8) दाऊद के वंश में उत्पन्न, मृतकों में से पुनर्जीवित ईसा मसीह को बराबर याद रखो- यह मेरे सुसमाचार का विषय है।
9) मैं इस सुसमाचार की सेवा में कष्ट पाता हूँ और अपराधी की तरह बन्दी हूँ;
10) मैं चुने हुए लोगों के लिए सब कुछ सहता हूँ, जिससे वे भी ईसा मसीह द्वारा मुक्ति तथा सदा बनी रहने वाली महिमा प्राप्त करें।
11) यह कथन सुनिश्चित है- यदि हम उनके साथ मर गये, तो हम उनके साथ जीवन भी प्राप्त करेंगे।
12) यदि हम दृढ़ रहे, तो उनके साथ राज्य करेंगे। यदि हम उन्हें अस्वीकार करेंगे, तो वह भी हमें अस्वीकार करेंगे।
13) यदि हम मुकर जाते हैं, तो भी वह सत्य प्रतिज्ञ बने रहेंगे; क्योंकि वह अपने स्वभाव के विरुद्ध नहीं जा सकते।
14) लोगों को इन बातों का स्मरण दिलाते रहो और ईश्वर को साक्षी बना कर उन से अनुरोध करो कि निरे शब्दों के विषय में वाद-विवाद न करें। इस से कोई लाभ नहीं होता, बल्कि यह सुनने वालों के विनाश का कारण हो सकता है।
15) अपने को ईश्वर के सामने सुग्राह्य और एक ऐसे कार्यकर्ता के रूप में प्रस्तुत करने का प्रयन्त करते रहो, जिसे लज्जित होने का कोई कारण न हो और जो निष्कपट रूप से सत्य का प्रचार करे।
28) तब एक शास्त्री ईसा के पास आया। उसने यह विवाद सुना था और यह देख कर कि ईसा ने सदूकियों को ठीक उत्तर दिया था, उन से पूछा, “सबसे पहली आज्ञा कौन सी है?“
29) ईसा ने उत्तर दिया, “पहली आज्ञा यह है- इस्राएल, सुनो! हमारा प्रभु-ईश्वर एकमात्र प्रभु है।
30) अपने प्रभु-ईश्वर को अपने सारे हृदय, अपनी सारी आत्मा, अपनी सारी बुद्धि और सारी शक्ति से प्यार करो।
31) दूसरी आज्ञा यह है- अपने पड़ोसी को अपने समान प्यार करो। इनसे बड़ी कोई आज्ञा नहीं।“
32) शास्त्री ने उन से कहा, “ठीक है, गुरुवर! आपने सच कहा है। एक ही ईश्वर है, उसके सिवा और कोई नहीं है।
33) उसे अपने सारे हृदय, अपनी सारी बुद्धि और अपने सारी शक्ति से प्यार करना और अपने पड़ोसी को अपने समान प्यार करना, यह हर प्रकार के होम और बलिदान से बढ़ कर है।“
34) ईसा ने उसका विवेकपूर्ण उत्तर सुन कर उस से कहा, “तुम ईश्वर के राज्य से दूर नहीं हो’’। इसके बाद किसी को ईसा से और प्रश्न करने का साहस नहीं हुआ।
एक सदूकी यहूदी नेताओं के द्वारा पूछे गये प्रश्नों के उत्तम उत्तर देने के येसु के तरीके से प्रभावित हो गया और उसने स्वयं उनसे पूछा, “सभी आज्ञाओं में सबसे पहली आज्ञा कौन सी है?” येसु को ध्यान से सुनने के बाद, उसने भी येसु द्वारा दिए गए उत्तर की सराहना की और येसु द्वारा दिए गए उत्तर की पुष्टि की। बदले में, उसकी प्रशंसा येसु ने की जिन्होंने कहा, “तुम ईश्वर के राज्य से दूर नहीं हो।” येसु अक्सर सदूकियों और फरीसियों की आलोचना करते थे और कई बार उनका विरोध भी करते थे। फिर भी उनमें से कुछ ऐसे भी थे जिनकी उन्होंने प्रशंसा की। जिस समाज में हम रहते हैं, वहाँ विनम्र और ईमानदार ईश्वर के खोजी होते हैं। लेकिन हमारे समाज में ऐसे लोग भी होते हैं जो खुद में बंद होते हैं और सत्य के प्रति अंधे होते हैं। उपाधियाँ और पद हमें मुक्ति की गारंटी नहीं देते हैं। मुक्ति उन विनम्र और ईमानदार ईश्वर के खोजियों को प्राप्त है जो उनके सत्य के लिए खुले हैं।
✍ - फादर फ्रांसिस स्करिया (भोपाल महाधर्मप्रान्त)
One of the scribes was fascinated by the way Jesus answered the questions paused by Jewish leaders and he himself asked him, “which commandment is the first of all?” After listening carefully to Jesus, he also admired the way Jesus answered the question and affirmed the answer given by Jesus. He, in turn, was admired by Jesus who said, “You are not far from the kingdom of God”. Jesus often criticized and opposed the scribes and Pharisees. Yet there were some among them who were also praised by him. In the society in which we live, there are humble and sincere seekers of God, as there are also those who are closed within themselves and are blind to the truth. Titles and positions do not guarantee salvation. Salvation is open to the humble and sincere seekers of God and his truth.
✍ -Fr. Francis Scaria (Bhopal Archdiocese)
येसु समस्त संहिता तथा नबियों की शिक्षाओं को दो आज्ञाओं में संक्षिप्त कर कहते हैं, ’अपने ईश्वर को अपनी सारी शक्ति से प्रेम करो तथा अपने पडोसी को अपने समान प्यार करो।’ दोनों ही आज्ञायें बहुत ही स्पष्ट है तथा समझने में सरल है किन्तु उनका पारस्परिक संबंध बहुत ही महत्वपूर्ण है। इन दोनों का आपसी संबंध इस बात को दर्शाता है कि हमारा ईष्वर सामुदायिक ईश्वर है। हमारे समय की सबसे सोचनीय तथा दयनीय स्थिति हमारे सामजिक एवं सामुदायिक जीवन का हर स्तर पर बिखराव है।
ऐसे अनेक लोग है जिनके लिये कलीसिया एक व्यक्गित एवं निजी मसला है। उनके लिये कलीसिया एक समुदाय न होकर ईश्वर के साथ अकेले समय बिताना मात्र होता है। वे जल्दी चर्च आते तथा घुटने टेकते है। मिस्सा के दौरान वे अपने चेहरों को अपनी हथेलियों के आगोश में समा देते हैं। मिस्सा के बाद भी वे देर तक येसु को क्रूस या पवित्र प्रकोष्ठ में निहारते रहते हैं। अंत में वे किसी से एक शब्द बोले बिना अपने घर चले जाते हैं। वे सोचते हैं कि उन्होंने येसु से मुलाकात की किन्तु जब तक वे प्रेम, उदारता तथा परोपकार में दूसरें सदस्यों से नहीं मिलते हैं वे यूखारिस्तीय येसु को अपने कल्पना के येसु से बदल देते हैं। हमारा ईश्वर सामुदायिक ईश्वर है जो चाहता है कि हम अपना जीवन, जीवन की संमपन्नता तथा प्रेम एक-दूसरे के साथ बिना किसी पूर्वाग्रह या सीमित्ता के साथ बांटे। हम ईश्वर के साथ तब तक अपने संबंधों को जब तक नहीं सुधार सकते जब तक हम एक-दूसरे के साथ अपने संबंधों को मधुर न बना ले। येसु भी सही और सार्थक रिश्तों पर जोर देते हैं।
येसु ने सदगुणों जैसे क्षमाशीलता, दयालुता, दान-दक्षिणा, विनम्रता आदि के अभ्यास पर जोर दिया। लेकिन हम इन सदगुणों को अकेले एवं एकांकी जीवन में कभी भी जी नहीं सकते हैं। इस सदगुणों को जीवन में ढालने के लिये हमें समुदाय की आवष्यकता पडती है। जब हम अपने पडोसी को माफ करते हैं तो वास्तव में उसके साथ अपने संबंधों को मधुर बनाते हैं। जब हम दूसरों को उदारता तथा विनम्रता दिखाते हैं तो वास्तव में अपनी धार्मिक आस्था को अधिक वास्तविक बनाते हैं। यह सब बातें हमें सुखी बनाती तथा प्रार्थना करने में मदद करती है जो अंत में ईश्वर के साथ हमारे संबंधों को मजबूत बनाती है।
✍ -फादर रोनाल्ड वाँन, भोपाल
Jesus sums up the entire law and the prophets in just two commandments, ‘Love your God with your complete self and love your neighbour as yourself.’ While both the commandments are self-explanatory the crucial point is the co-relationship between the two. This correlation proves that our God is a communitarian God. One of the most frightening phenomena of our time has been the breakdown of community at almost every level of society.
There are those for whom the Church is a private affair, their time alone with the Lord. They come early and they silently kneel. They bury their face in their hands during the mass. They remain afterwards gazing at the tabernacle. And they leave without ever having spoken a word to anyone. They think they’ve encountered Jesus in the Eucharist, but unless they have met their sister and their brother in charity they have replaced the Eucharistic Lord with a Jesus of their own imagination. Our God is the communitarian God who wishes that we share his love with one another without limit and hesitation. We cannot have a completely right relationship with God and wrong with our brother. Jesus insisted on the right relationship with the other.
In fact the virtues such as forgiveness, compassion, almsgiving, meekness etc. which Jesus fiercely advocated can’t be practiced in isolation. The testing factory of these virtues are the people with whom we share our life. When we extend forgiveness to our neighbour in fact, we are repairing our relationship with other. When we show generosity and meekness to others in fact gladdening our own hearts too. All these feelings help to pray well and love God.
✍ -Rev. Fr. Ronald Vaughan, Bhopal