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16) जब हम रोम पहुँचे, तो पौलुस को यह अनुमति मिली की वह पहरा देने वाले सैनिक के साथ जहाँ चाहे, रह सकता है।
17) तीन दिन बाद पौलुस ने प्रमुख यहूदियों को अपने पास बुलाया और उनके एकत्र हो जाने पर उन से कहा, भाइयो! मैंने न तो राष्ट्र के विरुद्ध कोई अपराध किया और न पूर्वजों की प्रथाओं के विरुद्ध, फिर भी मुझे बन्दी बनाया और येरुसालेम में रोमियों के हवाले कर दिया गया है।
18) वे सुनवाई के बाद मुझे रिहा करना चाहते थे, क्योंकि मैंने प्राणदण्ड के योग्य कोई अपराध नहीं किया था।
19) किंतु जब यहूदी इसका विरोध करने लगे, तो मुझे कैसर से अपील करनी पड़ी, यद्यपि मुझे अपने राष्ट्र पर कोई अभियोग नहीं लगाना था।
20) इसलिए मैंने आप लोगों से मिलने और बातें करने का निवेदन किया, क्योंकि इस्राएल की आशा के कारण मैं जंजीर पहने हूँ।’’
30) पौलुस पूरे दो वर्षों तक अपने किराये के मकान में रहा। वह सभी मिलने वालों का स्वागत करता था।
31) और आत्मविश्वास के साथ निर्विघ्न रूप से ईश्वर के राज्य का सन्देश सुनाता और प्रभु ईसा मसीह के विषय में शिक्षा देता था।
20) पेत्रुस ने मुड़ कर उस शिष्य को पीछे पीछे आते देखा जिसे ईसा प्यार करते थे और जिसने व्यारी के समय उनकी छाती पर झुक कर पूछा था, ’प्रभु! वह कौन है, जो आप को पकड़वायेगा?’
21) पेत्रुस ने उसे देखकर ईसा से पूछा, ’’प्रभ! इनका क्या होगा?’’
22) ईसा ने उसे उत्तर दिया, ’’यदि मैं चाहता हूँ कि यह मेरे आने तक रह जाये तो इस से तुम्हें क्या? तुम मेरा अनुसरण करो।’’
23) इन शब्दों के कारण भाइयों में यह अफ़वाह फैल गयी कि वह शिष्य नहीं मरेगा। परन्तु ईसा ने यह नहीं कहा कि यह नहीं मरेगा; बल्कि यह कि ’यदि मैं चाहता हूँ कि यह मेरे आने तक रह जाये, तो इस से तुम्हें क्या?’
24) यह वही शिष्य है, जो इन बातों का साक्ष्य देता है और जिसने यह लिखा है। हम जानते हैं कि उसका साक्ष्य सत्य है।
25) ईसा ने और भी बहुत से कार्य किये। यदि एक-एक कर उनका वर्णन किया जाता तो मैं समझता हूँ कि जो पुस्तकें लिखी जाती, वे संसार भर में भी नहीं समा पातीं।
संत योहन के समाचार में एक शिष्य का चार बार उल्लेख किया गया है, जिसका नाम नहीं लिया गया है, लेकिन उसे उस शिष्य के रूप में संदर्भित किया जाता है जिसे यीशु प्यार करता है। इस शिष्य का सम्बन्ध अक्सर पेत्रुस के साथ जुड़ा होता है, लेकिन पूरे समय बेनाम ही रहता है। इनके बारे में पहला वर्णन अंतिम भोज (योहन 13:23) में मिलता है, जहां वह प्रभु की छाती के सामने लेटा हुआ था।। दूसरा पवित्र क्रूस के नीचे ( योहन 19.26), जहां प्रभु उसे और अपनी माता मरियम को, ख्रीस्तीय विश्वासियों का एक नया परिवार बनाने के लिए उन्हें एक साथ लाते हैं। तीसरा खाली कब्र (योहन 20.2) पर, जहां पर यह शिष्य प्रभु येसु के पुनरुत्थान में विश्वास करता है, जबकि पेत्रुस हैरान रह जाता है। अंत में, प्रभु येसु चाहते हैं कि प्रिय शिष्य तब तक रहे जब तक मसीह का द्वितीय आगमन नहीं हो जाता।
इस शिष्य के बारे में यह वर्णन हमारे समाने प्रभु येसु के प्रिय शिष्य बनने के कुछ महत्वपूर्ण पहलुओं को रखता है। प्रभु का प्रिय शिष्य युखारिस्त बलिदान के दौरान प्रभु येसु से घनिष्टता से जुड़ जाता है जैसे यह शिष्य उनकी छाती पर लेटा हुआ था; प्रिय शिष्य प्रभु येसु के दुखभोग में सहभागी बनता है, वह माता मरियम के साथ कलवारी तक प्रभु के साथ रहता है, हमें भी प्रभु के दुखभोग में शरीक होना है। वह प्रभु ये पुनरुत्थान में विश्वास करता है, और इस पुनरुत्थान का गवाह बनता तथा हजारों लाखों तक इस गवाही को पहुंचता है। इस शिष्य का नाम नहीं दिया गया है क्योंकि यह आपका और मेरा सबका प्रतिनिधित्व करता है। हम में से हर कोई यह प्रिय शिष्य बनने के लिए बुलाइए गये हैं ।
✍ - फादर प्रीतम वसुनिया - इन्दौर धर्मप्रांत
The Fourth Gospel mentions a disciple four times, who is not named but is referred to as the disciple whom Jesus loves. This disciple is often associated with Peter, but remains unnamed throughout. The first occasion is at the Last Supper (John13:23), where he sits next to Jesus and is in close contact with him. The second is at the foot of the cross (John 19:26), where Jesus brings him and Mary, his mother, together to form the first Christian community and breathes his spirit over them. The third is at the empty tomb (John 20:2), where the beloved disciple recognizes and believes in the Resurrection, while Peter is puzzled. Finally, Jesus wants the Beloved Disciple to stay behind until he comes. According to the author, this disciple is the one who has witnessed these events, and his testimony is true.
This portrait of the beloved disciple shows him as a follower of Jesus who sits next to him at the Eucharist, shares in his Passion joins Mary to form the Christian community, believes in the Resurrection, and passes on the tradition until Jesus comes again. He is not named but is a representation of every Christian whom Jesus loves.
✍ -Fr. Fr. Preetam Vasuniya - Indore Diocese
आज पवित्र आत्मा के आगमन के त्यौहार पेंटेकोस्त की तैयारी का आखिरी दिन है। सुसमाचार हमें अंतिम समय की झलक देता है। सन्त योहन अपने सुसमाचार का समापन करते हैं। अगर सुसमाचार प्रभु येसु के बारे में है, और प्रभु येसु का अंत नहीं हो सकता तो सुसमाचार भी समाप्त नहीं हो सकता। यह एक नई शुरुआत की ओर इंगित करता है। भले ही प्रभु येसु अपने पिता के पास लौट गए और जिस तरह से उन्होंने पवित्र आत्मा को हमारे पास सहायक के रूप में भेजने का वादा किया था, वह वादा पेंटेकोस्ट पर पूर्ण भी हो जाता है। अब पवित्र आत्मा के मार्गदर्शन में आगे बढ़ने की बारी हमारी है।
सन्त योहन ने अपने सुसमाचार का समापन करते हुए लिखा है कि ‘ईसा ने और भी बहुत से कार्य किए। यदि एक-एक कर उनका वर्णन किया जाए तो मैं समझता हूँ कि जो पुस्तकें लिखीं जातीं, वे संसार भर में भी नहीं समा पाती।’ ईश्वर आज भी अपने काम में सक्रिय हैं, मेरे जीवन में, आपके जीवन में, हम सबके जीवन में सक्रिय हैं। अगर मैंने अपने जीवन में प्रभु को पाया है, प्रभु ने मेरे लिए कुछ किया है तो मुझे अपना खुद का सुसमाचार लिखना है। ईश्वर के प्रेम और महान कार्यों का साक्ष्य देना है। पवित्र आत्मा इसमें हमारी सहायता करे।
✍ - फ़ादर जॉन्सन बी. मरिया (ग्वालियर धर्मप्रान्त)
Today is the last day of preparation for receiving the Holy Spirit. The Gospel of today gives us a glimpse of conclusion. John the evangelist concludes his Gospel. If Gospel contains the life of Jesus and the life of Jesus is never ending, the Gospel also cannot end. This conclusion leads us to a new beginning. Jesus returns to His Heavenly and fulfills the promise of sending an Advocate to us. This promise gets fulfilled on the day of the Pentecost. Now it is our turn to follow this Advocate.
John, while concluding his gospel, writes - “Now there are also many other things that Jesus did. Were everyone of them to be written, I suppose that the world itself could not contain the books that would be written.” God is still at work in the lives of many. He is at work in my life, your life and everyone’s life. If I have experienced God in my life, if God has done something for me, then it is my turn to write a gospel. We need to give witness to the great works of God in our lives. May the Advocate help us in doing so.
✍ -Fr. Johnson B. Maria (Gwalior Diocese)
आज के सुसमाचार के अंश में हम संत योहन के सुसमाचार के अंतिम पदों को पाते है जहॉं पर येसु संत योहन के विषय में पेत्रुस को बताते है तथा साथ ही साथ हमें यह पता चलता है कि संत योहन ने अपने सुसमाचार में प्रभु के कार्यो का विवरण तो दिया है परंतु सभी कार्यो का विवरण नहीं दिया क्योंकि वह इतने अधिक है कि इस पुस्तक में समा नहीं पाती।
संत योहन का सुसमाचार चारों सुसमाचार के बीच में अलग पहचान बना के रखता है। संत योहन अपने सुसमाचार में गहरी से गहरी रहस्यों को हमारे समक्ष प्रकट करते है।
प्रभु येसु संत योहन के विषय में कहते है, ‘‘यदि मैं चाहता हॅूं कि यह मेरे आने तक रह जाये तो इससे तुम्हें क्या?’’ आगे चलकर इतिहास हमें बताता है कि उन बारह शिष्यों में सभी को शहादत मिली सिवाय एक शिष्य के और वे शिष्य है संत योहन।
प्रभु के जीवन को और उनके कार्यो को हमारे समक्ष रखने में संत योहन का बहुत बड़ा योगदान रहा है। संत योहन प्रभु येसु के प्रिय शिष्य थे और उन्होने प्रभु येसु के अद्भुत कार्यों, चमत्कारों, घटनाओं का प्रत्यक्ष दर्शन किया है और वहीं चीज़ों को संत योहन साक्ष्य के रूप में हमारे सामने प्रकट करते है।
आईये हम प्रार्थना करें कि संत योहन के सुसमाचार द्वारा बहुतो का उद्धार हो और बहुत से लोग विश्वासी बनें। आमेन!
✍ - फादर डेन्नीस तिग्गा
In today’s gospel passage we see the last verses of St. John’s gospel where Jesus tells about John to Peter and at the same time we come to know that though John have given the account of Lord’s work but he did not gave the account of all the works because they were so much that the book itself will not be able to contain it.
St. John’s gospel sets a separate recognition among the four gospels. St. John reveals in front of us the deepest mysteries in his gospel.
Jesus tells about John that, “If it is my will that he remain until I come, what is that to you? Later history tells us that among the twelve disciples eleven of them receive the martyrdom except one and that disciple is St. John.
St. John had made a great contribution to us by keeping before us the life of Jesus and his works. St. John was the beloved disciple of Jesus and He saw the wonderful works, miracles and events of Lord Jesus and the same thing he put in front of us as a witness.
Let’s pray that many may receive salvation through St. John’s gospel and many may become believers. Amen!
✍ -Fr. Dennis Tigga
आज का सुसमचार संत योहन के अनुसार सुसमाचार का अंतिम भाग है। संत योहन लिखते हैं कि जो कार्य प्रभु येसु ने किए उन सबको लिखा जाए तो इतनी पुस्तकें लिख जातीं कि इस दुनिया में भी नहीं समातीं। संत योहन ने सुसमचार की रचना साक्ष्य के रूप में की है। जैसे उन्होंने प्रभु येसु को अनुभव किया अपने जीवन में और दूसरों के जीवन में, उस अनुभव को साक्ष्य के रूप में सुसमाचार में वर्णित किया है।
ईश्वर सदा हमारे जीवन में चमत्कार करते रहते हैं, वे सदा हमारे जीवन में सक्रिय हैं। वह अनेक तरह से हमारे प्रति अपने प्रेम को प्रकट करते हैं। वह अनेक तरह से दूसरों के जीवन को छू लेते हैं। हम अपने मन में झाँकें और खुद से पूछें, ‘क्या मैंने अपने जीवन में ईश्वर के चमत्कारों को अनुभव किया है? क्या मैं अपने जीवन द्वारा ईश्वर के प्रेम का साक्ष्य देता हूँ? क्या मैं अपने जीवन में और दूसरों के जीवन में ईश्वर के चमत्कारों के साक्ष्य को अपने सुसमाचार के रूप में लिख सकता हूँ? संत योहन के सुसमाचार का अंत एक अंत नहीं बल्कि एक नहीं शुरुआत है - हम सब के अपने-अपने सुसमाचार की शुरुआत। आमेन।
✍ - फादर जॉन्सन बी. मरिया (ग्वालियर धर्मप्रान्त)
Today we see the end of the Gospel of St. John. And he writes that if everything Jesus did were to be written, the world itself could not contain the books that would be written. John is the disciple who has written the gospel as a testimony to what Jesus did and the disciples had experienced it.
God is always active and doing miracles in all our lives. He expresses his love in various ways. He touches the lives of people in various ways. Let us reflect and ask ourselves, have I experienced God’s wonders in my life? Do I bear witness to God’s love through my life? Can I write my own gospel of what I witness in my life and others life? Today conclusion of the gospel of John is not the end, it is the beginning, a new beginning of the gospel according to each one of us. Amen.
✍ -Fr. Johnson B.Maria (Gwalior)