मई 10, 2024, शुक्रवार

पास्का का छठवाँ सप्ताह

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📒 पहला पाठ : प्रेरित-चरित 18:9-18

9) प्रभु ने किसी रात को दर्शन दे कर पौलुस से यह कहा, ’’डरो मत, बल्कि बोलते जाओ और चुप मत रहो।

10) मैं तुम्हारे साथ हूँ। कोई भी तुम पर हाथ डाल कर तुम्हारी हानि नहीं कर पायेगा; क्योंकि इस नगर में बहुत-से लोग मेरे अपने हैं।’’

11) पौलुस लोगों को ईश्वर के वचन की शिक्षा देते हुए वहाँ ड़ेढ़ बरस रहा।

12) जिस समय गल्लियो अख़ैया का प्रान्तपति था, सब यहूदी मिल कर पौलुस को पकड़ने आये और उसे न्यायालय ले जाकर

13) उन्होंने यह कहा, ’’यह व्यक्ति ईश्वर की ऐसी पूजा-पद्धति सिखलाता है, जो संहिता से भिन्न हैं’’।

14) पौलुस अपनी सफाई में बोलने ही वाला था कि गल्लियों ने यहूदियों से यह कहा, ’’यहूदियों! यदि यह अन्याय या अपराध का मामला होता, तो मैं अवश्य धैयपूर्वक तुम लोगों की बात सुनता।

15) परन्तु यह वाद-विवाद शिक्षा, नामों और तुम्हारी संहिता से सम्बन्ध रखता है। यह मामला तो तुम लोगों का है। मैं ऐसी बातों का न्याय करना नहीं चाहता।’’

16) और उसने उन्हें न्यायालय से बाहर निकलवा दिया।

17) तब सब यहूदियों ने सभागृह के अध्यक्ष सोस्थेनेस को पकड़ कर न्यायालय क सामने पीटा, किन्तु गल्लियों ने इसकी कोई परवाह नहीं की।

18) पौलुस कुछ समय तक कुरिन्थ में रहा और इसके बाद वह भाइयों से विदा ले कर प्रिसिल्ला तथा आक्विला के साथ, नाव से सीरिया चला गया। उसने किसी व्रत के कारण केंखयै में सिर मुंड़ाया।

📙 सुसमाचार : सन्त योहन 16:20-23

20) मैं तुम लोगों से यह कहता हूँ ’’तुम रोओगे और विलाप करोगे, परंतु संसार आनंद मनायेगा। तुम शोक करोगे किन्तु तुम्हारा शोक आनन्द बन जायेगा।

21) प्रसव निकट आने पर स्त्री को दुख होता है, क्योंकि उसका समय आ गया है; किन्तु बालक को जन्म देने के बाद वह अपनी वेदना भूल जाती है, क्योंकि उसे आनन्द होता है कि संसार में एक मनुष्य का जन्म हुआ है।

22) इसी तरह तुम लोग अभी दुखी हो, किन्तु मैं तुम्हे फिर देखूँगा और तुम आनन्द मनाओगे। तुम से तुम्हारा आनन्द कोई नहीं छीन सकेगा।

23) उस दिन तुम मुझ से कोई प्रश्न नहीं करोगे। मैं तुम लोगों से यह कहता हूँ- तुम पिता से जो कुछ माँगोगे वह तुम्हें मेरे नाम पर वही प्रदान करेगा।

📚 मनन-चिंतन

आज का सुसमाचार हमारे सामने एक भ्रमित करने वाली तस्वीर रखता है। हमारे सामने सवाल ये है कि जब प्रभु येसु अपने शिष्यों से दूर जाने और फिर से वापस आने की बात करते हैं, तो क्या वे अपनी मृत्यु और पुनरुत्थान के दौरान अपनी अनुपस्थिति या फिर आत्मा में लौटने से पहले अपनी शारीरिक अनुपस्थिति का उल्लेख कर रहे हैं? क्या हम उनके दुखभोग और पुनरुत्थान के बीच या स्वर्गारोहण के बाद उसकी अनुपस्थिति की तैयारी कर रहे हैं? या वे फिर दूसरे आगमन तक अपनी अनुपस्थिति का जिक्र कर रहे हैं? वैकल्पिक रूप में हम यह भी पूछ सकते हैं, कि क्या प्रभु येसु अपने वफादार लोगों की प्रार्थनाओं में अपनी अनुपस्थिति की बात कर रहे हैं, जब ‘आत्मा की अंधेरी रात’ में, सब प्रकार के सुकून और सांत्वना से व्यक्ति खुद को वंचित पाता है उसको ईश्वर अनुपस्थित अथवा छिपे हुए प्रतीत होते हैं? या फिर प्रभु का ये कथन जीवन की उन तमाम कठिन परिस्थितियों का रूपक है जिससे हर विश्वासी को गुज़ारना होगा?

पवित्र बाइबिल में बच्चे के जन्म की पीड़ा की तुलना कई बार मसीह के आगमन के पूर्व की पीड़ा से की गई है। (मारकुस 13.8)। आज के सुसमाचार के वचन 21 में, माता और शिशु जन्म की उपमा में माँ इसलिए आनंदित नहीं होती कि उसे दर्द से राहत मिली है बल्कि इस बात से कि उसने एक नए जीवन को जन्म दिया है। वह इस नए जीवन को लेकर आनंदित हो जाती है और सारा दर्द और पीड़ा भूल जाती है। हर माँ यह जानती है कि अभी और भी बहुत परेशानी आने वाली है, लेकिन यह एक उदार प्रेम का आनंद है, और इसमें थोड़ी भी स्वार्थता नहीं है।

हम भी हमारे जीवन में आने वाली चुनौतियों, कष्टों, अत्याचार, व धार्मिक सताव से राहत की कामना न करते हुए भावी महिमामय जीवन की ओर अपनी दृष्टि लगायें। ये सब समाप्त हो जायेगा, पर उसके बाद हमें जो हासिल होगा वो अद्भुत और महान है।

- फादर प्रीतम वसुनिया - इन्दौर धर्मप्रांत


📚 REFLECTION

When Jesus speaks of going away and coming back again, is he referring to his absence during his death and Resurrection or his physical absence before he returns in the Spirit? Are we preparing for his absence between Passion and Resurrection or after the Ascension? Or is he referring to his absence until the Second Coming? Alternatively, is Jesus speaking of his seeming absence in the prayers of his faithful ones, during the ‘dark night of the soul,’ when all satisfaction is denied, and God seems to be absent and hidden? Or are they all metaphors for the difficulties of life?

The Gospel applies the metaphor of the pains of childbirth more than once to the agony of the turmoil that will precede the Second Coming (Mark 13.8). The horrors of that final battle with evil, which are said to be “unparalleled since the world began,” are also stressed by Mark 13 in his apocalyptic description. In verse 21, the use of the metaphor expresses a little enriching factor: the joy of the mother is not at her own relief from pain but is a joy in the life of another, the potentialities of the new life. Every mother knows that there is a lot more trouble to come, but it is the joy of generous love, and there is nothing selfish about it. We too should not seek relief from the challenges, sufferings, atrocities, and religious persecution in our lives, but should set our eyes towards the glorious life ahead. All this will end, but what we will achieve after that is wonderful.

-Fr. Fr. Preetam Vasuniya - Indore Diocese

📚 मनन-चिंतन-2

आज के पहला पाठ इस बात का उदाहरण है कि जैसा प्रभु ने कहा कि मैं सदा तुम्हारे साथ हूँ, उसी तरह प्रभु सन्त पौलुस के साथ रहे भी। सन्त पौलुस प्रभु के सुसमाचार के लिए बहुत कष्ट उठा रहे थे। एक स्थान से दूसरे स्थान तक यात्रा कर रहे थे, आक्रमण का शिकार हो रहे थे, दुश्मनों के क्रोध का सामना भी कर रहे थे। इसके बारे में हम 2 कुरीन्थियों 11:23-28 तक में विस्तार से पढ़ सकते हैं। वे सारे कष्ट और परेशानियाँ अपने व्यक्तिगत लाभ के लिए नहीं उठा रहे थे, बल्कि प्रभु की खातिर। कभी कभी हमारे जीवन में भी दुख और विपत्तियाँ आती हैं, हम जीवन में निराश होते हैं। तरह-तरह के कष्टों का सामना हमें करना पड़ता है। और फिर हमें याद आता है कि प्रभु ने तो कहा है कि ‘याद रखो मैं संसार के अंत तक सदा तुम्हारे साथ हूँ’ लेकिन उस कष्ट और विपत्ति में हमें प्रभु के साथ का अनुभव नहीं होता। तब हम सवाल करते हैं, क्या वास्तव में प्रभु मेरे साथ है? लेकिन हम ये सवाल कभी नहीं करते कि क्या वास्तव में मैं प्रभु के साथ हूँ? क्या मैं प्रभु के लिए कष्ट उठाने के तैयार हूँ? मैंने प्रभु के लिए क्या किया है? अगर हम प्रभु का कार्य करते हुए कष्ट और विपत्तियों का सामना करते हैं तो प्रभु क्यों हमारे साथ नहीं रहेगा, क्यों हमारी रक्षा नहीं करेगा?

- फ़ादर जॉन्सन बी. मरिया (ग्वालियर धर्मप्रान्त)


📚 REFLECTION

Today’s first reading is an example how Jesus fulfills his promise of always being with his disciples. Jesus had promised that ‘I am always with you’ and we see that he was there with Saint Paul. Saint Paul was facing daily challenges and difficulties and attacks for the sake of the gospel. He was traveling far and wide , he was attacked by his enemies, he faced the wrath and anger of his enemies. We can read the details about his trials and tribulations in 2 Corinthians 11:23-28 . He was not facing those difficulties and trials and tribulations and persecutions for his own personal gain But for the sake of the Lord. Sometimes we also face difficulties and challenges and crisis in our life and we become depressed. There are difficulties and challenges that break us in our life. And then we remember that Jesus has promised us that he will be there always with us . but we fail to feel his presence in that time of crisis. Then we start questioning ‘is God there with me? But we never ask questions whether ‘am I with God? Am I ready to face challenges, undergo persecution for the Lord? What have I done for God? If we face persecutions and challenges and difficulties for the sake of the Lord then why would he not remain with us and protect us?

-Fr. Johnson B. Maria (Gwalior Diocese)

📚 मनन-चिंतन- 3

कैंटरबरी के संत ऑगस्टाइन इंग्लैंड के संरक्षक संत हैं। 596 AD में, ऑगस्टाइन के नेतृत्व में लगभग 400 भिक्षु रोम से निकले, इंग्लैंड में सुसमाचार का प्रचार करने के लिए । रास्ते में, एंग्लो-सैक्सन की क्रूरता और इंग्लिश चैनल के विश्वासघाती कहानियों ने समूह को वापस कर दिया। पोप ग्रेगरी द ग्रेट ने ऑगस्टीन को आश्वासन दिया कि उनका डर निराधार था, और इसलिए वे फिर से सफर में निकल गए। किंग एथेलबर्ट द्वारा शासित केंट के क्षेत्र में सफलतापूर्वक उतरने के बाद, ऑगस्टीन ने अपना काम शुरू किया -कुछ ही वर्ष के भीतर, राजा एथेलबर्ट ने बपतिस्मा लिया। ऑगस्टाइन को फ्रांस में एक बिशप के रूप में अभिषेक किया गया और कैंटरबरी लौट आए जहां उन्होंने अपनी कलीसिया की स्थापना की। उन्होंने एक चर्च और मठ का निर्माण किया जहां वर्तमान में कैथेड्रल खड़ा है। जैसे ही विश्वास फैल गया, लंदन और रोचेस्टर में अतिरिक्त केंद्र स्थापित किए गए। हालांकि ऑगस्टीन का काम कभी-कभी धीमा था और हमेशा सफलता नहीं मिलता था, वह हमें एक उदाहरण प्रदान करता है कि बाधाओं के बावजूद दृढ़ता और दृढ़ता कैसे काम में सफलता दिलाती है ! हमें प्रभु पर भरोसा रखते हुए चलते रहना चाहिए।

- फादर पायस लकड़ा


📚 REFLECTION

Saint Thomas Aquinas started in the right direction with this piece of wisdom: ‘The end of education is contemplation.’ I like the definition of contemplation that describes it as ‘the enjoyment of God.’

Our life consists of sadness and joy and Jesus recognizes this. That is why in today’s gospel reading, He tells His disciples that after the Resurrection they shall see Him again. And He adds: “And your hearts will rejoice, and no one will take your joy away from you,” (v. 22). These words are also true to us. Whatever our trials, we can always find strength, consolation and yes an abiding joy in the thought that our Lord is forever happy and wants us to have a joy no one can take from us.

We pursue joy in every avenue imaginable. Some of us have successfully found it while others have not.

Many times in our lives, while we are so very busy with the things of this world and go with its flow, we lose the sight of the Lord. And before realizing it we are already plastered all sorts of worldly promises and distractions offering us nothing but confusion.

-Fr. Pius Lakra

📚 मनन-चिंतन -4

आज २२ मई है आज से हम पेंटेकॉस्ट की तैयारी स्वरूप पवित्र आत्मा के आदर में नोवीना की शुरुआत करते हैं। प्रभु येसु ने अपनी ज़िम्मेदारी पूरी कर ली है, पिता द्वारा दी हुई ज़िम्मेदारी। अब उनकी बारी थी, अब उन्हें अपनी ज़िम्मेदारी पहचाननी और पूरी करनी है। यह संसार की ज़िम्मेदारी नहीं है इसलिए संसार खुश है, उसने प्रभु येसु को नहीं पहचाना है, लेकिन शिष्य शोक मनायेंगे क्योंकि प्रभु उनके दूर जा रहे हैं, फिर चाहे वह थोड़े हाई समय के लिए क्यों ना हो। कभी-कभी किसी की अनुपस्थिति भी उनकी उपस्थिति महसूस करने का बड़ा कारण बन जाती है। ईश्वर की अनुपस्थिति बड़ी दुखदायी है, शोक उत्पन्न करने वाली है, ख़ासकर उनके के लिए जो ईश्वर को प्यार करते हैं, और अपने जीवन में ईश्वर की उपस्थिति के आदी हैं। जिन्होंने ईश्वर की उपस्थिति को अपने जीवन में अनुभव नहीं किया है, उन्हें ईश्वर की अनुपस्थिति बिल्कुल भी नहीं खलेगी। चूँकि संसार ने प्रभु को स्वीकार नहीं किया इसलिए उसकी अनुपस्थिति से उसे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ेगा लेकिन शिष्य प्रभु को प्यार करते थे इसलिए उन्हें दुःख सहना था। क्या हमें कभी प्रभु की अनुपस्थिति से कष्ट हुआ है। आइए हम प्रार्थना करे कि हम कभी भी ईश्वर से अलग ना हों। आमेन।

- फादर जॉन्सन बी. मरिया (ग्वालियर धर्मप्रान्त)


📚 REFLECTION

Today we begin the Novena to the Holy Spirit as a preparation for Pentecost. Jesus had completed his task, now it was their turn. They had to realise their responsibility, others who belong to the world, have no problem they will be happy, but the disciples will be sad. Absence sometimes is very powerful tool to realise the presence. Sometimes we ourselves effect this and sometimes God makes us to realise it. Absence of God is painful especially for those who are used to the presence of God. Those who have not experienced the presence of God for them it matters less, because the world has not accepted Jesus, the world wouldn’t miss him. It will not be sad when he is absent. Because the disciples loved Jesus they had to undergo the pain of missing him, even if it was for a little while. Let us pray to Lord that we may never part from the Lord. Amen.

-Fr. Johnson B.Maria (Gwalior)