1) इस्राएल फैलने वाली दाखलता के सदृश है, जिस में बहुत-से फल लगते हैं। वह फलों की बढती हुई संख्या के अनुरूप अपनी वेदियों की संख्या भी बढाता रहता है। वह अपने देश की समृद्धि के अनुरूप अपने पूजा-स्तम्भ अलंकृत करता है।
2) उन लोगों का हृदय कपटपूर्ण है, इसलिए उन्हें अपने पापों का फल भोगना पडेगा। वह स्वयं उनकी वेदियाँ नष्ट करेगा। और उनके पूजा-स्तम्भ गिरा देगा।
3) तब वे कहेंगे, ’’हमारा कोई राजा नहीं है; क्योंकि जब हम प्रभु पर श्रद्धा नहीं रखते हैं, तो राजा हमारे लिए क्या कर सकता है?’’
7) समारिया का राजा पानी के फेन की तरह लुप्त हो गया है।
8) आवेन के पहाडी पूजास्थान नष्ट किये गये, जहाँ इस्राएल पाप करता था उनकी वेदियों पर काँटे और ऊँटकटारे उगेंगे। तब लोग पहाडों से कहने लगेंगे, ’’हमें ढक लो’’ और पहाडियों से, ’’हम पर गिर पडो’’।
12) तुम धार्मिकता बोओ, तो भक्ति लुनोगे। अपनी परती भूमि जोतो, क्योंकि समय आ गया है। प्रभु को तब तक खोजते रहो, जब तक वह आ कर धार्मिकता न बरसाये।
1) ईसा ने अपने बारह शिष्यों को अपने पास बुला कर उन्हें अशुद्ध आत्माओं को निकालने तथा हर तरह की बीमारी और दुर्बलता दूर करने का अधिकार प्रदान किया।
2) बारह प्रेरितों के नाम इस प्रकार हैं- पहला, सिमोन, जो पेत्रुस कहलाता है, और उसका भाई अन्द्रेयस; जेबेदी का पुत्र याकूब और उसका भाई योहन;
3) फिलिप और बरथोलोमी; थोमस और नाकेदार मत्ती; अलफ़ाई का पुत्र याकुब और थद्देयुस;
4) सिमोन कनानी और यूदस इसकारियोती, जिसने ईसा को पकड़वाया।
5) ईसा ने इन बारहों को यह अनुदेश दे कर भेजा, ’’अन्य राष्ट्रों के यहाँ मत जाओ और समारियों के नगरों में प्रवेश मत करो,
6) बल्कि इस्राएल के घराने की खोयी हुई भेड़ों के यहाँ जाओ।
7) राह चलते यह उपदेश दिया करो- स्वर्ग का राज्य निकट आ गया है।
हम प्रभावी ढंग से कैसे प्रचार कर सकते हैं? हमें अपने शब्दों और कर्मों में हमेशा येसु के साथ जुड़े रहना चाहिए। यदि हम केवल येसु की शिक्षाओं का प्रचार करते हैं और इसे नहीं जीते हैं तो हम कभी भी येसु की शिक्षाओं के प्रचारक नहीं बन सकते है। येसु के साथ विश्वासघात करने वाले यूदस को छोड़कर, अन्य ग्यारह प्रेरित येसु की शिक्षाओं के प्रभावी संदेशवाहक थे। साधारण कारण से कि उन्होंने इसका प्रचार किया, उन्होंने इसे जिया और यहाँ तक कि इसके लिए अपनी जान तक दे दी। येसु न तो भेदभाव करने वाला ईश्वर है और न ही निंदा करने वाला ईश्वर, वह प्रेम, दया और करुणा का ईश्वर है। इसलिए वह हम सभी को अपने पापमय जीवन से मुड़ने और उसके अनुयायी बनने के लिए बुलाता है। आप कह सकते हैं कि आप येसु के शिष्य कहलाने के योग्य नहीं हैं, लेकिन कौन योग्य है? कोई नहीं क्योंकि हम सब पापी हैं येसु जो चाहता है वह उसको अपनी बुलाहट के प्रति आर्कषित करता है।
✍ - फादर अल्फ्रेड डिसूजा (भोपाल महाधर्मप्रान्त)
How can we effectively evangelize? We must always be connected with Jesus in our words and deeds. We can never be effective evangelizers of Jesus' teachings if we only preach it and not live it. Except for Judas who betrayed Jesus, the other eleven apostles were effective messengers of Jesus’ teachings. For the simple reason that they preached it, they lived it and even gave their lives for it. Jesus is neither a discriminating God nor a condemning God, He is a God of love, mercy and compassion. He therefore calls us to turn our backs from our sinful lives and become His followers that will help Him advance the good news of His love and compassion. You may say that you are not worthy to be called, but who is worthy? Nobody because we are all sinners what Jesus is after is your yes to His call.
✍ -Fr. Alfred D’Souza (Bhopal Archdiocese)
चमत्कार और विश्वास
येसु अपने प्रेरितों को एक पवित्र अधिकार देते हैं। उन्होंने और उनके प्रेरितों ने जो चमत्कार किये वो स्पष्ट रूप से शक्ति और ईश्वरीय उपस्थिति के शक्तिशाली चिन्ह थे। इन चमत्कारों ने प्रेरितों के प्रचार को अधिक विश्वसनीय बनाने और कई आत्माओं को ईश्वर के पास वापस लाने में मदद की। धीरे-धीरे चमत्कारों के बिना विश्वासियों का व्यक्तिगत् जीवन और साक्ष्य सुसमाचार के प्रचार-प्रसार के लिए पर्याप्त थे। शहादत और विश्वास के महान कार्य ईश्वर की सच्ची उपस्थिति के संकेत बन गये। हमें उस पर विश्वास करना और उसका अनुसरण करना इसलिए नहीं चाहिये क्योंकि वह में अच्छा महसूस कराता है बल्कि इसलिए कि, उससे प्यार करना और उसकी सेवा करना अच्छा और उचित है।
✍ - फादर अल्फ्रेड डिसूजा
Miracles and Faith
Jesus gives his Apostles a sacred authority. One reason for this is that Jesus made a statement in the beginning to set things in motion. The miracles he did and those of his Apostles were powerful signs of power and presence of God. These miracles helped the preaching of the Apostles to be more credible and bring forth many souls to God. Gradually the personal lives and witness of believers were sufficient to spread the Gospel without the help of numerous miracles. Martyrdom and acts of great faith became the true signs of God’s presence. We should believe and follow Him not because He makes us feel good, but because it is good and right to love and serve Him. This can be a difficult lesson to learn but an essential one to be a true and genuine disciple of Christ.
✍ -Fr. Alfred D’Souza
प्रभु येसु चाहते थे कि बारह का समूह सेवक-नेताओं का एक स्थिर समूह हो। येसु ने उन्हें चुना और बुलाया। यर्दन नदी में उनके बपतिस्मा के समय से स्वर्गारोहण के समय तक वे उनके साथ थे। येसु ने उन्हें ईश्वर के राज्य के बारे में शिक्षा दी। प्रभु ने उन्हें पृथ्वी के कोने-कोने तक सुसमाचार का प्रचार करने के लिए उन्हें नियुक्त किया और यह कार्य करने के लिए उन्हें सामर्थ्य और अधिकार दे दिये। येसु ने अपने सार्वजनिक जीवन के दौरान उन्हें दो-दो करके गाँव-गाँव, शहर-शहर भेजा, तकि उनके रहते ही वे इस कार्य को परखें और अच्छा अनुभव पायें। उन्हें तब तक यरूशलेम में रहने का आदेश दिया गया था जब तक कि उन पर पवित्र आत्मा का आगमन न हो। पवित्र आत्मा द्वारा अभिषिक्त होने के बाद ही वे ईश्वर के राज्य की घोषणा के लिए सक्षम बने। चेलों ने इस बात को समझा कि येसु के लिए संख्या 12 महत्वपूर्ण थी। इसलिए उन्होने विश्वासी समुदाय को विश्वासघाती यूदस की जगह लेने हेतु किसी व्यक्ति को चुनने को बाध्य किया । इस प्रकार मथियस को ग्यारह में जोड़ा गया।
हम सभी लोगों ने अपने जीवन में ईश्वर से एक विशिष्ट बुलाहट पायी है। हमारे जन्म से पहले ही, हमारी माँ के गर्भ में बनने से पहले ही एक विशिष्ट योजना के लिए हम प्रभु द्वारा अलग किये गए थे। हमारे लिए यह आवश्यक है कि हम अपने प्रभु और गुरु द्वारा बताए गए मार्ग की खोज करें और उसमें प्रभु ईश्वर पर भरोसा रखते हुए तथा कड़ी मेहनत करते हुए आगे बढ़ें। फिर हम संत पौलुस की तरह कह सकेंगे, " मैं अच्छी लड़ाई लड़ चुका हूँ, अपनी दौड़ पूरी कर चुका हूँ और पूर्ण रूप से ईमानदार रहा हूँ। अब मेरे लिए धार्मिकता का वह मुकुट तैयार है, जिसे न्यायी विचारपति प्रभु मुझे उस दिन प्रदान करेंगे - मुझ को ही नहीं, बल्कि उन सब को, जिन्होंने प्रेम के साथ उनके प्रकट होने के दिन की प्रतीक्षा की है।" (2तिमथी 4: 7-8)। संयोग से कुछ भी नहीं होता है। हर कार्य में एक चुनाव या तरजीह शामिल है। प्रभु ईश्वर चुनते हैं; फिर भी वे हमारी स्वतंत्रता का सम्मान करते हैं। जब हम ईश्वर की पसंद को समझेंगे और सकारात्मक प्रतिक्रिया देंगे, तभी हमारे जीवन में ईश्वर की योजना पूरी होगी। प्रभु हमें अपनी रोजमर्रा की जिंदगी में उनकी इच्छा को समझने में मदद करें।
✍ -फादर फ्रांसिस स्करिया
Jesus wanted the college of the twelve to be a stable group of servant-leaders. They were chosen and called by Jesus. They were with Jesus from the time of his Baptism in the River Jordan to that of his Ascension. Jesus taught them about the Kingdom of God. They were given power and authority to preach the Good News to the ends of the earth. They were sent in pairs to try out their ministry during the public ministry of Jesus. They were ordered to remain in Jerusalem until they were anointed by the Holy Spirit. Only after being anointed by the Holy Spirit they were to set out for proclamation of the Kingdom of God. The disciples understood the number 12 to be important to Jesus. Hence to fill the gap of Judas the traitor, they asked the people to elect someone to take his place. Matthias was thus added to the eleven.
All of us have a specific vocation in life. Even before our birth, even before we were formed in the womb of our mother we were set apart by God for a specific plan. It is essential for us to discover that path marked out for us by our Lord and Master and walk in it trusting in God and doing hard work. Then we can say like St. Paul, “I have fought the good fight, I have finished the race, I have kept the faith” (2Tim 4:7). Nothing happens by chance. There is a choice involved. God makes a choice; yet he respects our freedom. When we discern the choice of God and respond positively, there will be fulfillment of the plan of God in our lives. May the Lord help us to discern his will in our everyday life.
✍ -Fr. Francis Scaria