12:24) ईश्वर का वचन बढ़ता और फैलता गया।
25) बरनाबस और साऊल अपना सेवा-कार्य पूरा कर येरुसालेम से लौटे और अपने साथ योहन को ले आये, जो मारकुस कहलाता था।
13:1) अंताखिया की कलीसिया में कई नबी और शिक्षक थे- जैसे बरनाबस, सिमेयोन, जो नीगेर कहलाता था, लुकियुस कुरेनी, राजा हेरोद का दूध-भाई मनाहेन और साऊल।
2) वे किसी दिन उपवास करते हुए प्रभु की उपासना कर ही रहे थे कि पवित्र आत्मा ने कहा, ’’मैंने बरनाबस तथा साऊल को एक विशेष कार्य के लिए निर्दिष्ट किया हैं। उन्हें मेरे लिए अलग कर दो।’’
3) इसलिए उपवास तथा प्रार्थना समाप्त करने के बाद उन्होंने बरनाबस तथा साऊल पर हाथ रखे और उन्हें जाने की अनुमति दे देी।
4) पवित्र आत्मा द्वारा भेजे हुए बरनाबस और साऊल सिलूकिया गये और वहाँ से वे नाव पर क्रुप्रुस चले।
5) सलमिस पहुँच कर वे यहूदियों के सभागृहों में ईश्वर के वचन का प्रचार करते रहे। योहन भी उनके साथ रह कर उनकी सहयता करता था।
45) और जो मुझे देखता है, वह उस को देखता है जिसने मुझे भेजा।
46) मैं ज्योति बन कर संसार में आया हूँ, जिससे जो मुझ में विश्वास करता हैं वह अन्धकार में नहीं रहे।
47) यदि कोई मेरी शिक्षा सुनकर उस पर नहीं चलता, तो मैं उसे दोषी नही ठहराता हूँ क्योंकि मैं संसार को दोषी ठहराने नहीं, संसार का उद्वार करने आया हूँ।
48) जो मेरा तिरस्कार करता और मेरी शिक्षा ग्रहण करने से इंकार करता है, वह अवश्य ही दोषी ठहराया जायेगा। जो शिक्षा मैंने दी है, वही उसे अंतिम दिन दोषी ठहरा देगी।
49) मैनें अपनी ओर से कुछ नहीं कहा। पिता ने जिसने मुझे भेजा, आदेश दिया है कि मुझे क्या कहना और कैसे बोलना है।
50) मैं जानता हूँ कि उसका आदेश अनंत जीवन है। इसलिये मैं जो कुछ कहता हूँ, उसे वैसे ही कहता हूँ जैसे पिता ने मुझ से कहा है।
सुसमाचार में, येसु अपने मिशन का सारांश देते है। पिता के प्रेम को प्रकट करने के लिए येसु को पिता के प्रेम के रूप में भेजा गया था। येसु लोगों को अपने मानवीय प्रेम में ईश्वर के दिव्य प्रेम को देखने में सक्षम बनाये। वह प्रकाश था, जो ईश्वर के रहस्य को प्रकाशित कर रहा था और साथ ही दुनिया के प्रतिस्पर्धी और हिंसक स्वार्थ को नष्ट कर रहा था। वह ईश्वर का प्रकाश है जिसमें पाप, अज्ञानता और अविश्वास के अंधेरे को दूर करने की शक्ति है। ईश्वर का प्रकाश और सत्य चंगाई, क्षमा और परिवर्तन लाता है। येसु हमें अपने वचन पर ध्यान देने के लिए आमंत्रित करते हैं ताकि हमें अनन्त जीवन मिल सके। क्या मैं ईश्वर के वचन पर ध्यान दूंगा और प्रकाश के संतान के रूप में परिवर्तित हो जाऊंगा? वह हमें प्रकाश में लाने में रुचि रखता है ताकि हम दूसरों के लिए उनकी ज्योति बन सकें।
✍ - फादर संजय कुजूर, एसवीडी
In the gospel, Jesus summaries his mission. Jesus was sent as the love of the father to reveal Father’s love. Jesus enabled people to see in his human love the divine love of God. He was the light, both illuminating the mystery of God and at the same time destroying the competitive and violent selfishness of the world. He is the very light of God that has power to overcome the darkness of sin, ignorance, and unbelief. God's light and truth brings healing, pardon, and transformation. Jesus invites us to to heed to his word that we may have eternal life. Do I heed the Word of God and be transformed as Children of light? He is interested to bring us to the light so that we can become His light for others.
✍ -Fr. Sanjay Kujur SVD
परमेश्वर पिता, मुझे आपको और अधिक गहराई से जानने, मेरे लिए अपने प्रेम और मुझे अनन्त जीवन देने की आपकी इच्छा पर विश्वास करने का अनुग्रह प्रदान करें। मुझे अच्छाई और सच्चाई की इच्छा करने की कृपा प्रदान करें, कि मैं दुनिया में आपका प्रकाश बन जाऊ, लोगों को अंधेरे से दूर ले जाऊ, जैसे यीशु मुझे ले जाता है। हे प्रभु, मुझे आलोचना करने और निंदा करने के बजाय अपनी ऊर्जा को प्यार करने में और लागु करने पर ध्यान केंद्रित करने में मदद करें। मैं एक ऐसा व्यक्ति बन जाऊ जो अपने शब्दों और कर्मों के माध्यम से और दूसरों के साथ अपने संबंधों के माध्यम से यहां और अभी परमेश्वर के राज्य का निर्माण करता है। मेरे द्वारा किए जाने वाले सभी कार्यों के केंद्र में आप हों। हे प्रभु, मुझे प्रेम करने की कृपा दो, क्योंकि प्रेम करने से ही लोग तुम्हें जानते हैं। और जब मैं इस ज्ञान में विश्राम करता हूं कि आप हमेशा मेरे साथ हैं और मुझे रास्ता दिखाते हैं, तो मेरा दिल खुश हो सकता है। तथास्तु।
✍ - फादर पायस लकड़ा
We are taught that at the end of our existence where we are going to face Jesus as our Judge, we are going to give an account of ourselves. An account of how we used the precious years of our lives.
On the last day, the words of Jesus, His call to love with Gospel love, will become the standard against which our lives are judged, the question which will constitute the last great judgment of our lives.
This is because as Jesus says in today’s gospel: “Whoever rejects me and does not accept my words has something to judge him: the word that I spoke, it will condemn him on the last day,” (v. 48). In other words, Jesus is Saviour and nothing else.
His word requires that we live in light. And so we have to take Jesus seriously through His words.
To put this concretely how these words of Jesus judge us, St. John of the Cross exclaimed: “I will be examined on love. We are judged based on love. Are we ready to be examined on love if that exam were to take place today? What do we need to do in order to be ready?
✍ -Fr. Pius Lakra
आज का पहला पाठ कलीसिया के नेताओं के पवित्र और धर्मपरायण चरित्र के बारे में प्रकाश डालता है। हम पाते हैं वे सभी पवित्र, आज्ञाकारी तथा प्रार्थनामय नेता थे। उनका चरित्र धार्मिक था। प्रार्थना के दौरान ईश्वर हम से व्यक्तिगत रूप से बातें करते तथा उनकी योजना एवं उददेश्यों को हम पर प्रकट करते हैं। प्रार्थना तथा उपवास एक धार्मिक व्यक्ति की मूलभूत दिनचर्या होती है। यह मनुष्य की ईश्वर के प्रति गहरायी को प्रकट करता है। प्रभु येसु ने स्वयं अनेक बार प्रार्थना करने की जरूरत पर जोर डाला तथा अनेक बार वे स्वयं भी प्रार्थना में लीन पाये गये। येसु ने उनके जीवन की मुख्य घटनाओं के पहले अत्यंत त्रीवता के साथ प्रार्थना की।
जब साउल और बरनाबस अन्यों के साथ मिलकर प्रार्थना तथा उपवास रखकर ईश्वर की उपासना कर रहे थे तो पवित्र आत्मा ने उन्हें यह कहकर निर्देशित किया, ’’मैंने बरनाबस और साउल को एक विशेष कार्य के लिये निर्दिष्ट किया है। उन्हें मेरे लिये अलग कर दो।’’ उन नेताओं की विशिष्ट योजना नहीं थी किन्तु इस प्रकार उन्होंने जाना कि ईश्वर की उनके लिये एक योजना है। उस योजना के तहत उन्होंने स्वेच्छा तथा शीघ्रता से ईश्वर के निर्देश का पालन किया। उनकी यह शीघ्रता तथा स्वेच्छा उनके धार्मिक चरित्र का चिन्ह है।
बरनाबस और साउल तत्कालीन कलीसिया के दो सबसे प्रमुख व्यक्तियों में थे तथा ईश्वर ने उन्हंछ मिशनरी यात्रा में भेजा। उनके इस प्रकार अचानक चले जाने से वहां की स्थानीय कलीसिया को गहरा दुख और खालीपन महसूस हुआ होगा लेकिन उन्होंने बिना किसी हिचक और विरोध के, आत्मा के निर्देशों का पालन किया तथा अपने इन दोनों महान हस्तियों को अंताखिया से बाहर जाने दिया। पवित्र आत्मा के प्रति आज्ञापालन बनने के लिये हमें ईश्वर की आराधना करने के लिये समय निकालना चाहिये तथा उनका निर्देशन ढूंढना चाहिये।
✍फादर रोनाल्ड वाँनToday’s first reading tells us about the godly characteristics of the leaders of the churches. It tells that all of them were very pious, obedient and praying leaders. They had a godly character. It is while praying that God speaks to us more personally and reveals his plans and purposes to and for us. Prayer and fasting are basic habits of a godly persons. They reveal the depth a person has with God. Lord Jesus several times mentioned the needs for prayers and he himself was found praying many times. He prayed intensely before all the major events of his life.
While Saul and Barnabas along with others were worshiping the Lord in prayer and fasting,the Holy Spirit speaks to them and directs them about Saul and Barnabas. “Set apart for me Barnabas and Saul for the work to which I have called them.” While they apparently had no specific plan for themselves but God had for them. They experienced God’s will and willingly and promptly responded to it. It yet again points out godliness of the them as they were so willing and prompt to obey the Lord’s commands.
Barnabas and Saul were two of the most important men in that church, and God sent them out on this missionary journey. Their sudden going must have given a deep sense of loss to the church there but without a word of protest, the church obeyed the Spirit’s directive and released these gifted men for ministry outside of Antioch.To be obedient to the Holy Spirit, wemust take time to worship God and seek His direction.
✍ -Fr. Ronald Vaughan