10) बेतेल के याजक अमस्या ने इस्राएल के राजा यरोबआम के पास यह सन्देश भेजा, ‘‘इस्राएल में ही आमोस आपके विरुद्ध षडयन्त्र रच रहा है। देश उसके भाषण सह नहीं सकता,
11) क्योंकि आमोस ने यह कहा है- यरोबआम तलवार के घाट उतारा जायगा और इस्राएल अपने स्वदेश से निर्वासित किया जायेगा।’’
12) बेतेल के याजक अमस्या ने आमोस से कहा, ‘‘नबी! यहाँ से चले जाओ। यूदा के देश भाग जाओ। वहाँ भवियवाणी करते हुए अपनी जीविका चलाओ।
13) बेतेल में भवियवाणी करना बन्द करो; क्योंकि यह तो राजकीय पुण्य-स्थान है, यह राज मन्दिर है।’’
14) आमेास ने अमस्या को यह उत्तर दिया, ‘‘मैं न तो नबी था और न नबी की सन्तान। मैं चरवाहा था और गूलर के पेड़ छाँटने वाला।
15) मैं झुण्ड चरा ही रहा था कि प्रभु ने मुझे बुलाया मुझ से यह कहा, ‘जाओ! मेरी प्रजा इस्राएल के लिए भवियवाणी करो’।
16) अब तुम प्रभु की वाणी सुनो। तुम तो कहते हो- इस्राएल के विरुद्ध भविष्यवाणी मत करो, इसहाक के वंश के विरुद्ध बकवाद मत करो।
17) किन्तु प्रभु यह कहता है। तुम्हारी पत्नी यहाँ नगरवधू बन जायेगी, तुम्हारे पुत्र-पुत्रियाँ तलवार के घाट उतार दिये जायेंगे और तुम्हारी भूमि जरीब द्वारा बाँट दी जायेगी। तुम स्वयं एक अपवत्रि देश में मरोगे और इस्राएल अपने स्वदेश से निर्वासित किया जायेगा।’’
1) ईसा नाव पर बैठ गये और समुद्र पार कर अपने नगर आये।
2) उस समय कुछ लोग खाट पर पडे़ हुए एक अद्र्धांगरोगी को उनके पास ले आये। उनका विश्वास देखकर ईसा ने अद्र्धांगरोगी से कहा, ’’बेटा ढारस रखो! तुम्हारे पाप क्षमा हो गये हैं।’’
3) कुछ शास्त्रियों ने मन में सोचा- यह ईश-निन्दा करता है।
4) उनके ये विचार जान कर ईसा ने कहा, ’’तुम लोग मन में बुरे विचार क्यों लाते हो ?
5) अधिक सहज क्या है यह कहना, ’तुम्हारे पाप क्षमा हो गये हैं अथवा यह कहना, ’उठो और चलो-फिरो’?
6) किन्तु इसलिए कि तुम लोग यह जान लो कि मानव पुत्र को पृथ्वी पर पाप क्षमा करने का अधिकार मिला है’’ तब वे अद्र्धांगरोगी से बोले ’’उठो और अपनी खाट उठा कर घर जाओ’’।
7) और वह उठ कर अपने घर चला गया।
8) यह देखकर लोगों पर भय छा गया और उन्होंने ईश्वर की स्तुति की, जिसने मनुष्यों को ऐसा अधिकार प्रदान किया था।
लकवे के रोगी को येसु के पास कौन लाया? कोई नहीं जानता क्योंकि उनके नामों का उल्लेख येसु ने सुसमाचार में नहीं किया था। येसु जानते थे कि जो लोग लकवे के रोगी को उनके पास लाए थे वे बहुत विनम्र थे और उन्हें इस श्रेय की कोई परवाह नहीं थी कि उन्हें क्या मिलेगा। यह उनके लिए काफी था कि उन्होंने इस लकवे के रोगी को येसु के पास जाने में मदद की। हम में से कितने ऐसे हैं जो लकवे के रोगी को येसु के पास लाए है? वे बहुत विनम्र थे, बहुत निःस्वार्थ थे, उन्हें श्रेय और प्रचार की कोई परवाह नहीं थी जो उनके लिए उचित है। इसलिए बदले में किसी चीज की अपेक्षा किए बिना हम मदद करें। और निश्चित रूप से ईश्वर उन लोगों को अधिक पुरस्कार देते हैं जो मदद करते हैं और जो चुप्पी और गोपनीयता में अच्छे कार्य करते हैं।
✍ - फादर अल्फ्रेड डिसूजा (भोपाल महाधर्मप्रान्त)
Who brought the paralytic to Jesus? Nobody knows because their names were not mentioned by Jesus in the gospel. Jesus knew that those who brought the paralytic to Him were very humble and not very concerned with the credit that they would receive. It was enough for them that they’ve helped this paralytic go to Jesus. How many of us are like those who brought the paralytic to Jesus? They were very humble, very selfless not concerned of the credit and publicity that is rightly due them. Let us therefore help without any expectation of something in return. And certainly God rewards more those who help and those who do good in silence and secrecy.
✍ -Fr. Alfred D’Souza (Bhopal Archdiocese)
प्रभु ने बहुत से लोगों की प्रार्थनाओं को सुनकर उन्हे या उनके प्रियजनों को चंगाई प्रदान करीं। आज के सुसमाचार में हम प्रभु को अद्र्धांगरोगी को चंगा करते हुए सुनते है। अद्र्धांगरोगी जो अपने से कुछ नहीं कर पाता उसे लोग उठा कर येसु के पास लाते है और येसु उन लोगों का विश्वास देखकर उस अद्र्धांगरोगी को चंगाई प्रदान करते है। यह घटना सबको एक मध्यस्त बनने के लिए प्रेरित करता है जिससे कि हम सब निःसहाय और स्वयं से येसु के पास आने में असमर्थ लोगों को प्रार्थना के जरियें येसु के पास लाये जिससे वे येसु द्वारा चंगाई प्राप्त कर सकें।
✍ - फादर डेन्नीस तिग्गा, भोपाल
Hearing the the prayers of many people Lord healed them or their loved ones. In today's gospel we hear the Lord healing the paralytic. Paralytic who was unable to do anything on his own was brought by some people to Jesus and Jesus, seeing the faith of those people, provides healing to that person with disabilities. This incident inspires everyone to become an intermediary so that we can bring those people who are helpless and unable to come to Jesus on their own, to Jesus through prayer so that they can be healed by Jesus.
✍ -Fr. Dennis Tigga, Bhopal
बेतेल के याजक अमस्या ने नबी आमोस को धमकी दी कि वह यूदा के देश भाग जाए और वहां भविष्यवाणी करते हुए अपनी जीविका चलायें। अमोस इस तरह की धमकी की परवाह नहीं कर सकता था क्योंकि नबी का इरादा न तो जीविका चलाने का था और न ही लोकप्रिय बनने का। वह बस प्रभु का आज्ञाकारी था। नबी ने कबूल किया कि वह न तो नबी था और न ही वह किसी नबीय समूह का सदस्य था। लेकिन उसने बस प्रभु की पुकार सुनी और इस्राएल के लोगों को उपदेश देने की उनकी आज्ञा का पालन किया। इसी के समान एक घटना हम प्रेरित-चरित, अध्याय 4 में पाते हैं जब यहूदी परिषद ने प्रेरित पेत्रुस और योहन से येसु के नाम पर बात न करने का आदेश दिया। प्रेरितों ने जवाब दिया, "आप लोग स्वयं निर्णय करें - क्या ईश्वर की दृष्टि में यह उचित होगा कि हम ईश्वर की नहीं, बल्कि आप लोगों की बात मानें? क्योंकि हमने जो देखा और सुना है, उसके विषय में नहीं बोलना हमारे लिए सम्भव नहीं।" (प्रेरित-चरित 4: 19-20)। प्रेरित-चरित 5:29 में एक बार फिर अपना रुख व्यक्त करते हुए प्रेरितों ने कहा, "मनुष्यों की अपेक्षा ईश्वर की आज्ञा का पालन करना कहीं अधिक उचित है"। ईश्वर के प्रति आज्ञाकारिता के कारण भले ही हमें मानव अधिकारियों की अवज्ञा करना भी पडें तब भी हमें ईश्वर की आज्ञाओं का उलंघन नही करना चाहिए। यह नबी की निशानी है। इसे हम नबीय साहस कह सकते हैं। प्रभु येसु में भी हम इस प्रकार का साहस देख सकते हैं। जब राजा हेरोद से बचने के लिए फरीसियों द्वारा उन्हें भाग जाने की सलाह दी गई, तब उनका जवाब था, "जा कर उस लोमड़ी से कहो - मैं आज और कल नरकदूतों को निकालता और रोगियों को चंगा करता हूँ और तीसरे दिन मेरा कार्य समापन तक पहुँचा दिया जायेगा। आज, कल और परसों मुझे यात्रा करनी है, क्योंकि यह हो नहीं सकता कि कोई नबी येरूसालेम के बाहर मरे”(लूकस 13: 32-33)। मसीह के शिष्य की प्राथमिक लक्ष्य अपनी जीविका चलाने या लोकप्रियता हासिल करने का नहीं है, बल्कि दिए गए समय और स्थान में ईश्वर की इच्छा को पूरा करना है। आइए हम इसी प्रकार का नबीय साहस प्राप्त होने के लिए प्रार्थना करें।
✍ -फादर फ्रांसिस स्करिया
Amaziah the priest of Bethel threatened prophet Amos advising him to flee to Judah and earn his livelihood there. Amos could not care about such threatening because the intention of the prophet was neither to earn a livelihood nor to become popular. He was simply obedient to God. The prophet confessed that he was neither a prophet nor did he belong to any prophetic group. But he simply listened to the call of the Lord and obeyed his command to preach to the people of Israel. We have a parallel in Act 4 when the Jewish council asked Apostles Peter and John not to speak in the name of Jesus. The apostles simply replied, “Whether it is right in God’s sight to listen to you rather than to God, you must judge; for we cannot keep from speaking about what we have seen and heard” (Act 4:19-20). Reiterating their position once again, in Act 5:29, the apostles said, “We must obey God rather than any human authority”. Obedience to God even if it means disobeying human authorities is a mark of a prophet. This calls for prophetic courage. In Jesus too we witness this courage. When he was advised by the Pharisees to flee as Herod was looking for him, his reply was, “Go and tell that fox for me, ‘Listen, I am casting out demons and performing cures today and tomorrow, and on the third day I finish my work. Yet today, tomorrow, and the next day I must be on my way” (Lk 13:32-33). The primary concern of a disciple of Christ is not to earn a livelihood or to seek popularity, but to fulfill God’s will in the given time and space. Let us pray for prophetic courage.
✍ -Fr. Francis Scaria