8) यहोयाकीन अट्ठारह वर्ष की उम्र में राजा बना और उसने येरुसालेम में तीन महीने तक शासन किया। उसकी माता का नाम नहुष्ता था और वह येरुसालेमवासी एल्नातान की पुत्री थी।
9) यहोयाकीन ने अपने पिता की तहर वही किया, जो प्रभु की दृष्टि में बुरा है।
10) उस समय बाबुल के राजा नबूकदनेज़र के सेनापतियों ने येरुसालेम पर आक्रमण किया और उसे चारो आरे से घेर लिया।
11) जब उसके सेनापति येरुसालेम का घेरा डाल चुके थे, तो बाबुल का राजा नबूकदनेज़र स्वयं पहुँचा
12) और यहोयाकीन ने अपनी माता, अपने दरबारियों, पदाधिकारियों और खो़जों के साथ बाबुल के राजा के सामने आत्मसमर्पण किया। बाबुल के राजा ने उसे बन्दी बनाया। यह नबूकदनेज़र के राज्यकाल का आठवाँ वर्ष था।
13) वह प्रभु के मन्दिर और राजमहल की सब बहुमूल्य वस्तुएँ उठा कर ले गया, जैसा कि प्रभु ने पहले से कहा था। उसने सोने की वह सब सामग्री तोड़ डाली, जिसे इस्राएल के राजा सुलेमान ने प्रभु के मन्दिर के लिए बनवाया था।
14) वह येरुसालेम के सब पदाधिकारियों और सैनिकों को-कुल मिला कर दस हज़ार लोगों को सब कारीगरों और लोहारों के साथ बन्दी बना कर ले गया। ‘देश में केवल दरिद्र जनता रह गयी।
15) वह यहोयाकीन को बाबुल ले गया। वह राजा की माता को, उसकी पत्नियों, ख़ोजो और देश के प्रतिष्ठित लोगों को भी येरुसालेम से बाबुल ले गया।
16) सात हज़ार सैनिक, एक हज़ार कारीगर और लोहार-जितने भी लोग युद्ध के योग्य थे- सब बाबुल के राजा द्वारा निर्वासित किये गये।
17) बाबुल के राजा ने यहोयाकीन के स्थान पर उसके चाचा मत्तन्या को राजा के रूप में नियुक्त किया और उसका नाम बदल कर सिदकीया रखा।
21) ’’जो लोग मुझे ’प्रभु ! प्रभु ! कह कर पुकारते हैं, उन में सब-के-सब स्वर्ग-राज्य में प्रवेश नहीं करोगे। जो मेरे स्वर्गिक पिता की इच्छा पूरी करता है, वही स्वर्गराज्य में प्रवेश करेगा।
22) उस दिन बहुत-से लोग मुझ से कहेंगे, ’प्रभु ! क्या हमने आपका नाम ले कर भविष्यवाणी नहीं की? आपका नाम ले कर अपदूतों को नहीं निकला? आपका नाम ले कर बहुत-से चमत्कार नहीं दिखाये?’
23) तब मैं उन्हें साफ-साफ बता दूँगा, ’मैंने तुम लोगों को कभी नहीं जाना। कुकर्मियों! मुझ से दूर हटो।’
24) ’’जो मेरी ये बातें सुनता और उन पर चलता है, वह उस समझदार मनुष्य के सदृश है, जिसने चट्टान पर अपना घर बनवाया था।
25) पानी बरसा, नदियों में बाढ आयी, आँधियाँ चलीं और उस घर से टकरायीं। तब भी वह घर नहीं ढहा; क्योंकि उसकी नींव चट्टान पर डाली गयी थी।
26) ’’जो मेरी ये बातें सुनता है, किन्तु उन पर नहीं चलता, वह उस मूर्ख के सदृश है, जिसने बालू पर अपना घर बनवाया।
27) पानी बरसा, नदियों में बाढ आयी, आँधियाँ चलीं और उस घर से टकरायीं। वह घर ढह गया और उसका सर्वनाश हो गया।’’
28) जब ईसा का यह उपदेश समाप्त हुआ, तो लोग उनकी शिक्षा पर आश्चर्यचकित थे;
29) क्योंकि वे उनके शास्त्रियों की तरह नहीं बल्कि अधिकार के साथ शिक्षा देते थे।
केवल प्रार्थना कहने से हम स्वर्ग के राज्य में प्रवेश नहीं कर सकते। मत्ती 6:7-8 में, येसु कहते हैं, “प्रार्थना करते समय ग़ैर-यहूदियों की तरह रट नहीं लगाओ। वे समझते हैं कि लम्बी-लम्बी प्रार्थनाएँ करने से हमारी सुनवाई होती है। उनके समान नहीं बनो, क्योंकि तुम्हारे माँगने से पहले ही तुम्हारा पिता जानता है कि तुम्हें किन-किन चीज़ों की ज़रूरत है।” स्वर्ग के राज्य में प्रवेश पाने के लिए केवल एक ही चीज जरूरी है। वह है स्वर्गिक पिता की इच्छा का पालन करना। कोई येसु के नाम पर भविष्यवाणी भी कर सकता है, उसके नाम से अपदूतों को बाहर निकाल सकता है या उसके नाम से कई शक्तिशाली काम कर सकता है। ये प्रभु की देन हैं। प्रभु ने उन्हें अपने लोगों की भलाई के लिए ये उपहार दिए हैं। इसका यह मतलब नहीं है कि चूंकि उनके पास ये उपहार हैं, स्वर्ग के राज्य में प्रवेश का उनका अधिकार है। ईश्वर का वचन कहता है, “तुम सारे हृदय से प्रभु का भरोसा करो; अपनी बुद्धि पर निर्भर मत रहो। अपने सब कार्यों में उसका ध्यान रखो। वह तुम्हारा मार्ग प्रशस्त कर देगा।” (सूक्ति 3:5-6)।
✍ - फादर फ्रांसिस स्करिया (भोपाल महाधर्मप्रान्त)
Simply by saying prayers we cannot enter the Kingdom of Heaven. In Mt 6:7-8, Jesus says, “do not heap up empty phrases as the Gentiles do; for they think that they will be heard because of their many words. Do not be like them, for your Father knows what you need before you ask him.” There is only thing that can give us access to the Kingdom of Heaven. That is doing the will of the Heavenly Father. One may even prophesy in the name of Jesus, cast out demons in his name or do many mighty works in his name. These are gifts of the Lord. The Lord granted them these gifts for the welfare of his people. This does not mean that because they possess these gifts, they have an access to the Kingdom of Heaven. The Word of God says, “Trust in the Lord with all your heart, and do not rely on your own insight. In all your ways acknowledge him, and he will make straight your paths” (Prov 3:5-6).
✍ -Fr. Francis Scaria (Bhopal Archdiocese)
प्रभु येसु ने दूसरी अन्य सभी बातों से पहले ईश्वर के वचन के पालन पर अधिक जोर दिया। वचन के पालन से ही हम जीवन में असली बदलाव ला सकते हैं। हम धर्म के नाम पर बहुत प्रचार-प्रसार करते है। हम बहुत सारी गतिविधियॉ जैसे संगोष्ठियां, सतसंग, कक्षायें, तीर्थयात्रायें आदि का आयोजन करते हैं ताकि लोगों को येसु के वचनों पर आधारित जीवन जीने के लिये प्रेरणा तथा प्रोत्साहन दे सके। लेकिन यदि ये सारी गतिविधियॉ यदि हमें ईशवचन को अपने जीवन में उतारने में मदद नहीं करती तो ये सब व्यर्थ ही हैं। यदि हम वचन की शिक्षा का जीवन में पालन नहीं करे तो ईश्वर के नाम पर किये गये हमारे कार्य प्रभावहीन सिद्ध होते है।
हम अपने शब्दों तथा व्यवहार मे भले ही धार्मिक तथा गरिमामय लोग प्रतीत होते हो लेकिन वास्तविक जीवन में हम एक निंदनीय जीवन बिताते हैं। गांधीजी हमारे इस धार्मिक जीवन के खोखलेपन को उजागर करते हुये कहते हैं, ’’मुझे ख्रीस्त पसंद है किन्तु ख्रीस्तीय नहीं...मैं ख्रीस्त की शिक्षा में विश्वास करता हूँ किन्तु तुम नहीं, मैं बाईबिल को विश्वास के साथ पढता हूँ किन्तु पाता हूँ कि उन लोगों में जो स्वयं को ख्रीस्तीय कहते हैं या ख्रीस्तीय होने का ढोंग करते है, इस शिक्षा को बहुत ही कम पाता हूँ, ऐसे ख्रीस्तीय धन-दौलत के पीछे भाग रहे हैं। उनका लक्ष्य अपने पडोसी की कीमत पर अमीर बनना है। वे अंजानों में इस उददेश्य के साथ जाते हैं ताकि वे खुद के लाभ के लिये उनको धोखा दे, उनका शोषण कर सके। उनकी सम्पन्नता दूसरों के जीवन, स्वतंत्रता तथा खुशी से कहीं अधिक बढकर है।
जो ख्रीस्तीय दुनिया हमने बसायी है वह निश्चित तौर पर ईश्वर के वचन रूपी चटटान पर नहीं बसी है। संकट तथा विपदायों में ये टूट कर बिखर जायेगी। यदि दशा उन मनुष्यों की होती है जो क्षणिक मजे के लिये अपना जीवन बिता रहे हैं। सामान्य तथा अच्छे समय में चरित्र की पहचान नहीं होती है। मजबूत तथा कमजोर नींवों के घर सामान्य मौसम में एक जैसे दिखायी पडते हैं। लेकिन जीवन की आंधी और तूफान के दौरान ही उनकी मजबूती की पहचान होती है। इसलिये हमें भी जीवन की सामान्यता के फेर में पड कर खुद को अंधेरे में नहीं रखना चाहिये। तूफान रक्षित ही वस्तु जो हमें बचाती है वह है ईशवचन पर आधारित जीवन।
✍ -फादर रोनाल्ड वाँन, भोपाल
Jesus insisted doing the will of God rather than doing anything else. We do a lot of propaganda in the name of religion. A lot of activities, seminars, retreat, classes, pilgrimage etc. are organised to inspire and promote to a life based on the teaching of Jesus. However, if all these incentives do not help us to translate the teachings of the gospels into action then they are not worth. Without living the word in life all our actions in the name of God are redundant.
In words we are very dignified and well-mannered but in real time we are a scandal. Gandhiji exposes the hollowness of our claim to be the followers of Christ in action, he says, “I like your Christ, but not your Christianity….I believe in the teachings of Christ, but you on the other side of the world do not, I read the Bible faithfully and see little in Christendom that those who profess faith pretend to see….The Christians above all others are seeking after wealth. Their aim is to be rich at the expense of their neighbours. They come among aliens to exploit them for their own good and cheat them to do so. Their prosperity is far more essential to them than the life, liberty, and happiness of others.”
The Christian world we have built is not standing on the rock called the word of God. in time of troubles and calamity it will crumble. Similar fate will be of any one of us who are living a happy go lucky life. In good or normal time, the strength of our character is not judged or proved. The houses of strong or weak foundations look alike. It is during the storm of life their strength is tested and proved. So, let us not be deceived by the normalcy of life and be prepared to face all the seasons of life. The only preparation that is weather proof is the practicing the word of God in our life.
✍ -Rev. Fr. Ronald Vaughan, Bhopal