1) प्रभु ने आँधी में से अय्यूब को इस प्रकार उत्तर दिया:
8) जब समुद्र गर्त में से फूट निकलता था, तो किसने द्वार लगा कर उसे रोका था?
9) मैंने उसे बादल की चादर पहना दी थी और कुहरे के वस्त्रों में लपेट लिया था।
10) मैंने उसकी सीमाओं को निश्चित किया था और द्वार एवं सिटकिनी लगा कर
11) उस से यह कहा था, "तू यहीं तक आ सकेगा, आगे नहीं। तेरी तरंगों का घमण्ड यहीं चूर कर दिया जायेगा"।
14) क्योंकि मसीह का प्रेम हमें प्रेरित करता है। हम यह समझ गये हैं, कि जब एक सबों के लिए मर गया, तो सभी मर गये हैं।
15) मसीह सबों के लिए मरे, जिससे जो जीवित है, वे अब से अपने लिए नहीं, बल्कि उनके लिए जीवन बितायें, जो उनके लिए मर गये और जी उठे हैं।
16) इसलिए हम अब से किसी को भी दुनिया की दृष्टि से नहीं देखते। हमने मसीह को पहले दुनिया की दृष्टि से देखा, किन्तु अब हम ऐसा नहीं करते।
17) इसका अर्थ यह है कि यदि कोई मसीह के साथ एक हो गया है, तो वह नयी सृष्टि बन गया है। पुरानी बातें समाप्त हो गयी हैं और सब कुछ नया हो गया है।
35) उसी दिन, सन्ध्या हो जाने पर, ईसा ने अपने शिष्यों से कहा, "हम उस पार चलें"।
36) लोगों को विदा करने के बाद शिष्य ईसा को उसी नाव पर ले गये, जिस पर वे बैठे हुए थे। दूसरी नावें भी उनके साथ चलीं।
37) उस समय एकाएक झंझावात उठा। लहरें इतने ज़ोर से नाव से टकरा नहीं थीं कि वह पानी से भरी जा रही थी।
38) ईसा दुम्बाल में तकिया लगाये सो रहे थे। शिष्यों ने उन्हें जगा कर कहा, "गुरुवर! हम डूब रहे हैं! क्या आप को इसकी कोई चिन्ता नहीं?"
39) वे जाग गये और उन्होंने वायु को डाँटा और समुद्र से कहा, "शान्त हो! थम जा!" वायु मन्द हो गयी और पूर्ण शान्ति छा गयी।
40) उन्होंने अपने शिष्यों से कहा, "तुम लोग इस प्रकार क्यों डरते हो ? क्या तुम्हें अब तक विश्वास नहीं हैं?"
41) उन पर भय छा गया और वे आपस में यह कहते रहे, "आखिर यह कौन है? वायु और समुद्र भी इनकी आज्ञा मानते हैं।"
हमारे पार्थिव जीवन में कई उतार-चढ़ाव होते हैं। लेकिन जीवन के तूफानों के बीच येसु चाहते हैं कि हम शांति से हमारे स्वर्गिक पिता की सुरक्षा में विश्वास करें। स्तोत्रकार कहते हैं, “चाहे अँधेरी घाटी हो कर जाना पड़े, मुझे किसी अनिष्ट की शंका नहीं, क्योंकि तू मेरे साथ रहता है। मुझे तेरी लाठी, तेरे डण्डे का भरोसा है।” (स्तोत्र 23:4)। आज के सुसमाचार में हम पाते हैं कि येसु जो “दुम्बाल में तकिया लगाये सो रहे थे” तूफान में फंसे अपने शिष्यों द्वारा जगाए गये। येसु और शिष्यों के बीच के विपरीत पर ध्यान केंद्रित करना अच्छा है। तूफान के समय, येसु तकिए लगा कर सो रहे थे लेकिन शिष्य डरे हुए थे कि वे तूफान में फंसी नाव में नष्ट हो जाएंगे। हम स्तोत्रकार के शब्दों में ईश्वर में महान विश्वास देख सकते हैं जो कहते हैं, “मेरी आत्मा! ईश्वर में ही शान्ति प्राप्त करो, क्योंकि उसी से मुझे आशा है। वही मेरी चट्टान है, मेरा उद्धार और मेरा गढ़ है; मैं विचलित नहीं होऊँगा” (स्तोत्र 62:6-7)।
✍ - फादर फ्रांसिस स्करिया (भोपाल महाधर्मप्रान्त)
In our earthly life there are many ups and downs. But amidst the storms of life Jesus wants us to calmly trust in the protection of our heavenly Father. The Psalmist says, “Even though I walk through the darkest valley, I fear no evil; for you are with me; your rod and your staff— they comfort me” (Ps 23:4). In today’s Gospel we find Jesus who was “in the stern, asleep on the cushion” being awakened by his disciples caught up in the storm. It is good to concentrate on the contrast between Jesus and the disciples. At the time of the storm, Jesus was asleep on the cushion but the disciples were afraid that they were going to perish in the boat caught up in the storm. We can see great trust in God in the words of the Psalmist who says, “He alone is my rock and my salvation, my fortress; I shall not be shaken. On God rests my deliverance and my honor; my mighty rock, my refuge is in God” (Ps 62:6-7).
✍ -Fr. Francis Scaria (Bhopal Archdiocese)
आज वर्ष का 12वाँ इतवार है। आज सारा विश्व कोरोना महामारी की मार झेल रहा है। सारे विश्व में कोरोना महामारी के कारण लोगों का जीवन उथल-पुथल हो गया है। कई लोग नौकरी गवाँ चुके हैं, तो कई लोग बेघरवार हो गये हैं और सोचने के लिए मजबूर हो गयें हैं कि किसके पास जायें? इस परिस्थिति में भय और चिन्ता के कारण लोग ईश्वर की शक्ति को भी कम आंकने लगे हैं कि क्या ईश्वर उनके लिए कुछ कर सकता है? लोग अपने शक्ति और बल पर अधिक विश्वास करने लगे हैं और ईश्वर की उपस्थिति को नकारने लगे हैं। लोगों का ऐसी परिस्थिति का अनुभव करने लागे हैं कि ईश्वर की आवश्यकता भारी लगती है। लेकिन हमें याद करना है कि जिस ईश्वर ने तूफान और सब कुछ की सृष्टि की है, सब कुछ उसके नियत्रण में है। ईश्वर ही हमारे जीवन के तुफान को शांत कर सकते हैं यदि हमारे पास छोटी विश्वास हो। हम अपने जीवन में कई प्रकार के तूफानों को अनुभव करते है, जैसे बीमारी, असफलता, दुर्घटना, निराशा, आशाहीनता, नौकरी गवाँना इत्यादि। हम सोचने लगते हैं कि क्या ईश्वर हमारे लिए कुछ कर सकता है? लेकिन जब हम ईश्वर के पहचान को अनुभव करते हैं तब हम अपना सर्वस्व उन्हें सौंप सकते हैं।
प्रभु येसु के सार्वजनिक जीवन का उदेश्य अपने शिष्यों एवं लोगों को यह दिखाना था कि ईश्वर कौन हैं? और उन्हें ईश्वर के पास पहुँचाना । इसे हम सुसमाचार में पाते हैं, जब प्रभु येसु पाँच हजार लोगों को पाँच रोटियाँ और दो मछलियों से तृप्त करते हैं, जब वे पानी के ऊपर चलते हैं, जब वे विकलांग को स्वस्थ्य करते हैं, उस स्त्री को स्वतः स्पर्श करने देते हैं, ये सब ईश्वर की उपस्थिति को दिखाता है, और वे उनके बीच एक मनुष्य की तरह चलते है।
आज के पहले पाठ योब के ग्रन्थ में दैवी शक्ति के विषय में अभिव्यक्त किया गया है। सभी इस्राइली पुर्ण रूप से अवगत थे कि केवल ईश्वर ही सृष्टि को नियंत्रित कर सकते हैं। योब का ग्रन्थ इस संसार में कई प्रकार के बुराई की समस्या पर प्रश्न करता है। हम लोग इस संसार में निर्दोष लोगों की पीड़ा को सोचने लगते हैं। क्यों निर्दोष लोगों को दुःख भोगना पड़ता है? योब जो निर्दोष था क्यों अपने ही मित्रों द्वारा तिरस्कृत किया गया? लेकिन फिर भी वह ईश्वर पर भारोसा रखता है और अंत में सभी शक्तियों पर ईश्वर की विजय होती है।
आज के दुसरे पाठ में संत पौलुस धर्मान्तरियों से कहते हैं कि उन्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि ख्रीस्तीय होने का क्या तात्पार्य है। उन्हें एक नया जीवन दिया गया है जब प्रभु येसु उनके लिए मरे और जी उठे हैं। वे उन्हें आशानविंत करते हैं कि किसी का प्रेम इससे बढ़कर नहीं जो अपना जीवन दुसरों के लिए गंवा दें। प्रभु येसु स्वंय इस प्रेम की चर्चा संत योहन के सुसमाचार में अपने अंतिम वार्तालाप में करते हैं।
आज के सुसमाचार में प्रभु येसु अपने पहचान को क्रमशः प्रदर्शित करते हैं। जब वे कफरनाहुम में (उपदेश) बीमारों को चंगा कर रहे थे, जहाँ भीड़ उनके उपदेश को सुनकर आश्चर्य चकित हो जाते हैं। लेकिन उनके शिष्य हतोसाहित थे वे प्रभु को जगाते हुए कहते हैं ’’प्रभु, क्या आप को हमारी चिंता नहीं। हम लोग डूब रहें है।’’ आइये हम आज प्रभु से प्रार्थना करें कि जब जीवन में तूफान आती है उस समय हम प्रभु का शरण लें सकें।
✍फादर आइजक एक्काToday is the twelfth Sunday of the year. Today the whole world is suffering from corona pandemic; there is a great upheaval in the life of the people because of corona pandemic, people have lost their jobs, and have become homeless and they are compelled to think where to go? In this situation of fear and anxiety, they experience and underestimate God’s power and ask what he can do for us. People began to believe in their power and strength and begin to ignore the presence of God. Often we feel the situation in which we find ourselves in is too big for God. But we must remember that God created the storm and everything in nature. Only God can calm the storms in our lives if we have a little faith. In our lives we can experience many forms of storms like sickness, failure, accident, hopelessness, loss of job etc. We begin to think can God do anything for us? But when we realise the identity of God, then we can entrust him our whole life.
During the public ministry the whole aim of Jesus was to show to his disciples and the people who he was and that he had been sent to bring them to God. We find it in the gospels, when he fed the five thousand with five loaves and two fish, when he walked on the water, when he healed the cripple with a word or permitting the woman simply to touch him, showing himself to be the Lord, and walked in their midst as a man.
The theme of Divine power is manifested in the first reading of today from the book of Job. All the Israelites were fully aware that it is only God who has total control over the elements of the universe. The book of Job raises several questions concerning the problem of evil in the world. Job, the innocent person suffers and is accused of guilty by his own friends; yet he trusts in God and at the end final victory belongs to God.
In today’s second reading Paul urges the converts not to forget what it means to be a Christian. They have been given a new life and called to live for Christ who died and rose from the dead for them. He convinces them, there is no greater love than the love of one who dies for someone else. Jesus himself told of such love in his final discourse as given in gospel of St John.
In today’s gospel passage Jesus leads us through the process by which we come to know his identity and gradually revealed. When he was healing the sick in Capernaum, the crowd was astounded. The disciples were desperate and, they woke him up: “Master, do you not care? We are going down”! Let us pray that when storms come in our life, may we be able to shelter in God’s protection.
✍ -Fr. Isaac Ekka