1) तब एलियाह अग्नि की तरह प्रकट हुए। उनकी वाणी धधकती मशाल के सदृश थी।
2) उन्होंने उनके देश में अकाल भेजा और अपने धर्मोत्साह में उनकी संख्या घटायी।
3) उन्होंने प्रभु के वचन से आकाश के द्वार बन्द किये और तीन बार आकाश से अग्नि गिरायी।
4) एलियाह! आप अपने चमत्कारों के कारण कितने महान् है! आपके सदृश होने का दावा कौन कर सकता है!
5) आपने सर्वोच्च प्रभु की आज्ञा से एक मनुष्य को मृत्यु और अधोलोक से वापस बुलाया।
6) आपने राजाओें का सर्वनाश किया, प्रतिष्टित लोगों केा गिरा दिया और सहज ही उनका बल तोड़ दिया।
7) आपने सीनई पर्वत पर दोषारोपण और होरेब पर्वत पर दण्डाज्ञा सुनी।
8) आपने प्रतिशोध करने वाले राजाओं का और अपने उत्तराधिकारियों के रूप में नबियों का अभिशेक किया।
9) आप अग्नि की आँधी में अग्निमय अश्वों के रथ में आरोहित कर लिये गये।
10) आपके विषय में लिखा है, कि आप निर्धारित समय पर चेतावनी देने आयेंगे, जिससे ईश्वरीय प्रकोप भड़कने से पहले ही आप उसे शान्त करें, पिता और पुत्र का मेल करायें और इस्राएल के वंशों का पुनरुद्धार करें।
11) धन्य हैं वे, जिन्होंने आपके दर्शन किये, जो आपके प्रेम से सम्मानित हुए!
12) हमें तो जीवन मिला है, किन्तु मृत्यु के बाद हमें आपके सदृश नाम नहीं मिलेगा।
13) जब एलियाह बवण्डर में ओझल हो गये, तो एलीषा को उनकी आध्यात्मिक शक्ति प्राप्त हुई। वे अपने जीवनकाल में किसी भी शासक से नहीं डरते थे। कोई भी मनुष्य उन्हें अपने वश में नहीं कर सका।
14) कोई भी कार्य उनकी शक्ति के परे नहीं था और मृत्यु के बाद भी उनके शरीर में नबी का सामर्थ्य विद्यमान था।
15) उन्होंने अपने जीवनकाल में चमत्कार और मृत्यु के बाद भी अपूर्व कार्य कर दिखाये।
7) ’’प्रार्थना करते समय ग़ैर-यहूदियों की तरह रट नहीं लगाओ। वे समझते हैं कि लम्बी-लम्बी प्रार्थनाएँ करने से हमारी सुनवाई होती है।
8) उनके समान नहीं बनो, क्योंकि तुम्हारे माँगने से पहले ही तुम्हारा पिता जानता है कि तुम्हें किन किन चीज़ों की ज़रूरत है।
9) तो इस प्रकार प्रार्थना किया करो- स्वर्ग में विराजमान हमारे पिता! तेरा नाम पवित्र माना जाये।
10) तेरा राज्य आये। तेरी इच्छा जैसे स्वर्ग में, वैसे पृथ्वी पर भी पूरी हो।
11) आज हमारा प्रतिदिन का आहार हमें दे।
12) हमारे अपराध क्षमा कर, जैसे हमने भी अपने अपराधियों को क्षमा किया है।
13) और हमें परीक्षा में न डाल, बल्कि बुराई से हमें बचा।
14) यदि तुम दूसरों के अपराध क्षमा करोगे, तो तुम्हरा स्वर्गिक पिता भी तुम्हें क्षमा करेगा।
15) परन्तु यदि तुम दूसरों को क्षमा नहीं करोगे, तो तुम्हारा पिता भी तुम्हारे अपराध क्षमा नहीं करेगा।
येसु हमें बताते हैं कि प्रार्थना में खोखले वाक्यों का ढेर न लगाएं। रोमियों 8:28 में, संत पौलुस कहते हैं, “हम जानते हैं कि जो लोग ईश्वर को प्यार करते हैं और उसके विधान के अनुसार बुलाये गये हैं, ईश्वर उनके कल्याण के लिए सभी बातों में उनकी सहायता करता है”। ईश्वर सर्वज्ञ हैं और उन्हें सब कुछ पता है। हमें उन्हें कुछ भी प्रकट करने की आवश्यकता नहीं है। स्तोत्रकार कहते हैं, “प्रभु! तूने मेरी थाह ली है; तू मुझे जानता है। मैं चाहे लेटूँ या बैठूँ, तू जानता है। तू दूर रहते हुए भी मेरे विचार भाँप लेता है। मैं चाहे चलूँ या लेटूँ, तू देखता है। मैं जो भी कहता हूँ, तू सब जानता है। मेरे मुख से बात निकल ही नहीं पायी कि प्रभु! तू उसे पूरी तरह जान गया।” (स्तोत्र 139:1-4)। लूकस 13:10-17 में हम पाते हैं कि येसु ने एक महिला को जो झुकी हुई थी बिना उसके किसी अनुरोध के चंगा किया। लूकस 7 में हम पढ़ते हैं कि येसु ने एक विधवा के मृत बेटे को बिना पूछे जीवित कर दिया। स्तोत्र 34:18 में, स्तोत्रकार कहते हैं, “प्रभु दुहाई देने वालों की सुनता और उन्हें हर प्रकार के संकट से मुक्त करता है”। महत्वपूर्ण बात यह है कि हम प्रार्थना में बहुत सारे शब्दों का उपयोग न करते हुए ईश्वर की संगति में जीवन जीएं।
✍ - फादर फ्रांसिस स्करिया (भोपाल महाधर्मप्रान्त)
Jesus tells us not to heap up empty phrases in prayer. In Rom 8:28, St. Paul says, “We know that all things work together for good for those who love God, who are called according to his purpose”. God is omniscient and he knows everything. We do not have to reveal anything to him. The Psalmist says, “O Lord, you have searched me and known me. You know when I sit down and when I rise up; you discern my thoughts from far away. You search out my path and my lying down, and are acquainted with all my ways. Even before a word is on my tongue, O Lord, you know it completely” (Ps 139:1-4). In Lk 13:10-17 we find Jesus healing a woman who was bent over, without any request from her. In Lk 7 we read about Jesus raising the son of a widow without being asked. In Ps 34:18, the Psalmist says, “The LORD is close to the brokenhearted; he rescues those whose spirits are crushed”. What is important is that we live in union with God, not using too many words in prayer.
✍ -Fr. Francis Scaria (Bhopal Archdiocese)
If we want to learn to pray, we must learn from Jesus. Because except Jesus no one else can teach us better the prayer which unites with God other than Jesus. Despite his hectic life, Jesus used to find time to pray. Today Lord Jesus lays before us the text of Our Father prayer, which he taught to his disciples. Our Father prayer is a prayer for all of us to glorify God and ask for help in this life of ours. Our Father, it is the prayer of all of us who consider God as their Father as everything, and considering each other as members of his family seek graces and blessings.
✍ -Fr. Dennis Tigga
प्रार्थना करना अगर हमें सीखना है तो हमें प्रभु येसु से सीखना चाहिए। क्योंकि येसु के सिवाय हमें ईष्वर से जुडें रहने वाली प्रार्थना येसु से बेहतर और कोई नहीं सिखा सकता है। प्रभु अपने व्यस्तम जीवन के बावजूद प्रार्थना करने के लिए समय निकालते थे। आज प्रभु येसु हे पिता हमारे की प्रार्थना का पाठ हमारे सामने रखते है जिसे उन्होंने अपने षिष्यों को सिखाया। हे पिता हमारे एक ऐसी प्रार्थना है जो हम सभी को ईष्वर की महिमा करने और अपने इस जीवन के लिए मदद मॉंगने की एक प्रार्थना है। हे पिता हमारे हम सभी की प्रार्थना है जो ईष्वर को अपना पिता अर्थात् अपना सबकुछ मानते हैं तथा एक दूसरे को उसके परिवार के सदस्य समझते हुए कृपा और आषीष की कामना करते हैं।
✍ - फादर डेन्नीस तिग्गा
आज का पहला पाठ नबी एलियाह के महान कार्यों का लेखा-जोखा संक्षिप्त मंे प्रस्तुत करता है। बाइबिल के महान व्यक्तियों में उनका एक विशेष एवं सम्मानीय स्थान है। वे लोगों के लिये अकाल तथा वर्षा दोनों का कारण बने। उन्होंने स्वर्ग का द्वार बंद किया तथा तीन बार आकाश से धरती पर अग्नि लाये। उन्होंने राजाओं तथा नबियों को अभिषिक्त किया। उन्होंने राजाओं तथा नेताओं को उनकी विफलता के लिये लताडा आदि जैसे अनेक साहस के कार्य किये। इस महान कार्यों के बावजूद भी संत याकूब बताते हैं कि वे हमारे समान मात्र मनुष्य थे। ’’एलियाह हमारी ही तरह निरे मनुष्य थे।’’ (याकूब 5:17) लेकिन जिस बात ने उनको महान बनाया वह उनके द्वारा क्रियाशील ईश्वरीय सामर्थ्य था। वे ईश्वर द्वारा चुने गये थे तथा अपनी नबिय बुलाहट के प्रति पूरी तरह समर्पित थे। अपनी सारी मानवीय सीमित्ता के बावजूद भी वे अपना मिशन कार्य करते रहे।
संत याकूब कहते हैं कि वे प्रार्थनामय व्यक्ति थे तथा उनकी प्रार्थनायें शक्तिशाली थी, ’’उन्होंने आग्रह के साथ इसलिए प्रार्थना की कि पानी नहीं बरसे और साढ़े तीन वर्ष तक पृथ्वी पर पानी नहीं बरसा। उन्होंने दुबारा प्रार्थना की। स्वर्ग से पानी बरसा और पृथ्वी पर फसल उगने लगी। (याकूब 5:17-18) यह उनका प्रार्थनामय जीवन था जो उन्हें ईश्वर के साथ एक रख सका। अपनी प्रार्थनाओं के दम पर ही उन्हें इतने महान कार्यों को अंजाम दिया।
सुसमाचार में येसु प्रार्थना के बारे में बताते हैं। वे ’हे पिता हमारे’ प्रार्थना सिखाते हैं। शिष्यों ने येसु को अक्सर प्रार्थना करते पाया। उन्होंने येसु ने नहीं पूछा की हमें चमत्कार करना सिखाइये या फिर अपदूतों को निकालना आदि सिखलाइये। लेकिन उन्होंने येसु से पूछा कि ’हमें भी प्रार्थना करना सिखाईये।’ शायद शिष्यगण जानते थे कि यदि वे अच्छी तरह से प्रार्थना कर सकेंगे तो सभी कार्य अच्छी तरह से कर सकेंगे। हमारी प्रार्थनायें शक्तिशाली एवं प्रभावशाली होती है। जैसा की एलियाह ने दिखाया तथा येसु ने शिष्यों को सिखलाया।
✍ -फादर रोनाल्ड वाँन, भोपाल
Today’s first reading is a kind of summery of the great and mighty works accomplished by Prophet Elijah. He was indeed one of the most admirable and venerated figures among the Biblical heroes. He brought famine and also rain for the people. He shut up the heavens and three times brought down fire. He anointed the kings and prophets. He rebuked and chastised the kings and the leaders etc. and finally he was taken into heaven in fiery chariot with a promise that he would come again. Inspite of these great works St. James points that he was also a mere human being, “Elijah was a man of like nature with ourselves…” (5:17) yet what made him so great was the power working through him. He was chosen by God and fully dedicated to his vocation to be the prophet. Inspite of his own human limitations he went about doing his mission.
St. James says he was a prayerful man and his prayers were powerful, “He prayed fervently that it might not rain and for three years and six months it did not rain on the earth. Then he prayed again and the heaven gave rain…”(5:17-18) It was his prayer life that kept him constantly in touch with God. it was through the power of prayers that he performedall these.
In the Gospel Jesus speaks about prayer. He teaches them the prayer ‘Our Father’. Disciples found Jesus often praying and they asked Lord teach us to pray. They did not ask him to teach how to preach or perform miracles or cast out demons. But they asked, ‘Teach to pray’. It was perhaps disciples knew that if they could pray well, they would be able to do all that Jesus was doing. sincere prayers are effective and powerful just as Elijah showed and the Lord taught his disciples.
✍ -Rev. Fr. Ronald Vaughan, Bhopal