2) आत्मा ने मुझ में प्रवेश कर मुझे पैरों के पर खड़ा कर दिया और मैंने उसे मुझ से यह कहते सुना।
3) उसने मुझ से कहा, “मानवपुत्र! मैं तुम्हें इस्राएलियों के पास भेज रहा हूँ, उस विद्रेही राष्ट्र के पास, जो मेरे विरुद्ध में उठ खड़ा है। वे और उनके पुरखे आज तक मेरे विरुद्ध विद्रोह करते चले आ रहे हैं।
4) उनके पुत्र हठी हैं और उनका हृदय कठोर है। मैं तुम्हें उनके पास यह कहने भेज रहा हूँः ’प्रभु-ईश्वर यह कहता है’।
5) चाहे वे सुनें या सुनने से इनकार करें, क्योंकि वे विद्रोही प्रजा हैं- किन्तु वे जान जायेंगे कि उनके बीच एक नबी प्रकट हुआ है।
7) मुझ पर बहुत-सी असाधारण बातों का रहस्य प्रकट किया गया है। मैं इस पर घमण्ड न करूँ, इसलिए मेरे शरीर में एक काँटा चुभा दिया गया है। मुझे शैतान का दूत मिला है, ताकि वह मुझे घूंसे मारता रहे और मैं घमण्ड न करूँ।
8) मैंने तीन बार प्रभु से निवेदन किया कि यह मुझ से दूर हो;
9) किन्तु प्रभु ने कहा-मेरी कृपा तुम्हारे लिए पर्याप्त है, क्योंकि हमारी दुर्बलता में मेरा सामर्थ्य पूर्ण रूप से प्रकट होता है।
10) इसलिए मैं बड़ी खुशी से अपनी दुर्बलताओं पर गौरव करूँगा, जिससे मसीह की सामर्थ्य मुझ पर छाया रहे। मैं मसीह के कारण अपनी दुर्बलताओं पर, अपमानों, कष्टों, अत्याचारों और संकटों पर गर्व करता हूँ; क्योंकि मैं जब दुर्बल हूँ, तभी बलवान् हूँ।
1) वहाँ से विदा हो कर ईसा अपने शिष्यों के साथ अपने नगर आये।
2) जब विश्राम-दिवस आया, तो वे सभागृह में शिक्षा देने लगे। बहुत-से लोग सुन रहे थे और अचम्भे में पड़ कर कहते थे, ’’यह सब इसे कहाँ से मिला? यह कौन-सा ज्ञान है, जो इसे दिया गया है? यह जो महान् चमत्कार दिखाता है, वे क्या हैं?
3) क्या यह वही बढ़ई नहीं है- मरियम का बेटा, याकूब, यूसुफ़, यूदस और सिमोन का भाई? क्या इसकी बहनें हमारे ही बीच नहीं रहती?’’ और वे ईसा में विश्वास नहीं कर सके।
4) ईसा ने उन से कहा, ’’अपने नगर, अपने कुटुम्ब और अपने घर में नबी का आदर नहीं होता’।
5) वे वहाँ कोई चमत्कार नहीं कर सके। उन्होंने केवल थोड़े-से रोगियों पर हाथ रख कर उन्हें अच्छा किया।
6) उन लोगों के अविश्वास पर ईसा को बड़ा आश्चर्य हुआ।
आज के सुसमाचार में हम सुनते है कि- येसु अपने गृहनगर नाजरेत में लौटते के है, जिस के पूर्व उन्होनें तूफान को शांत किया और जैरूस की बेटी को मृतकों में से जीवित किया। इन शक्तिशाली संकेतों और आधिकारिक शिक्षा के बावजूद येसु ने अपने गृहनगर के आराधनालय में बताया, वहाँ के लोगों ने अभी भी अविश्वास व्यक्त किया। उनके विश्वास की कमी का मुख्य कारण येसु के साथ उनका घनिष्ठ परिचय था। वे इस बात की थाह नहीं ले सकते थे कि वे बढ़ई, मरियम का पुत्र, जिसे उन्होंने अपने बीच बड़े होते देखा था, वह इतना असाधारण भविष्यव्यक्ता और यहाँ तक कि मसीहा भी हो सकता है। ऐसा अक्सर होता है क्योंकि परिवार और करीबी दोस्तों के साथ भावनाएं बहुत अधिक होती हैं। येसु ने स्वयं अपने निकटतम लोगों के अलगाव का अनुभव किया। फिर भी, एजेंकिएल की तरह, हम सभी को ईश्वर के वचन को दूसरों के साथ साझा करने के लिए बुलाया गया है। ईश्वर आपको किसके साथ प्रेम में सच्चाई साझा करने के लिए आमंत्रित करते हैं?
✍ - फादर अल्फ्रेड डिसूजा (भोपाल महाधर्मप्रान्त)
In today’s gospel we hear about Jesus returning to His hometown of Nazareth after performing the magnificent miracles we have heard in recent weeks, including the calming of the storm and the raising of Jairus’ daughter from the dead. Despite these powerful signs and the authoritative teaching Jesus conveyed in His hometown’s synagogue, the people there still expressed disbelief. The main reason for their lack of faith was their close familiarity with Jesus. They could not fathom that the “carpenter, the son of Mary,” whom they had seen grow up in their midst could be such an extraordinary prophet and even the Messiah. This is often the case because emotions run high with family and close friends, especially if we disagree. Jesus Himself experienced the alienation of those closest to Him. Nevertheless, like Ezekiel, we are all called to share God’s word with others. Who is God calling you to share the truth in love with? Ask for the Holy Spirit to direct you in this and to provide opportunities for you to invite people to encounter Christ through your words and actions. Then step out in faith to witness to your faith in the world.
✍ -Fr. Alfred D’Souza (Bhopal Archdiocese)
आज सामान्य काल का चौदहवाँ रविवार है. आम तौर पर हम देखते हैं कि प्रभु येसु के समय के धर्मगुरु उनमें विश्वास नहीं कर सके बल्कि उन्हें अपने जाल में फंसाने और रास्ते से हटाने के नये-नये तरीके ढूंढते थे, क्योंकि वे ना तो पिता ईश्वर और ना ही प्रभु येसु को ठीक से जानते थे (योहन 8:19). वे तो धर्म के बड़े-बड़े जिम्मेदार लोग थे, लेकिन आज के सुसमाचार में हम देखते हैं कि उनके अपने पैतृक गाँव में उनके अपने लोग उन्हें अस्वीकार कर देते हैं. प्रभु येसु के लिए यह कोई नया नहीं था, वे जानते थे कि ये लोग उसी समाज का प्रतिनिधित्व करते हैं, जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी ईश्वर के करीब आये और अगले ही पल उनसे दूर हो गये. पहला पाठ हमें उनके इस स्वभाव की याद दिलाता है, “...वे और उनके पुरखे आज तक मेरे विरुद्ध विद्रोह करते चले आ रहे हैं.” (एज़ेकिएल 2:3).
पुराने व्यवस्थान से हम देखते आ रहे हैं कि जब भी ईश्वर ने अपने नबियों को भेजा, ज़्यादातर लोगों ने उनका विरोध किया, उन्हें अस्वीकार किया और यहाँ तक कि उन्होंने बहुत से नबियों को मार भी डाला. वह उन्होंने इसलिए किया क्योंकि वे उन नबियों को पहचान नहीं पाए थे, उनके द्वारा दिये गये ईश्वर के सन्देश को समझ नहीं पाए थे. इसलिए उन्होंने अपनी इस अज्ञानता की कीमत भी चुकाई, अपना ही विनाश करके. प्रभु येसु के समय भी कुछ ऐसा ही नज़ारा देखने को मिलता है, जब लोग उन्हें ठीक से नहीं समझ पाते, उन्हें गलत समझ लेते हैं, और उन्हें अस्वीकार कर देते हैं. वे उनकी ईश्वरता पर नहीं बल्कि उनकी मनुष्यता के आधार पर उन्हें स्वीकार नहीं कर पाते. वह मनुष्य स्वाभाव से परे नहीं जा पाते.
हमारा स्वभाव है कि हम किसी भी व्यक्ति को उसके बाहरी रंग-रूप से मूल्यांकन करते हैं और उनके बारे में अपनी राय बनाते हैं. नबी समुएल के पहले ग्रन्थ में प्रभु हमें याद दिलाते हैं, “... प्रभु मनुष्य की तरह विचार नहीं करता. मनुष्य तो बाहरी रूप-रंग देखता है, किन्तु प्रभु ह्रदय देखता है.” (1 समुएल 16:7). लोगों के मूल्यांकन करने के अपने इसी स्वभाव के कारण कई बार हम उनकी अच्छाइयों और गुणों को नज़र अंदाज कर उनकी कमियों और बुराइयों पर अपना ध्यान केन्द्रित करने लगते हैं, और इसके कारण कई बार हम उस व्यक्ति की वास्तविकता नहीं जान पाते और उन्हें नकार देते हैं. हम अपनी सीमित सोच के कारण किसी व्यक्ति का चरित्र हरण कर देते हैं, उनके व्यक्तित्व को, उनके अस्तित्व को नकार देते हैं. दूसरों के बारे में हमें अपने विचार ईश्वर के विचार जैसे बनाने हैं.
ईश्वर सभी को बिना किसी भेद-भाव के स्वीकार करते हैं. वे हमारी हर कमजोरी और बुराई को जानते हुए भी हमें प्यार करते हैं और हमारी देख-भाल करते हैं, क्योंकि वे हमारी वास्तविकता जानते हैं, और हमारी वास्तविकता यह है कि हम ईश्वर की सन्तानें हैं. सन्त योहन हमें इसी बात को स्पष्ट रूप से समझाते हैं, जब वे कहते हैं, “पिता ने हमें कितना प्यार किया है! हम ईश्वर की सन्तान कहलाते हैं, और हम वास्तव में वही हैं. संसार हमें नहीं पहचानता, क्योंकि उसने ईश्वर को नहीं पहचाना है.” (1 योहन 3:1). हम जानते हैं कि हर इन्सान में ईश्वर का निवास है, साथ ही हम यह भी जानते हैं कि हर इन्सान में कुछ न कुछ कमजोरियां ज़रूर होती हैं, क्यों न हम हम उनकी कमजोरियों को नज़र अंदाज़ कर उनकी वास्तविक पहचान को स्वीकार करें. आईये ईश्वर से इसके लिए कृपा माँगें. आमेन.
✍फादर जॉन्सन बी. मरिया (ग्वालियर)Today is the 14th Sunday in ordinary time. Usually it is seen that the religious leaders of Jesus’ time could not believe in Jesus, even they sought to trap Jesus and somehow get rid of him. This was because they neither knew the Father well nor Jesus (cf John 8:19). They were responsibly people in the society especially in the matters of religion, but in today’s gospel passage we see people from his own place, where he was brought up, where he spent his precious years of childhood, they reject him. Jesus must have been not shacked at this, he knew these people were part of the same chosen people who had been coming to God at one moment and going away from Him at the next. Today’s fist reading reminds us of their such nature, “He said to me, Mortal, I am sending you to the people of Israel, to a nation of rebels who have rebelled against me; they and their ancestors have transgressed against me to this very day.” (Ezek 2:3).
Even from the time of the first Covenant of God with His people in the Old Testament, we see that whenever God sent his prophets and messengers, most of the people rejected them, persecuted them and even killed some of them. They did this because they did not see the real purpose of God behind sending those prophets and messengers, they didn’t recognize them for what they were. Therefore they had to pay heavy price for their ignorance by destroying their own nation. We see a similar situation at the time of Jesus, when people fail to understand Jesus and misunderstand him and reject him. They could not accept him because of his being human rather then divine. They could not see beyond his human aspect.
It is our human nature that we evaluate people on the basis of their looks and external appearance and accordingly judge them and form our opinion about them. God reminds and warns us about this in the first book of Samuel, “...for the LORD dos not see as mortal see; they look on the outward appearance, but the LORD looks on the heart.” (1Sam 16:7b). Due to this prejudice, very often we start focusing on the shortcomings and weaknesses of persons rather than their strengths or what they really are. We fail to know who they really are and thus do not accept them. Because of our faulty attitude and prejudiced mindset, we start destroying the personality of the other person, by doing so we, in a way, deny their very existence. We need to see others as God looks at them.
God accepts all human beings without any partiality. He loves us and cares for us even after knowing our weaknesses and sins, because He knows who we really are, and our real nature and reality is that we are the sons and daughters of our Heavenly Father. St. John explains to us very clearly as to what we really are, “See what love the Father has given us, that we should be called children of God; and that is what we are. The reason the world does not know us is that it did not know him.” (1John 3:1). We know that God dwells in each and every person, at the same time we also know that every person has some weakness and evils within, so why not we ignore the shortcomings and accept and love them for what they really are. Let us ask the Lord the grace for this. Amen.
✍ -Fr. Johnson B. Maria (Gwalior)
एक सेमिनरी में एक बाइबिल प्रोफेसर फादर अपनी हर बात में बाइबिल से उदाहरण देते थे। एक बार जब फादर ब्रदर लोगों के साथ फुटबाल खेल रहे थे तब वहॉं पर एक गधा आया और मैदान में बीचों बीच आकर खडा हो गया। सब ब्रदरगण ने मिलकर बहुत मुश्किल से उसे मैदान के बाहर निकाला। उसके बाद उन्होंने अपने प्रोफेसर फादर से पूछा कि फादर आपको इसके बारे में क्या कहना है। फादर ने उत्तर दिया, योहन 1:11 यह सुनकर एक ब्रदर तुरन्त दौड के एक बाइबिल ले आया और तथा फादर द्वारा बताया वह भाग पढ़ा, ‘‘वह अपने यहॉं आया और उसके अपने लोगों ने उसे नहीं अपनाया’’।
आज के सुसमाचार में प्रभु येसु अपने ही परिजनों और पडोसियों द्वारा तिरस्कृत होते मिलते है। बाइबिल की शुरूआत से ही हम इस अस्वीकरण की घटना को देखते है। आदम और हेवा ने अच्छाई और बुराई का ज्ञान प्राप्त करने के लिए शैतान के प्रलोभन में आकर ईश्वर अपने सृष्टिकरता को त्याग दिया। लोट के परिवार को छोडकर सोदोम और गोमेरा के बाकी सब लोगों ने प्रभु को त्याग दिया था। ईश्वर के बडे़ बड़े चमत्कारों को अपने आखों से देखने के बावजूद भी इस्राएलियों ने ईश्वर को अस्वीकार किया। इस प्रकार बाइबिल में समाज या प्रत्येक व्यक्ति द्वारा ईश्वर को त्यागने की घटना मिलती है। ईश्वर को त्यागने के कारण लोगों को सजा भी मिलती रहती है। आदम और हेवा को वाटिका से बाहर कर दिया गया, सोदोम और गोमेरा को अग्नि से भस्म किया गया, इस्रराइलियों को मरूभूमि में चालीस साल तक घूमना-फिरना पडा।
आज के सुसमाचार में हम पढ़ते है कि येसु को उनके परिजनों ने तिरस्कृत किया। कहा जाता है कि ज्यादा पहचान अवमान होती है। प्रभु को बचपन से जो जानते थे वे उनको स्वीकार करने को तैयार नहीं थे। उन्होंने प्रभु को न केवल तिरस्किृत किया बल्कि उनका अपमान भी किया। इस प्रकार की एक घटना हम पुराने विधान में भी पढ़ते है। जब यूसुफ ने अपने भाईयों को उसके सपने के बारे में बताया तो उनके भाइयों के मन में घृणा की भावना उत्पन्न होती है और वे उन्हें मार डालने के लिए षडयंत्र रचते है। लेकिन ईश्वर ने उन्हें बचाया और मिश्र देश के प्रशासक के पद पर बैठाया।
प्रभु येसु के अस्वीकारतों के बारे में पहले से ही भविष्यवाणी की गयी थी। इस 53:3 ‘‘वह मनुष्यों द्वारा निन्दित और निरस्कृत था’’। स्त्रोत्र 109:3 ‘‘उन्होंने शत्रुतापूर्ण शब्द करते हुए मुझे घेरा और मुझ पर अकारण आक्रमण किया’’। लोगों के तिरस्किृत स्वभाव प्रभु के काम में कोई बाधा नहीं डाल पाया। प्रभु ने दूसरे प्रांत में जाकर अपना काम को जारी रखा।
आज का सुसमाचार हमारे लिए यह सीख देता है कि लोगों द्वारा अस्वीकार किये जाने एवं तिरस्कृत होने के बावजूद भी हमें हिम्मत नहीं हारना चाहिए। प्रभु ने खुद इसके बारे में चेतावनी दी है। ‘‘भाई अपने भाई को मृत्यु के हवाले कर देगा और पिता अपने पुत्र को। संतान अपने माता पिता के विरूद्व उठ खडी होगी और उन्हें मरवा डालेगी। मेरे नाम के कारण सब लोग तुमसे बैर करेंगे किन्तु जो अंत तक धीर बना रहेगा, उसे मुक्ति मिलेगी’’। (मत्ती 10:21-22) योहन 15:20 में उन्होंने कहा ‘‘मैं ने तुमसे जो बात कही उसे याद रखो सेवक अपने स्वामी से बडा नहीं होगा। यदि उन्होंने मुझे सताया तो तुम्हें भी सतायेंगे।’’ संत योहन अपने पत्र में लिखते है ‘‘भाईयों! यदि संसार तुमसे बैर करे तो इस पर आश्चर्य मत करो (1 योहन 3:13)।
दूसरे लोगों के अस्वीकरता को हमने कईं बार अपने जीवन में महसूस किया है। हमारी बातों को, मेहनत को, सोच विचारों को दूसरे लोगों ने तिरस्कृत किया होगा। हमें इस पर ज्यादा परेशान होने की जरूरत नहीं है हमारे प्रभु ने अपने जीवन काल में यह सब सहन किया है और हमें चेतावनी भी दी है। संत पेत्रुस इन परिस्थितियों में हमें याद दिलाते हैं कि ‘‘यदि मसीह के नाम के कारण आप लोगों का अपमान किया जाये तो अपने का धन्य समझें, क्योंकि यह इसका प्रमाण है कि ईश्वर का महिमामय आत्मा आप पर छाया रहता है’’ (1 पेत्रु 4:14)
आज हम उन लोगों को याद करे जिन्होंने हमें ठुकराया है निन्दा की है और उनके लिए प्रार्थना करें। हम ईश्वर को धन्यवाद दे कि उन्होंने इस प्रकार की घटनायों द्वारा अपना आत्मा हम पर प्रकट किया है।
✍फादर मेलविन चुल्लिकल