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34) उस समय गमालिएल नामक फ़रीसी, जो संहिता का शास्त्री और सारी जनता में सम्मानित था, महासभा में उठ खड़ा हुआ। उसने प्रेरितों को थोड़ी देर के लिए बाहर ले जाने का आदेश दिया
35) और महासभा के सदस्यों से यह कहा, "इस्राइली भाइयों! आप सावधानी से विचार करें कि इन लोगों के साथ क्या करने जा रहे हैं।
36) कुछ समय पहले थेउदस प्रकट हुआ। वह दावा करता था कि मैं भी कुछ हूँ और लगभग चार सौ लोग उसके अनुयायी बन गये। वह मारा गया, उसके सभी अनुयारी बिखर गये और उनका नाम-निशान भी नहीं रहा।
37) उसके बाद, जनगणना के समय, यूदस गलीली प्रकट हुआ। उसने बहुत-से लोगों को बहका कर अपने विद्रोह में सम्मिलित कर लिया। वह भी नष्ट हो गया और उसके सभी अनुयायी बिखर गये।
38) इसलिए इस मामले के सम्बन्ध में मैं आप लोगों से यह कहना चाहता हूँ कि आप इनके काम में दखल न दें और इन्हें अपनी राह चलने दें। यदि यह योजना या आन्दोलन मनुष्यों का है, तो यह अपने आप नष्ट हो जायेगा।
39) परन्तु यदि यह ईश्वर का है, तो आप इन्हें नहीं मिटा सकेंगे और ईश्वर के विरोधी प्रमाणित होंगे।"
40) वे उसकी बात मान गये। उन्होंने प्रेरितों को बुला भेजा, उन्हें कोड़े लगवाये और यह कड़ा आदेश दे कर छोड़ दिया कि तुम लोग ईसा का नाम ले कर उपदेश मत दिया करो।
41) प्रेरित इसलिए आनन्दित हो कर महासभा के भवन से निकले कि वे {ईसा के} नाम के कारण अपमानित होने योग्य समझे गये।
42) वे प्रतिदिन मन्दिर में और घर-घर जा कर शिक्षा देते रहे और ईसा मसीह का सुसमाचार सुनाते रहे।
1) इसके बाद ईसा गलीलिया अर्थात् तिबेरियस के समुद्र के उस पर गये।
2) एक विशाल जनसमूह उनके पीछे हो लिया, क्योंकि लोगों ने वे चमत्कार देखे थे, जो ईसा बीमारों के लिए करते थे।
3) ईसा पहाड़ी पर चढ़े और वहाँ अपने शिष्यों के साथ बैठ गये।
4) यहूदियों का पास्का पर्व निकट था।
5) ईसा ने अपनी आँखें ऊपर उठायीं और देखा कि एक विशाल जनसमूह उनकी ओर आ रहा है। उन्होंने फिलिप से यह कहा, "हम इन्हें खिलाने के लिए कहाँ से रोटियाँ खरीदें?"
6) उन्होंने फिलिप की परीक्षा लेने के लिए यह कहा। वे तो जानते ही थे कि वे क्या करेंगे।
7) फिलिप ने उन्हें उत्तर दिया, "दो सौ दीनार की रोटियाँ भी इतनी नहीं होंगी कि हर एक को थोड़ी-थोड़ी मिल सके"।
8) उनके शिष्यों में एक, सिमोन पेत्रुस के भाई अन्द्रेयस ने कहा,
9) "यहाँ एक लड़के के पास जौ की पाँच रोटियाँ और दो मछलियाँ हैं, पर यह अतने लोगों के लिए क्या है,"
10) ईसा ने कहा, "लोगों को बैठा दो"। उस जगह बहुत घास थी। लोग बैठ गये। पुरुषों की संख्या लगभग पाँच हज़ार थी।
11) ईसा ने रोटियाँ ले लीं, धन्यवाद की प्रार्थना पढ़ी और बैठे हुए लोगों में उन्हें उनकी इच्छा भर बँटवाया। उन्होंने मछलियाँ भी इसी तरह बँटवायीं।
12) जब लोग खा कर तृत्त हो गये, तो ईसा ने अपने शिष्यों से कहा, "बचे हुए टुकड़े बटोर लो, जिससे कुछ भी बरबाद न हो"।
13) इस लिए शिष्यों ने उन्हें बटोर लिया और उन टुकड़ों से बारह टोकरे भरे, जो लोगों के खाने के बाद जौ की पाँच रोटियों से बच गये थे।
14) लोग ईसा का यह चमत्कार देख कर बोल उठे, "निश्चय ही यह वे नबी हैं, जो संसार में आने वाले हैं"।
15) ईसा समझ गये कि वे आ कर मुझे राजा बनाने के लिए पकड़ ले जायेंगे, इसलिए वे फिर अकेले ही पहाड़ी पर चले गये।
कोई भी शक्ति येसु के नाम का प्रचार करने से हमें रोक नहीं सकती हैं। जितना भी उसे दबाने की कोशिश की जायेगी उतने ही प्रभाव से वह नाम बना रहेगा। प्रेरितों को येसु के नाम की शिक्षा देने से कई हथकडे़ अपनाऐ गये, लेकिन कुछ भी उन्हें रोक न सका। उन्होंने उन्हें बंदीग्रह में ड़ाल दिया, कोड़े लगवाये लेकिन वे आनंदित थे। वे स्वयं को येसु के नाम पर अपमानित होने के योग्य पाये जाने पर आनन्दित थे। वे शिक्षा देते रहे और येसु मसीह का सुसमाचार सुनाते रहे।
प्रभु येसु भी लोगों को शिक्षा देते एवं स्वर्ग के राज्य के बारे मे बताते है। भारी जनसमूह उनकी शिक्षा को सुनने के लिए उनके पास आता है। शिष्य भीड़ को विदा करने की बात कहते हैं। लेकिन येसु उन्हें भोजन देने की बात करते हैं। शिष्यों ने वही किया जैसा प्रभु ने कहा, एवं सब लोगो ने पेट भर भोजन किया और सभी तृप्त हो गये। येसु जीवन की रोटी हैं, जो उसे खाऐगा उसे कभी भूख नहीं लगेगी।
क्या हम प्रभु के वचन के भूखे हैं? आइये, हम प्रभु के वचनों का पालन करें।
✍ - फादर साइमन मोहता (इंदौर धर्मप्रांत)
No power can stop us from preaching the name of Jesus. The more you try to suppress it, the more effect that name will remain. Many tricks were used to stop the apostles from teaching the name of Jesus, but nothing could stop them. They put them in prison, flogged them but they were happy. They rejoiced in finding themselves worthy of humiliation in the name of Jesus. They kept on teaching and preaching the good news of Jesus Christ.
Lord Jesus also teaches people and tells about the kingdom of heaven. Huge crowds flock to him to listen to his teachings. The disciples say to send the crowd away. But Jesus talks about giving them food. The disciples did as the Lord said, and everyone ate their fill and everyone was satisfied. Jesus is the bread of life, whoever eats him will never feel hungry.
Are we hungry for the word of the Lord? Come, let us follow the words of the Lord.
✍ -Fr. Simon Mohta (Indore Diocese)
प्रभु के जीवन, मृत्यु एवं पुनरूत्थान की घटनाओं तथा पेंतेकोस्त के दिन पवित्र आत्मा के उतरने से प्रेरित नयी स्फूर्ति तथा सामर्थ्य से भर गये थे। वे पुनर्जीवित प्रभु का प्रचार साहस एवं बेहद प्रभावी रूप से कर रहे थे। यहूदी नेता येसु की सच्चाई के प्रति अंधे थे तथा किसी भी तरीके से वे प्रेरितों के प्रचार कार्य का दमन करना चाहते थे। उनके पास राजनैतिक, सामाजिक, धार्मिक तथा वित्तीय ताकतें थी जिसके द्वारा वे आक्रामक रूप से इन्हें दबाने का प्रयत्न कर रहे थे। इस पृष्ठभूमि में एक फरीसी गमालिएल जो संहिता का शास्त्री था ने ईश्वर पर भरोसा रखने का सुझाव देते हुये बताया कि पहले भी ऐसे अनेक आंदोलन हुये जो ऐसे प्रतीत होते थे मानो वह सफल होंगे किन्तु उनका दुःखद अंत हुआ। इसी प्रकार ख्राीस्त के प्रचार का यह प्रयास यदि मानवीय प्रयास है तो यह भी विफल हो जायेगा।
गमालिएल ने ईश्वर के सामर्थ्य में सच्चा विश्वास दिखाया। वह महासभा के सदस्यों से कहता हैं, ’’आप इनके काम में दखल न दें और इन्हें अपनी राह चलने दें। यदि यह योजना या आन्दोलन मनुष्यों का है तो यह अपने आप नष्ट हो जायेगा। परन्तु यदि यह ईश्वर का है तो आप इन्हें नहीं मिटा सकेंगे और ईश्वर के विरोधी प्रमाणित होंगे। ईश्वर के हाथों में सारी स्थिति सौंपने की यह बात साहसपूर्ण थी। ऐसा करने के लिये हमें गहरे विश्वास की आवश्यकता होती है अन्यथा परिस्थितियां हमें तबाह कर सकती है। राजा दाउद ईश्वर की अभिमुख मनुष्य था। वे जीवन की घटनाओं को ईश्वर के दृष्टिकोण से देखते थे। जब उन्हें अपनी जान बचाने के भागना पडा तो साउल का वंशज शिमई उसे कोसता है किन्तु दाउद इस बात से कतई उत्तेजित नहीं होते तथा कहते हैं, ’’यदि वह इसलिए दाऊद को कोसता है कि प्रभु ने उसे ऐसा करने की प्रेरणा दी है, तो कौन पूछ सकता है कि तुम ऐसा क्यों कर रहे हो?.....उसे कोसने दो, क्योंकि प्रभु ने उसे ऐसा करने की प्रेरणा दी है।’’ (2 समूएल 16:10-12) संत पौलुस ईश्वर की उदारता का आश्वासन देते हुये कहते हैं, ’’हम जानते हैं कि जो लोग ईश्वर को प्यार करते हैं और उसके विधान के अनुसार बुलाये गये हैं, ईश्वर उनके कल्याण के लिए सभी बातों में उनकी सहायता करता है’’। (रोमियों 8:28)
✍ - फादर रोनाल्ड मेलकम वॉन
After the events related to Jesus’ life, death, resurrection and outpouring of the Holy Spirit at the Pentecost apostles were filled with great energy and strength. They were proclaiming the Risen Lord with unspoken boldness and empathy. The Jews leaders being blind to the reality of the resurrection were terribly hostile and wanted to snub the apostles’ proclamation activities. They had the political, social, religious and financial muscle power to suppress the movement and in fact they were aggressively doing it. in such a scenario Gamaliel a Pharisee, a teacher of the law, dared to trust God, even if it means losing ground. He cited the earlier movements that seemed so real and powerful that everyone thought they might be game changer. However, after initial hype they were doomed to oblivion.
Gamaliel displayed a real faith in the power of God. He exhorted the council with the words, “Keep away from these men and let them alone; because if this plan or this undertaking is of human origin, it will fail; but if it is of God, you will not be able to overthrow them—in that case you may even be found fighting against God!’ (Acts 5:38-39) It was a brave call to leave the things or situation into God’s hands. Many a times when we are at the cross roads and find it difficult to discern, it is better to leave the things in God’s hand. For this we need to have a depth in our faith otherwise things or situations will tear us apart. King David was the man after the heart of God. He would always see things from God’s perspective. He had to a flee to save his life and when during this run, he had to face the abusive curses of Shimei but David refused to take offence at the cursing of the Shimei, descendent of Saul saying, “If he is cursing because the Lord has said to him, “Curse David”, who then shall say, “Why have you done so?”….It may be that the Lord will look on my distress, and the Lord will repay me with good for this cursing of me today.’ (2 Samuel 16:10-12) St. Paul assures us of God’s benevolent help, “We know that in everything God works for good with those who love him, who are called according to his purpose. ” (Romans 8:28)
✍ -Fr. Ronald Melcom Vaughan
इस संसार में कोई भी ईश्वर के कार्य को नहीं रोक सकता। इसे हम बहुत अच्छी तरह से आज के पहले पाठ में देखते है जहॉं गमालिएल नामक फरीसी, जो संहिता का शास्त्री और सारी जनता में सम्मानित था, ने एक मूल्यावान अंतर्दृष्टि प्रदान करी कि यदि या योजना या आन्दोलन मनुष्यों का है, तो यह अपने आप नष्ट हो जायेगा। परंतु यदि यह ईश्वर का है तो इन्हें कोई नहीं मिटा सकेगा। हमें हमेंशा सभी स्थिति तथा सभी निर्णय में ईश्वर की ईच्छा और उसकी योजना को जानने की जरूरत है। क्योंकि अगर हम अपने समझ और ज्ञान के अनुसार कार्य करेंगे तब हम किसी न किसी तरह से हमेशा अपने में ही निराश और अर्थहीन महसूस करेंगे; परंतु यदि हम ईश्वर इच्छा के अनुसार जायेंगे तब हम सदा अपनें में शांति महसूस करेंगे और इसके अतिरिक्त, कोई भी हमारा सामना नहीं कर पायेगा। हमें हमारे जीवन में ईश्वर की योजना को जानने की जरूरत है तथा उस योजना के लिए अपने जीवन को प्रतिबद्ध करने की जरूरत है।
आज के सुसमाचार में येसु रोटियों का चमत्कार करते है। इस चमत्कार के बाद येसु समझ गये कि लोग आ कर उन्हे राजा बनाने के लिए पकड़ ले जायेंगे, इसलिए वे फिर अकेले ही पहाड़ी पर चले गये। वे अपने आप को लोगो से इसलिए अलग कर देते है क्योकि उन्हे मालूम था कि राजा बनना ईश्वर की योजना नहीं है; अतः येसु अब्बा पिता से प्रार्थना करने तथा ईश्वर की योजना में बने रहने के लिए अकेले ही पहाड़ी पर चले जाते है।
कभी कभी हम भी भीड़ की या स्वयं के दिमाग की सुनकर वह कार्य करने लगते है जो हम सोचते है कि वह सबसे उचित या हमारे लिए सही है परंतु हम उस कार्य में ईश्वर की इच्छा को जानने के लिए पवित्र आत्मा की प्रेरणा लेना भूल जाते है।
प्रिय दोस्तों हम भले ही किसी चीज़ को प्राप्त करने में कितना ही मेहनत क्यों न कर लें यदि वह ईश्वर की योजना नहीं है तो वह कभी भी पूरा नहीं होगा और हमारी सारी मेहनत व्यर्थ भी जायेगी। इसलिए किसी भी कार्य को शुरुआत करने से पूर्व सर्वप्रथम हमें उस कार्य में ईश्वर की इच्छा जानने की जरूरत है। आईये हम सभी चीज़ों में ईश्वर को सर्वप्रथम स्थान दें। आमेन
✍ - फादर डेन्नीस तिग्गा
In this world no one can stop God’s work. This we can see very well in the first reading today where the Gamaliel, a Pharisee who gives the valuable insight that if the movement of Jesus is from any human origin then it will diminish by itself but if it is from God then no one will be able to destroy them. We always need to ask God’s will and his work in every situation and decision. Because if we try to go according to our understanding and knowledge we will always feel brokenness and meaningless one or the other way with but if we go according to God’s will we will always be at peace and all the more, no one can stand against us. We need to discern God’s work in our lives and commit our lives to that work.
In today’s Gospel we see Jesus performing the miracle of multiplication of bread. After the miracle when Jesus realized that they were about to come and take him by force to make him king, he withdrew again to the mountain by himself. He withdrew himself because he knew that to be king is not God’s will. Hence Jesus goes to pray to Abba Father so as to remain focus in his work.
Sometimes we may be led by the crowd or by our own intelligence and we will try to do what we think is best and favourable one for us but we will fail to take the guidance of the Holy Spirit in order to know the will of God in that particular work.
Dear friends how much work or efforts we put in order to achieve anything if it is not God’s will all our hard work and efforts will remain useless and we will not achieve anything. So instead of putting our hard work we need to first and foremost ask God’s will for that work. Let’s put God first in all things. Amen
✍ -Fr. Dennis Tigga