9) एलियाह होरेब पर्वत के पास पहुँचा और एक गुफा के अन्दर चल कर उसने वहाँ रात बितायी।
11) प्रभु ने उस से कहा, ‘‘निकल आओ, और पर्वत पर प्रभु के सामने उपस्थित हो जाओ“। तब प्रभु उसके सामने से हो कर आगे बढ़ा। प्रभु के आगे-आगे एक प्रचण्ड आँधी चली- पहाड़ फट गये और चट्टानें टूट गयीं, किन्तु प्रभु आँधी में नहीं था। आँधी के बाद भूकम्प हुआ, किन्तु प्रभु भूकम्प में नहीं था।
12) भूकम्प के बाद अग्नि दिखई पड़ी, किन्तु प्रभु अग्नि में नहीं था। अग्नि के बाद मन्द समीर की सरसराहट सुनाई पड़ी।
13) एलियाह ने यह सुनकर अपना मुँह चादर से ढक लिया और वह बाहर निकल कर गुफा के द्वार पर खड़ा हो गया। तब उसे एक वाणी यह कहते हुए सुनाई पड़ी, “एलियाह! तुम यहाँ क्या कर रहे हो?“
14) उसने उत्तर दिया, “विश्वमण्डल के प्रभु-ईश्वर के लिए अपने उत्साह के कारण मैं यहाँ हूँ। इस्राएलियों ने तेरा विधान त्याग दिया, तेरी वेदियों को नष्ट कर डाला और तेरे नबियों को तलवार के घाट उतारा। मैं ही बच गया हूँ और वे मुझे भी मार डालना चाहते हैं।“
15) प्रभु ने उस से कहा, “जाओ, जिस रास्ते से आये हो, उसी से दमिश्क की मरुभूमि लौट जाओ। वहाँ पहुँच कर हज़ाएत का अराम के राजा के रूप में
16) और निमशी के पुत्र येहू को इस्राएल के राजा के रूप में अभिशेक करो। इसके बाद आबेल-महोला के निवासी, शफ़ाट के पुत्र एलीशा का अभिशेक करो, जिससे वह तुम्हारे स्थान में नबी हो।
(27) तुम लोगों ने सुना है कि कहा गया है - व्यभिचार मत करो।
(28) परन्तु मैं तुम से कहता हूँ-जो बुरी इच्छा से किसी स्त्री पर दृष्टि डालता है वह अपने मन में उसके साथ व्यभिचार कर चुका है।
(29) ’’यदि तुम्हारी दाहिनी आँख तुम्हारे लिए पाप का कारण बनती है, जो उसे निकाल कर फेंक दो। अच्छा यही है कि तुम्हारे अंगों में से एक नष्ट हो जाये, किन्तु तुम्हारा सारा शरीर नरक में न डाला जाये।
(30) और यदि तुम्हारा दाहिना हाथ तुम्हारे लिए पाप का कारण बनता है, तो उसे काट कर फेंक दो। अच्छा यही है कि तुम्हारे अंगों में से एक नष्ट हो जाये, किन्तु तुम्हारा सारा शरीर नरक में न जाये।
(31) ’’यह भी कहा गया है- जो अपनी पत्नी का परित्याग करता है, वह उसे त्याग पत्र दे दे।
(32) परंतु मैं तुम से कहता हूँ- व्यभिचार को छोड़ किसी अन्य कारण से जो अपनी पत्नी का परित्याग करता है, वह उस से व्यभिचार कराता है और जो परित्यक्ता से विवाह करता है, वह व्यभिचार करता है।
आज के धर्मग्रन्थ पाठ में, हम देखते हैं कि येसु व्यभिचार के विरुद्ध आज्ञा की समझ को कैसे परिपूर्ण करते हैं। निर्गमन 20:14 में कहा गया है, “व्यभिचार मत करो”। लेवी ग्रन्थ 20:10-16 में विभिन्न प्रकार के यौन पापों का वर्णन है। पुराने नियम के कानूनों को पापों के वास्तविक कृत्यों पर लागू होते समझा जाता था। लेकिन येसु अपने शिष्यों को यह सिखाते हैं कि वे उससे आगे जाएं, मनुष्य के विचारों और भावनाओं की जांच करें जो पवित्र होने चाहिए। येसु चाहते हैं कि उनके शिष्य अशुध्द विचारों से भी बचें और इस प्रकार हृदय में शुद्ध रहें। येसु के अनुसार विवाह में पुरुष और स्त्री का संबंध ईश्वर द्वारा निश्चित किया गया एक पवित्र संबंध है। ऐसे दिव्य और पवित्र संबंध का कोई भी विचलन पापपूर्ण है और विचारों में भी बचने योग्य है। येसु हमेशा आंतरिक शुद्धता पर जोर देते हैं। उनके अनुसार, किसी स्त्री को बुरी इच्छा से देखना उस स्त्री के साथ व्यभिचार करने के बराबर है।
✍ - फादर फ्रांसिस स्करिया (भोपाल महाधर्मप्रान्त)
In today’s Gospel, we find how Jesus perfects the understanding of the commandment against adultery. Ex 20:14 states, “You shall not commit adultery”. Lev 20:10-16 describes various types of sexual sins. The Old Testament laws were understood as applying to the actual acts of sins. But Jesus teaches his disciples to go beyond that, to examine the thoughts and feelings of a human being which too need to be pure. Jesus wants his disciples to avoid even lustful thoughts and thus remain pure in the heart. According to Jesus the relationship between a man and a woman in marriage is a sacred relationship designed by God. Any aberration of such a divine and holy relationship is sinful and is to be avoided even in thoughts. Jesus always insists on internal purity. According to him, looking at a woman lustfully is equal to committing adultery with that woman.
✍ -Fr. Francis Scaria (Bhopal Archdiocese)
पाप हमें ईश्वर से दूर ले जाता है। प्रलोभन हमें पाप करने के लिए उकसाता है और यदि हम उस प्रलोभन में गिर जाते है तो हम पाप कर बैठते है। मनुष्य विभिन्न प्रकार के पाप करता है और उनमें से एक पाप जो हमारे जीवन को विनाश की ओर ले जाता है-वह है व्यभिचार। पुराने व्यवस्थान में बताया गया है कि व्यभिचार मत करों, वह इसलिए कि वह एक गंभीर पाप है। अक्सर हम पाप उस कार्य को करने के उपरांत करते है परंतु प्रभु येसु बताते है कि जो केवल बुरी इच्छा से किसी दूसरे स्त्री पर दृष्टि डालता है तो वह उसके साथ मन में ही व्यभिचार कर लेता है। प्रभु येसु ख्रीस्त हम सभी को पवित्रता का जीवन जीने के लिए प्रेरित करते है इसलिए वे चाहते है कि हमारा मन शुद्ध और पवित्र रहें। इन बातो को बतलाते हुए प्रभु यह जताना चाहते है कि हमें हमेेशा हमारे मन को साफ रखना चाहिए।
✍ - फादर डेन्नीस तिग्गा
Sin takes us away from God. Temptation tempts us to sin and if we fall into that temptation, we commit sin. Human beings commit various types of sins and one of them which lead our life to destruction is adultery. The Old Testament tells us not to commit adultery, because it is a serious sin. Often we commit sins after doing that particular act, but Lord Jesus tells that whoever looks at another woman only with bad eue, then he commits adultery with her in his mind. Lord Jesus Christ inspires all of us to live a life of purity, so He wants our mind to be pure and holy. While telling these things, the Lord wants to express that we should always keep our mind pure.
✍ -Fr. Dennis Tigga
जब एलियाह ने गुफा में सारी रात बितायी तो ईश्वर ने एलियस से पूछा, ’’एलियाह! तुम यहॉ क्या कर रहे हो?’’ ईश्वर एलियाह को इस बात का एहसास कराना चाहता था कि वह क्यों गुफा में है।
एलियाह गुफा में ईजैबेल के डर से छुपा था क्योंकि ईजैबेल ने कसम खायी थी वह एलियाह को मार डालेगी। ईश्वर की सत्यता को साबित कर तथा बाल के नबियों को मारने के बाद एलियाह जैसे योद्धा के लिये इस प्रकार डर के छिप जाना शर्मनाक कदम था। ईजैबेल की धमकी के साथ-साथ वह अपने आप को बहुत अकेला भी महसूस कर रहा था। नबी के कार्य का तनाव तथा दबाव के कारण वह थक गया था। इसलिये ईश्वर अपनी उपस्थिति के द्वारा उसके विश्वास को नवीन बनाकर उसे पुनः शक्तिशाली बनाना चाहते थे। पहले भूकंम आया, फिर प्रचंड आंधी और उसके बाद आग लेकिन इन सब में ईश्वर नहीं था। इन सब के बाद मंद समीर की सरसराहट में एलियाह ईश्वर का अनुभव करता है।
इस अकेलेपन और डर के दौर में जब एलियाह ने कहा, ’’मैं बच गया हूॅ और वे मुझे मार डालना चाहते है।’’ ईश्वर ने उसे अकेला नहीं छोडा। ईश्वर उसे बताते हैं कि अभी उसका कार्य खत्म नहीं हुआ है तथा उसके जीवन का उददेश्य अभी भी बाकी है। उसे अभी भी यात्रायें करनी है, राजा तथा नबी का अभिषेक कर अपने उत्तराधिकारी को नियुक्त करना है।
जब हम सोचते है कि हम अकेले छूट गये हैं तो अपनी लडाई छोड देते हैं। हम शायद ईश्वर की प्रतिज्ञाओं में विश्वास करना कम कर देते हैं। लेकिन ऐसा अकेलापन महसूस करना हमारी पराजय का कारण बनाता है। हमें साहस के साथ लडाई जारी रखनी चाहिये क्योंकि ईश्वर की योजना तथा उसका उददेश हमारे लिये बरकरार रहता है। नबी एलियाह का अनुभव हमें यही सिखाता है।
✍ -फादर रोनाल्ड वाँन, भोपाल
When Elijah was hiding into a cave and spent all night, the Lord spoke his word to him: “Elijah! What are you here?” God wanted Elijah to realise why he was in the cave?
Elijah was hiding in the cave because he was afraid of the threat of Jezebel who had sown to kill him. After a huge victory over the prophets of Baal and a show of strength at Mount Carmel it was an undoing of a great warrior Elijah.Apart from being afraid Elijah was perhaps also feeling lonely and spent. He was definitely tired of the pressure and tension that his work of a prophet brings along. So, God wanted to refresh his faith and energy by giving him the delight of his presence. First there was an earthquake, then a strong wind and fire but God was not there. However, after all these come a gentle breeze and Elijah experiences the presence of God.
During these moments of loneliness and fear as Elijah himself expresses, “I only am left and they seek my life…” God didn’t abandon Elijah. God tells him that he is not a spent force or a lone leader. His life has much more to do. There is a purpose in his life. His job is not yet over. He has journeys to be made. He has kingsand a prophet to be anointed. He has to see and appoint his successor.
When we think we are alone then we quit going to battle. We quit believing in what God promised. Feeling alone take the fight out of us. We need to pull up and fight back because from Elijah’s experience we learn that God is with us. God has a plan and purpose for us.
✍ -Rev. Fr. Ronald Vaughan, Bhopal