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26) ’’भाइयों! इब्राहीम के वंशजों और यहाँ उपस्थित ईश्वर के भक्तों! मुक्ति का यह संदेश हम सबों के पास भेजा गया है।
27) येरुसालेम के निवासियों तथा उनके शासकों ने ईसा को नहीं पहचाना। उन्हें दण्डाज्ञा दिला कर उन्होंने अनजाने ही नबियों के वे कथन पूरे कर दिये, जो प्रत्येक विश्राम-दिवस को पढ़ कर सुनाये जाते हैं।
28) उन्हें प्राणदण्ड के योग्य कोई दोष उन में नहीं मिला, फिर भी उन्होंने पिलातुस से अनुरोध किया कि उनका वध किया जाये।
29) उन्होंने उनके विषय में जो कुछ लिखा है, वह सब पूरा करने के बाद उन्हें क्रूस के काठ से उतारा और कब्र में रख दिया।
30) ईश्वर ने उन्हें तीसरे दिन मृतकों में से पुनर्जीवित किया
31) और वह बहुत दिनों तक उन लोगों को दर्शन देते रहे, जो उनके साथ गलीलिया से येरुसालेम आये थे। अब वे ही जनता के सामने उनके साक्षी हैं।
32) हम आप लोगों का यह सुसमाचार सुनाते हैं कि ईश्वर ने हमारे पूर्वजों से जो प्रतिज्ञा की थी।
33) उसे उनकी संतति के लिए अर्थात् हमारे लिए पूरा किया है। उसने ईसा को पुनर्जीवित किया है, जैसा कि द्वितीय स्तोत्र में लिखा है, तुम मेरे पुत्र हो। आज मैंने तुम को उत्पन्न किया हैं।
1) तुम्हारा जी घबराये नहीं। ईश्वर में विश्वास करो और मुझ में भी विश्वास करो!
2) मेरे पिता के यहाँ बहुत से निवास स्थान हैं। यदि ऐसा नहीं होता, तो मैं तुम्हें बता देता क्योंकि मैं तुम्हारे लिये स्थान का प्रबंध करने जाता हूँ।
3) मैं वहाँ जाकर तुम्हारे लिये स्थान का प्रबन्ध करने के बाद फिर आऊँगा और तुम्हें अपने यहाँ ले जाउँगा, जिससे जहाँ मैं हूँ, वहाँ तुम भी रहो।
4) मैं जहाँ जा रहा हूँ, तुम वहाँ का मार्ग जानते हो।
5 थोमस ने उन से कहा, ’’प्रभु! हम यह भी नहीं जानते कि आप कहाँ जा रहे हैं, तो वहाँ का मार्ग कैसे जान सकते हैं?’’
6) ईसा ने उस से कहा, ’’मार्ग सत्य और जीवन मैं हूँ। मुझ से हो कर गये बिना कोई पिता के पास नहीं आ सकता।’’
सुसमाचार में येसु अपने शिष्यों से कहते हैं, "तुम्हारा जी घबराये नहीं। " इसका तात्कालिक कारण येसु की उन्हें दी गई चेतावनी है कि उनके साथ क्या होने वाला है। येसु के उन्हें छोड़ने और पेत्रुस द्वारा विश्वासघात की भविष्यवाणियों से शिष्य परेशान हैं। उन्हें सही रास्ते पर लाने के लिए येसु अपने शिष्यों से कहते हैं कि वे ईश्वर में विश्वास करे और उन पर भी विश्वास करे। येसु शिष्यों के भय का समर्थन किए बिना उन्हें स्वीकार किया। उनके डर को केंद्रबिंदु बनाने के बजाय,येसु उन्हें विश्वास की ओर बुलाते हैं। हम येसु को पहचानने के लिए बुलाये गए है जो मार्ग, सत्य और जीवन है। येसु हमें केवल पिता की ओर संकेत नहीं करते, बल्कि वे स्वयं मार्ग हैं। वे वह दिशा है जो हमें मंजिल तक ले जाती है। येसु देहधारी सत्य है। यहूदी लोगों के लिए, संहिता जीवन की पुस्तक थी। अब येसु जीवनदाता बन गये। क्या कोई डर या परेशानी है जो आपको येसु ख्रीस्त के जीवन की पूर्ण शांति और खुशी से दूर रखती है?
✍ - फादर संजय कुजूर, एसवीडी
In the Gospel Jesus tells his disciples to “not let your hearts be troubled”. The immediate reason is Jesus’ warnings to them of what is going to happen to him. The disciples are disturbed by the predictions of betrayal, of Jesus’ leaving them and betrayal by Peter. To bring them to the track Jesus tells his disciples to have faith in God and also to have faith in Him. Jesus acknowledges the disciples’ fear without endorsing it. Instead of making their fear the focus, Jesus calls them to faith. We are called to recognise Jesus who is the way, the truth, and the life. Jesus does not simply point us to the Father, but is himself the pathway. He is the direction that leads us to the destination. Jesus is the truth in the flesh. For the Jewish people, the Torah was the book of life. Now Jesus becomes the life-giver. Is there any fear or trouble which keeps you from the perfect peace and happiness of a life Christ?
✍ -Fr. Sanjay Kujur SVD
ईश्वर हमारे कण कण को जानता है वह हमें हमारे जन्म से पहले ही जनता है। उसके पास हमारे लिए उज्ज्वल भविष्य की योजना है। जब हम पृथ्वी पर अपने इस जीवन को पूरा करते हैं तो हम अपने स्वर्गीय पिता के पास वापस लौट जाते हैं। लेकिन कभी कभी हम यह भूल जाते हैं कि हम एक यात्रा पर हैं वह यात्रा जो हमारे स्वर्गीय निवास की ओर है। कभी कभी हम अपने जीवन के सर्वोच्च उद्देश्य को भूल जाते हैं । संसार के आकर्षण और व्यस्तताएं हमें हमारे जीवन के सर्वोच्च उद्देश्य को भुला देती है । आज के सुसमाचार में प्रभु येसु हमे हमारे स्वर्गीय निवास की याद दिलाते हैं। वो हम से पहले जाएंगे और हमारे लिए स्वर्ग में निवास तैयार करेंगे। स्वर्ग में हम सभी के लिए पर्याप्त स्थान है , लेकिन क्या हम उस स्वर्गीय निवास में रहने के योग्य हैं?
हमारा स्वर्गीय निवास जीवंत ईश्वर की उपस्थिति में रहना है लेकिन क्या हम अपने पापी स्वभाव के साथ पिता ईश्वर के दर्शन कर सकते हैं ? यदि हमारा हृदय पाप से मलिन है तो क्या हम ऐसी दशा में पवित्र ईश्वर के दर्शन कर सकते हैं? प्रभु यीशु संसार के पापों को मिटाने के लिए आए थे लेकिन उससे पहले हमें प्रभु येसु को अपने जीवन में एवं अपने परिवार में स्वीकार करना होगा । पहले हमें अपने जीवन में प्रभु के लिए स्थान देना है तभी हमें स्वर्गीय निवास में स्थान मिलेगा ।
✍ - फ़ादर जॉन्सन बी. मरिया (ग्वालियर धर्मप्रान्त)
God knows us through and through even before we are born. He has plans for our life. When we complete our course of life on this earth, we return to our heavenly father. Sometimes we forget, that we are on a journey, a journey towards our eternal home. Sometimes we lose sight of our ultimate goal. The worldly affairs and attractions make us forget about our real destiny. Jesus today reminds us about our eternal home. He would go and prepare a place for each of us. There is place for all, we just need to prepare ourselves as worthy residents for those rooms.
Our eternal home is to live in the living presence of God, , but can we see God with our sinfulness, can we live in the presence of God with our hearts filled with sin? Jesus came to wipe away our sins, but first, we need to accept him in our life and our homes. First, we need to give a room to Jesus in our homes and hearts, then we can also find a place and room in our heavily home.
✍ -Fr. Johnson B. Maria (Gwalior Diocese)
थॉमस की तरह, मैं खुद को कभी-कभी यीशु से यह प्रश्न पूछते हुए पाता हूँ, 'मैं रास्ता कैसे जान सकता हूँ?' मेरे जीवन एक चौराहे पर है, मैं कैसे जान सकता हूँ कि कार्रवाई का सबसे अच्छा तरीका क्या है? जब एक कठिन चुनाव मेरे सामने आता है, तो क्या करना सही है? यीशु मुझे दिलासा देते हैं: 'तुम्हारे दिलों को परेशान मत होने दो, परमेश्वर पर विश्वास करो, मुझ पर भी विश्वास करो।' वह कहते हैं, 'मार्ग और सच्चाई और जीवन मैं ही हूं। मेरे द्वारा ही कोई पिता के पास आता है।' यह ध्यान केंद्रित करने के लिए एक शक्तिशाली अनुस्मारक है, या मेरे लिए उनके आह्वान का पालन करने के लिए परमेश्वर की इच्छा के लिए 'अंशांकित' है। परमेश्वर की इच्छा है कि मैं पवित्र आत्मा से परिपूर्ण प्रेम और सेवा का जीवन जीऊं। मेरा दिल सच्चाई, सुंदरता और अच्छाई चाहता है। मैं यीशु के करीब रहना चाहता हूं और अधिक गहराई से विश्वास करना चाहता हूं। मैं इस अनुग्रह के लिए कि मैं और अधिक गहराई से विश्वास करूं, मेरे तरीकों को यीशु के तरीकों के साथ संरेखित करूं, और सच बोलने के लिए प्रार्थना करता हूं । मेरे मार्गदर्शक के रूप में यीशु के साथ, मैं भी दूसरों के लिए एक प्रकाश बन जाऊ, और लोगों को परमेश्वर पिता के करीब लाने में मदद कर सकूँ।
13 मई 1917 को, प्रथम विश्व युद्ध के उस तीसरे वर्ष में, जिसमें आठ मिलियन लोगों की जान जाने वाली थी, महत्वपूर्ण घटनाएं एक साथ हो रही थीं - रूस में, लेनिन और ट्रॉट्स्की के नेतृत्व में साम्यवादी, नास्तिक बोल्शेविज्म का आयोजन किया जा रहा था, सेंट पीटर्सबर्ग में; फातिमा के छोटे से पुर्तगाली शहर के पड़ोस में, माँ ने खुद तीन बच्चों के लिए पहले प्रकट हुवे, उनके माध्यम से हमारी भौतिकवादी, युद्धग्रस्त दुनिया के लिए एक अंतिम अपील किया।
"हमारे परमेश्वर के लिए बलिदान की भावना में, क्या आप उन सभी पापों की क्षतिपूर्ति के रूप में, सभी पापियों को परिवर्तित करने के साधन के रूप में, और प्रायश्चित के रूप में स्वीकार करने के लिए तैयार हैं। मैरी का दिल? ” उनका उत्तर एक सरल "हां" में था, उसने आग्रह किया: "फिर दुनिया की शांति के लिए नियमित और भक्तिपूर्वक माला की प्रार्थना करें!" "रोज़री रोज़ाना पढ़ें, और हर दशक के ग्लोरिया पैट्री के बाद जोड़ें: हे मेरे यीशु, हमारे पापों को क्षमा करें! हमें नरक की आग से बचाओ! सभी आत्माओं को स्वर्ग की ओर ले चलो, विशेषकर उन्हें जिन्हें आपकी दया की सबसे अधिक आवश्यकता है!"
और 13 अक्टूबर को, उसने घोषणा की: “मैं पवित्र माला की महिला हूँ! मैं पूरी मानव जाति से तपस्या करने और उसके पापों के लिए क्षमा माँगने आया हूँ! उन अनगिनत अपमानों में वृद्धि न करें जिनसे हमारे परमेश्वर पहले से ही बहुत नाराज हैं, खासकर अशुद्धता के पापों से।"
चिंतन: "मुझे अभी तक ऐसा कोई व्यक्ति नहीं मिला है जो परिवर्तित नहीं हुआ था, यदि पहले मेरे पास माला प्रार्थना करने का समय होता" (सेंट क्लेमेंट)।
✍ - फादर पायस लकड़ा
It is said that the Soviet dictator Joseph Stalin so feared for his safety that his residence in Moscow contained eight bedrooms. Each night Stalin chose a bedroom at random to ensure that no one knew exactly where he was sleeping.
Christ in today’s gospel reading presents Himself as the antidote to fear: “I am the way, the truth and the life. No one comes to the Father except through me.”
Jesus says: “I am the Way.” The Lord Jesus does not simply give advice and direction. He personally is the way and we cannot miss it. He leads and guides us personally every day.
Jesus also says: “I am the Truth.” Many of us can say, “I have taught you the truth.” But only Jesus can say, ‘I am the Truth.’
Jesus also says: “I am the Life.” He not only ‘shows us the path of life’ (Ps. 16:11); He gives the kind of life which only God can give, eternal life. Is there any fear or trouble which keeps us from the perfect peace and happiness of a life surrendered to Jesus Christ?
✍ -Fr. Pius Lakra
प्रभु येसु प्रतिज्ञात मुक्तिदाता एवं मसीह थे जिन्हें ईश्वर ने भेजा था। किन्तु जिन लोगों को उनका स्वागत करना था उन्होंने ने ही उन्हें को क्रूस पर चढाकर मार डाला। उन्होंने उन्हें पहचाना नहीं तथा अपने अज्ञान में उन्हें मार डाला। वे शायद ऐसे मसीह की राह देख रहे थे जो उन्हें रोमियों से मुक्ति दिला कर राजनैतिक सत्ता को उलटफेर दे।
उनके इस कुकर्म और अज्ञान का कारण यह था कि उन्होंने धर्मग्रंथ में दी गयी नबियों की वाणियों पर ध्यान जिन्हें उनके सभागृहों हर विश्राम दिवस को पढकर सुनाई जाती थी। (13:27) उन्होंने वचन को सुना पर समझे नहीं। येसु उनके इसी पाखण्ड को दिखाते हुये कहते हैं, ’’तुम लोग यह समझ कर धम्रग्रन्थ का अनुशीलन करते हो कि उस में तुम्हें अनन्त जीवन का मार्ग मिलेगा। वही धर्मग्रन्ध मेरे विषय में साक्ष्य देता है, फिर भी तुम लोग जीवन प्राप्त करने के लिए मेरे पास आना नहीं चाहते।’’ (योहन 5:39-40)
धर्मग्रंथ को जानता तथा उसे समझना दो अलग-अलग बातें हैं। वचन को जानने के लिये हमें मनुष्य के प्रयासों की जरूरत पडती है किन्तु उसे समझने के लिये ईश्वर की सहायता की आवश्यकता महसूस होती है क्योंकि वे ईश-वचन है जिन्हें केवल ईश्वर ही समझा सकता है। वचन को समझने के हमें अपने पूर्वाग्रहों तथा मानसिक-व्यवस्ता से परे जाना होगा। हमें वचन को खुले दिल से समझना चाहिये जिससे वह जो हमें बनाना चाहता है वह भले ही हमारे आशाओं के विपरीत हो क्यों न हो हम समझ सके। यदि हम किसी विचार को लेकर जडवत बने रहते हैं ईश्वर वचन हमारे लिये नये द्वार नहीं खोल सकता क्योंकि हम अपने आप को ईश्वर की योजना अनुरूप बदलना ही नहीं चाहते हैं।
यहूदियों की भी यही दशा थी। उनके विचार में मसीह का आगमन एक भव्य एवं शानदार घटना होगी जिसे देखकर सभी भौंचके हो जायेगे तथा राजनैतिक सत्ता परिवर्तन करेंगे। वे अपने घमण्ड में इतने चूर थे कि वे यह भी नहीं जानते थे वे मसीह को ग्रहण करने के अयोग्य है। येसु उनकी स्थिति को बताते हुये कहते हैं, ’’तुम सुनते रहोगे, परन्तु नहीं समझोगे। तुम देखते रहोगे, परन्तु तुम्हें नहीं दिखेगा, क्योंकि इन लोगों की बुद्धि मारी गई है। ये कानों से सुनना नहीं चाहतेय इन्होंने अपनी आँख बंद कर ली हैं। कहीं ऐसा न हो कि ये आँखों से देख ले, कानों से सुन लें, बुद्धि से समझ लें, मेरी ओर लौट आयें और मैं इन्हें भला चंगा कर दूँ। (मत्ती 13:14-15)
हमारे जीवन में भी हम बाइबिल पढते तथा उसका अर्थ अपने जीवन में ढुंढते है। हमें उन उपायों के बारे में सोचते है जो हमारी कल्पना के दायरे में है। किन्तु हमारी कल्पना के कहीं अधिर महान है तथा वे हमारे क्षणिक सुख के लिये नहीं वरन् स्थायी सुख और कल्याण के लिये योजना बनाता है। आइये हम भी ईशवचन को खुले और सरल हृदय से ग्रहण करे।
✍फादर रोनाल्ड वाँनAlthough Jesus was the promised Saviour and Messiah God had sent yet he was rejected and killed by the very people who should have welcomed him. They rejected Jesus because they did not recognise Him when he came. They were perhaps looking for a political Messiah who would deliver them from Roman domination.
The reason they didn’t recognize Him is that they did not hear the voices of the prophets who spoke to them every Sabbath as God’s Word was read aloud (13:27). They heard the words but they did not understand it. As Jesus fittingly rebuked them, “You search the Scriptures because you think that in them you have eternal life; it is these that testify about Me; and you are unwilling to come to Me so that you may have life” (John 5:39-40).
Knowing the scripture and understanding it are two different things. By our human effort we can learn it but to understand we need God’s help as they are his own words. To receive this understanding one must be freed of his own pre-conception and pre-occupation. We need to be open to what the word of God could mean and relate to our life beyond our expectation. If we remain fixed on certain ideas then the unfolding of the word of would not take place. Jews were firm believers in the word of God but were also a closed people. Their ideas were fixed that Messiah would be a political and a macho man who would overthrow the Romans and installed the Jewish rule. His advent would be a spectacular event and so on and so forth. They could never imagine that they themselves were not fit to receive him. The fittingly summed up their plight, “You will keep on hearing, but will not understand; you will keep on seeing, but will not perceive; for the heart of this people has become dull, with their ears they scarcely hear, and they have closed their eyes, otherwise they would see with their eyes, hear with their ears, and understand with their heart and return, and I would heal them” (Matt. 13:14-15).
In our life’s too we read Bible and search of its meaning in our life. We look for solution that is suitable and imaginable to us but God is beyond our intellect and he looks for lasting good and welfare of us. Hence let us read and receive the word with an open and simple heart.
✍ -Fr. Ronald Vaughan