1) मैं ईश्वर को और जीवितों तथा मृतकों के न्यायकर्ता ईसा मसीह को साक्षी बना कर मसीह के पुनरागमन तथा उनके राज्य के नाम पर तुम से यह अनुरोध करता हूँ-
2) सुसमाचार सुनाओ, समय-असमय लोगों से आग्रह करते रहो। बड़े धैर्य से तथा शिक्षा देने के उद्देश्य से लोगों को समझाओ, डाँटो और ढारस बँधाओ;
3) क्योंकि वह समय आ रहा है, जब लोग हितकारी शिक्षा नहीं सुनेंगे, बल्कि मनमाना आचरण करेंगे और अपने पास चाटुकार उपदेशकों की भीड़ जमा करेंगे।
4) वे सच्चाई के प्रति अपने कान बन्द करेंगे और कल्पित कथाओं के पीछे दौड़ेंगे।
5) परन्तु तुम सब बातों में सन्तुलित बने रहो, धैर्य से कष्ट सहो, सुसमाचार के प्रचार में लगे रहो और अपने सेवा-कार्य के सब कर्तव्य पूरे करते जाओ।
6) मैं प्रभु को अर्पित किया जा रहा हूँ। मेरे चले जाने का समय आ गया है।
7) मैं अच्छी लड़ाई लड़ चुका हूँ, अपनी दौड़ पूरी कर चुका हूँ और पूर्ण रूप से ईमानदार रहा हूँ।
8) अब मेरे लिए धार्मिकता का वह मुकुट तैयार है, जिसे न्यायी विचारपति प्रभु मुझे उस दिन प्रदान करेंगे - मुझ को ही नहीं, बल्कि उन सब को, जिन्होंने प्रेम के साथ उनके प्रकट होने के दिन की प्रतीक्षा की है।
41) ईसा के माता-पिता प्रति वर्ष पास्का पर्व के लिए येरुसालेम जाया करते थे।
42) जब बालक बारह बरस का था, तो वे प्रथा के अनुसार पर्व के लिए येरुसालेम गये।
43) पर्व समाप्त हुआ और वे लौट पडे़; परन्तु बालक ईसा अपने माता-पिता के अनजाने में येरुसालेम में रह गया।
44) वे यह समझ रहे थे कि वह यात्रीदल के साथ है; इसलिए वे एक दिन की यात्रा पूरी करने के बाद ही उसे अपने कुटुम्बियों और परिचितों के बीच ढूँढ़ते रहे।
45) उन्होंने उसे नहीं पाया और वे उसे ढूँढ़ते-ढूँढ़ते येरुसालेम लौटे।
46) तीन दिनों के बाद उन्होंने ईसा को मन्दिर में शास्त्रियों के बीच बैठे, उनकी बातें सुनते और उन से प्रश्न करते पाया।
47) सभी सुनने वाले उसकी बुद्धि और उसके उत्तरों पर चकित रह जाते थे।
48) उसके माता-पिता उसे देख कर अचम्भे में पड़ गये और उसकी माता ने उस से कहा “बेटा! तुमने हमारे साथ ऐसा क्यों किया? देखो तो, तुम्हारे पिता और मैं दुःखी हो कर तुम को ढूँढते रहे।“
49) उसने अपने माता-पिता से कहा, “मुझे ढूँढ़ने की ज़रूरत क्या थी? क्या आप यह नहीं जानते थे कि मैं निश्चय ही अपने पिता के घर होऊँगा?“
50) परन्तु ईसा का यह कथन उनकी समझ में नहीं आया।
51) ईसा उनके साथ नाज़रेत गये और उनके अधीन रहे। उनकी माता ने इन सब बातों को अपने हृदय में संचित रखा।
मरियम के निष्कलंक हृदय का रहस्य आज के सुसमाचार में प्रकट होता है जब यह कहता है, “उसकी माँ ने इन सब बातों को अपने हृदय में संचित रखा”। स्तोत्रकार कहते हैं, “मैं तेरे वचन को अपने हृदय में संजोता हूँ, ताकि मैं तेरे विरुद्ध पाप न करूँ” (स्तोत्र 119:11)। संत योहन कहते हैं, “युवको! मैं तुम्हें इसलिए लिख रहा हूँ कि तुम शक्तिशाली हो। तुम में ईश्वर का वचन निवास करता है और तुमने दुष्ट पर विजय पायी है।” (1 योहन 2:14)। एफेसियों 5:26 में संत पौलुस कहते हैं, “जिससे वह उसे (येसु कलीसिया को) पवित्र कर सकें और वचन तथा जल के स्नान द्वारा शुद्ध कर सकें”। वचन में हमें शुद्ध करने की शक्ति है। इब्रानियों 4:12 कहता है, “ईश्वर का वचन जीवन्त, सशक्त और किसी भी दुधारी तलवार से तेज है। वह हमारी आत्मा के अन्तरतम तक पहुँचता और हमारे मन के भावों तथा विचारों को प्रकट कर देता है। ईश्वर से कुछ भी छिपा नहीं है।” ईश्वर का वचन हमारे अस्तित्व की गहराइयों में प्रवेश कर सकता है और हमें शुद्ध कर सकता है। ईश्वर का वचन मरियम से ज्यादा किसी और के करीब नहीं हो सकता था जिन्होंने वचन को अपने हृदय और अपने गर्भ में धारण किया था।
✍ - फादर फ्रांसिस स्करिया (भोपाल महाधर्मप्रान्त)
The secret of the Immaculate Heart of Mary is revealed in today’s Gospel when it states, “His mother treasured all these things in her heart”. The Psalmist says, “I treasure your Word in my heart, so that I may not sin against you”. St. John says, “I write to you, young people, because you are strong and the word of God abides in you, and you have overcome the evil one” (1Jn 2:14). In Eph 5:26 St. Paul speaks about, “cleansing her with the washing of water by the word”. The Word has power to cleanse us. Heb 4:12 says, “Indeed, the word of God is living and active, sharper than any two-edged sword, piercing until it divides soul from spirit, joints from marrow; it is able to judge the thoughts and intentions of the heart.” The Word of God can enter the depths of our being and cleanse us. The Word of God could not have been closer to anybody else than Mary who had the Word in her heart and in her womb.
✍ -Fr. Francis Scaria (Bhopal Archdiocese)
आज हम माता मरियम के निष्कलंक हृदय का पर्व मनाते हैं। आज का सुसमाचार हमें बताता है कि हम पवित्र वचन द्वारा पवित्र किए जाते हैं। आज के सुसमाचार अंश के अंत में, हमें बताया गया है, "उसकी माता ने ये सब बातें अपने हॄदय में संचित रखीं" (लूकस 2:51)। इसी तरह इसी अध्याय के वाक्य 19 में हम पढ़ते हैं, "मरियम ने इन सब बातों को अपने हृदय में संचित रखा" (लूकस 2:19)। इस प्रकार हमें मालूम होता है कि ईश्वर के वचनों को अपने हृदय में संचित रखना माता मरियम की आदत थी। उन्होंने ऐसा क्यों किया? उसका परिणाम क्या था? इन सबका उत्तर स्तोत्र ग्रन्थ में पाया जा सकता है, जहां स्तोत्रकार कहता है, "मैं तेरे वचन को अपने हृदय में रखता हूँ ताकि मैं पाप न कर सकूँ" (स्तोत्र ग्रन्थ 119:11)। 1 योहन 2:1 में संत योहन कहते हैं, “बच्चो! मैं तुम लोगों को यह इसलिए लिख रहा हूँ कि तुम पाप न करो"। उसी अध्याय के 14वें पद में वे कहते हैं, “युवको! मैं तुम्हें इसलिए लिख रहा हूँ कि तुम शक्तिशाली हो। तुम में ईश्वर का वचन निवास करता है और तुमने दुष्ट पर विजय पायी है।” योहन 15:3 में प्रभु येसु अपने शिष्यों से कहते हैं, “मैंने तुम लोगो को जो शिक्षा दी है, उसके कारण तुम शुद्ध हो गये हो।”। बहुत से लोग अपने जीवन में पापमय प्रवृत्तियों के विरुद्ध संघर्ष करते रहते हैं। आज का सुसमाचार सभी पापों से छुटकारा पाने का मार्ग प्रस्तुत करता है - ईश्वर के वचन को अपने हृदय में संचित रखने के द्वारा।
✍ - फ़ादर फादर फ्रांसिस स्करिया
Today we celebrate the feast of the Immaculate Heart of Mary. Today’s Gospel passage tells us how we are sanctified by the Word. At the end of today’s Gospel passage, we are told, “his mother treasured up all these things in her heart” (Lk 2:51). Similarly in an earlier passage in the same chapter we read, “Mary treasured all these words and pondered them in her heart” (Lk 2:19). Thus we realize that it was the habit of our Blessed Mother to treasure the Word of God in her heart. Why did she do that? What was the result of that? The answer can be found in the book of Psalms, where the Psalmist says, “I treasure your word in my heart, so that I may not sin against you” (Ps 119:11). In 1 Jn 2:1 St. John mentions the purpose of his writing this way: “I am writing these things to you so that you may not sin”. In the same chapter in verse 14 he says, “I write to you, young people, because you are strong and the word of God abides in you, and you have overcome the evil one”. In the high priestly prayer, Jesus prays, “Sanctify them in the truth; your word is truth”. In Jn 15:3, Jesus tells his disciples, “You have already been cleansed by the word that I have spoken to you”. Many of us struggle against sinful tendencies in our lives. The Gospel of today presents a way to get rid of all sins – by treasuring the Word of God in our Hearts.
✍ -Fr. Francis Scaria
आज के पहले पाठ में संत पौलुस अपने श्राताओं को याद दिलाते हैं कि वे मसीह में एक नये सृष्टि बन गये हैं। यदि कोई मसीह के साथ एक हो गया है, तो वह नयी सृष्टि बन गया है (2 कुरिन्थ 5:17)। मसीह मनुष्यों के प्रेम के कारण मरे और जी उठे हैं। इसीलिए मसीह का प्रेम हमारे हदयों में उमड़ पड़ा है। पौलुस कहते हैं कि यह सब ईश्वर ने किया है-उसने मसीह के द्वारा अपने से मेल कराया है। और हमारे अपराध उनके खर्चे में न लिखकर मसीह द्वारा अपने साथ संसार का मेल कराया है।
आज के सुसमाचर में प्रभु येसु शपथ और प्रतिज्ञा के बारे में बताते हैं कि झूठी शपथ कभी नहीं खानी चाहिए और प्रभु के सामने खायी शपथ हमेशा पुरी करना चाहिए (मत्ती 5:33) हमें किसी के सामने शपथ लेने का कोई अधिकार नहीं है क्योंकि हम ईश्वर के सामने शुन्य हैं। हम लेवी ग्रन्थ मे पढ़ते हैं-’’अपने ईश्वर का नाम अपवित्र करते हुए मेरे नाम की झूठी शपथ मत लो। मैं प्रभु हूँ।’’ (लेवी ग्रन्थ 19:12) प्रभु ने मुझे यह आदेश दिया है। यदि कोई प्रभु के लिए मन्नत या शपथ खाकर कोई दायित्व स्वीकार करता है, तो वह अपना वचन भंग न करे, बल्कि अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार उसका ठीक-ठीक पालन करें। (गणना ग्रन्थ 30:3)।
आइये हम प्रभु के वचन को स्वीकार करें और हमेशा संजोये रखने का प्रयास करें। हमारी बात इतनी हो हाँ की हाँ, नहीं की नहीं (मत्ती 5:37)।
✍फादर आइजक एक्काIn the first reading, Paul reminds his listeners that they have become new creation in Christ. If anyone is in Christ, there is a new creation. (2cor5:17). Because of the love of the humanity Christ died on the cross and rose again. And that is why the love of Christ is flowing in us. St Paul says that, “All this is from God, who reconciled us to himself through Christ. And that is, in Christ God was reconciling the world to himself, not counting their trespasses against them, and entrusting the message of reconciliation to us.
In today’s gospel Jesus tells about oaths and promises. We should never swear falsely, but carry out the vows made before God (Mt.5:33). No one has the right to take oaths and promises, because we are insignificant before God. We read in the book of Leviticus 19:12, “And you shall not swear falsely by my name, profaning the name of your God: I am the Lord”. The Lord has commanded us that, when a man makes a vow to the Lord, or swears an oath to bind himself by a pledge, he shall not break his word; he shall do according to all that proceeds out of his mouth (Num.30:2).Let us accept the word of the Lord and try to assimilate it. “Let our words be ‘yes, ‘yes or ‘no, ‘no (Mt5:37).
✍ -Fr. Isaac Ekka