहलाता था। जिस तरह कोई बच्चे को उठा कर गले लगाता है, उसी तरह मैं भी उनके साथ व्यवहार करता था। मैं झुक कर उन्हें भोजन दिया करता था। मेरा हृदय यह नहीं मानता, मुझ में दया उमड आती है।” इन वचनों का हर शब्द हमारे प्रति हमारे पिता के कोमल प्रेम को दर्शाता है। हमें उनकी आज्ञाओं का पालन उनके डर के कारण नहीं करना चाहिए, लेकिन उसका प्रेम हमें उनकी आज्ञाओं के पालन करने के लिए मजबूर करना चाहिए। संत पौलुस कहते हैं, "मसीह का प्रेम हमें प्रेरित करता है।" (2कुरिन्थियों 5:14)। अपने “पाप-स्वीकरण” (Confessions) में संत अगस्तीन ने कबूल किया, "हे अति पुरातन तथा नवीनतम सुन्दरता, देर से ही मैंने तुझ से प्रेम किया। तू मेरे भीतर ही था, लेकिन मैं बाहरी दुनिया में तुझे खोज रहा था। मेरे प्रेम रहित अवस्था में मैं तेरे द्वारा निर्मित वस्तुओं में लीन था। तू मेरे साथ था, परन्तु मैं तेरे साथ नहीं था।“ हम में हरेक व्यक्ति को स्वयं से पूछना चाहिए : क्या मैंने अपने पिता के प्रेम की खोज की है?

-फादर फ्रांसिस स्करिया


📚 REFLECTION

God is not just the creator and sustainer of the Universe. He is not merely the absolute Absolute or the unmoved mover of the philosophers. More anything else, he is our Father. He does everything out of love for us. In the beginning was love. He knew us before we were conceived. He called us before we were born. In fact, it is out of love for us that he created the universe and all that is within it. Finally he created the human beings as the crown of his creation. He then entrusted the created world to the care of the human beings. His love does not cease at that. He continues to love us. In today’s first reading the Lord says, “When Israel was a child, I loved him, and out of Egypt I called my son. … it was I who taught Ephraim to walk, I took them up in my arms; but they did not know that I healed them. I led them with cords of human kindness, with bands of love. I was to them like those who lift infants to their cheeks. I bent down to them and fed them.” Every word reflects the tender love of the Heavenly Father for us. It is not out of fear, that we should obey God, but his love should compel us to do what he wills. St. Paul says, “the love of Christ urges us on” (2Cor 5:14). In his Confessions St. Augustine confessed, “Late have I loved you, beauty so old and so new: late have I loved you. And see, you were within and I was in the external world and sought you there, and in my unlovely state I plunged into those lovely created things which you made. You were with me, and I was not with you.” I need to ask myself : Have I discovered the love of my Father?

-Fr. Francis Scaria