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27) उन्होंने प्रेरितों को ला कर महासभा के सामने पेश किया। प्रधानयाजक ने उन से कहा,
28) हमने तुम लोगों को कड़ा आदेश दिया था कि वह नाम ले कर शिक्षा मत दिया करो, परन्तु तुम लोगों ने येरुसालेम के कोने-कोने में अपनी शिक्षा का प्रचार किया है और उस मनुष्य के रक्त की जिम्मेवारी हमारे सिर पर मढ़ना चाहते हो"।
29) इस पर पेत्रुस और अन्य प्रेरितों ने यह उत्तर दिया, "मनुष्यों की अपेक्षा ईश्वर की आज्ञा का पालन करना कहीं अधिक उचित है।
30) आप लोगों ने ईसा को क्रूस के काठ पर लटका कर मार डाला था, किन्तु हमारे पूर्वजों के ईश्वर ने उन्हें पुनर्जीवित किया।
31) ईश्वर ने उन्हें शासक तथा मुक्तिदाता का उच्च पद दे कर अपने दाहिने बैठा दिया है, जिससे वह उनके द्वारा इस्राइल को पश्चाताप और पापक्षमा प्रदान करे।
32) इन बातों के साक्षी हम हैं और पवित्र आत्मा भी, जिसे ईश्वर ने उन लोगों को प्रदान किया है, जो उसकी आज्ञा का पालन करते हैं।"
33) यह सुन कर वे अत्यन्त क्रुद्ध हो उठे और उन्होंने प्रेरितों को मार डालने का निश्चय किया।
31) जो ऊपर से आता है, वह सर्वोपरि है। जो पृथ्वी से आता है, वह पृथ्वी का है और पृथ्वी की बातें बोलता है। जो स्वर्ग से आता है, वह सर्वोपरि है।
32) उसने जो कुछ देखा और सुना है, वह उसी का साक्ष्य देता है; किन्तु उसका साक्ष्य कोई स्वीकार नहीं करता।
33) जो उसका साक्ष्य स्वीकार करता है, वह ईश्वर की सत्यता प्रमाणित करता हे। जिसे ईश्वर ने भेजा है, वह ईश्वर के ही शब्द बोलता है;
34) क्योंकि ईश्वर उसे प्रचुर मात्रा में पवित्र आत्मा प्रदान करता है।
35) पिता पुत्र को प्यार करता है और उसने उसके हाथ सब कुछ दे दिया है।
36) जो पुत्र में विश्वास करता है, उसे अनन्त जीवन प्राप्त है। परन्तु जो पुत्र में विश्वास करने से इनकार करता है, उसे जीवन प्राप्त नहीं होगा। ईश्वर का क्रोध उस पर बना रहेगा।
सत्य को कोई छिपा नहीं सकता और न उसे पराजित कर सकता। सत्य तो सत्य हैं, और सदा सत्य बना रहेगा। प्रधानयाजक एवं महासभा के कुछ लोगों ने प्रेरितों को आदेश दिया कि पुनर्जीवित प्रभु येसु का नाम ले कर शिक्षा न दे। लेकिन उन्होंने उसके विपरीत किया, वे सारे येरूसालेम के कोने-कोने मे जाकर प्रभु की शिक्षा का प्रचार किया। प्रेरित लोग निड़़र हो कर अपने कार्य में आगे बढ़ रहे थे। वे मनुष्य की नहीं बल्कि ईश्वर की आज्ञा का पालन करते हैं।
ईश्वर सत्य हैं, हमें सत्य को स्वीकार करना है। सत्य यह है कि ईश्वर ने अपने पुत्र को हमारी मुक्ति के लिए भेजा है, और जो उसके पुत्र में विश्वास करता है उसे अनंत जीवन प्राप्त है। हम जीवन की प्राप्ति के लिए कई प्रयत्न करते हैं। सच्चा जीवन हमें केवल येसु के द्वारा ही प्राप्त होता है।
क्या हम सत्य को पहचानते हैं? आइये, हम सत्य को स्वीकार करें।
✍ - फादर साइमन मोहता (इंदौर धर्मप्रांत)
No one can hide the truth nor can it be defeated. Truth is truth, and will always remain true. The high priest and some people of the Sanhedrin ordered the apostles not to teach in the name of the resurrected Lord Jesus. But they did the opposite, they went to every corner of Jerusalem preaching the teachings of the Lord. The apostles were fearlessly moving forward in their work. They obey not man but God.
God is truth, we must accept truth. The truth is that God sent his Son to redeem us, and whoever believes in his Son has eternal life. We make many efforts to achieve life. True life comes to us only through Jesus.
Do we know the truth? Come, let us accept the truth.
✍ -Fr. Simon Mohta (Indore Diocese)
प्रभु येसु के पुनरूत्थान एवं स्वर्गारोहण के पश्चात पवित्र आत्मा का काल शुरू होता है। ईश्वर अपना पवित्र आत्मा उन्हें प्रदान करते है जो उनकी आज्ञा मानते है। प्रभु येसु ने भी यही प्रेरितों यही प्रतिज्ञा की थी कि वे उन्हें अनाथ छोडकर नहीं जायेंगे तथा उनके लिये एक सहायक भेजेंगे जो कि पवित्र आत्मा था। अपने स्वर्गारोहण के पूर्व येसु ने शिष्यों से पवित्र आत्मा के प्रतीक्षा के लिये कहा था। प्रेरितगण येसु के जीवन, मृत्यु, पुनरूत्थान तथा स्वर्गारोहण के साक्षी थे तथा प्रेरितों के द्वारा पवित्र आत्मा ने समूचे जगत में घोषित किया के येसु पिता के दाहिने विराजमान है।
पवित्र आत्मा येसु के द्वारा पिता का उपहार था। हालांकि यह पिता का मुफ्त उपहार था किन्तु इसे योग्य रीति से ग्रहण करने के लिये हमें आज्ञाकारी बनना जरूरी है। ईश्वर का आत्मा विद्रोही जीवन में नहीं ठहर सकता। विद्रोही व्यक्ति केवल अपनी ही तुष्टी के लिये जीयेगा। वह आत्मा की प्रेरणा का दमन करेगा। पेत्रुस तथा प्रेरितों ने अपनी सुरक्षा को ईश्वर के हाथों सौंपकर याजकों के आदेशों को मानने से इंकार कर दिया था। उन्होंने मनुष्यों की अपेक्षा ईश्वर की आज्ञा मानना उचित समझा।
प्रेरित-चरित में पवित्र आत्मा के शक्तिशाली प्रकटीकरण का एक प्रमुख कारण यह था कि वे ईश्वर की बात को सुनने तथा उसका पालन पूर्णः करने के लिये उत्साहित तथा तत्पर थे। इसलिये पेत्रुस कहते हैं, ’’पवित्र आत्मा ईश्वर ने उन लोगों को प्रदान किया है, जो उसकी आज्ञा का पालन करते हैं।’’
✍ - फादर रोनाल्ड मेलकम वॉन
After the resurrection and the ascension of the Lord Jesus the era of the Holy Spirit began. After all it was the promise of Jesus that he would not leave us orphan but send us a comforter, aid and advocate from the Father that is the Holy Spirit. Just before the ascension he had asked the apostles to wait for the Holy Spirit. The apostles had witnessed Christ’s life, death, resurrection, and ascension and the Holy Spirit throughout the entire New Testament proclaims through the apostles that Jesus sat down at the right hand of the Majesty on high.
Holy Spirit was the gift of the Father through Jesus Christ. Although it was a free gift of God yet one had to be in obedience with God to be worthy to obtain it. God’s spirit cannot reside in a rebellion soul. For the rebellion person would only follow his own instincts and inclination rather than obey God’s instructions. Peter and the apostle put their safety and security at stake by defying the order of the priests and the other. They would rather prefer to obey God rather than human instructions.
That is one of the prominent reasons to see the powerful manifestations of the Holy Spirit in the acts of the apostles. They were willing and available to obey God’s voice. Therefore Peter’s statement, “Holy Spirit is God’s gift to those who obey him.”
✍ -Fr. Ronald Melcom Vaughan
पवित्र बाईबिल में चार सुसमाचार है। इन चारों सुसमाचारों में बहुत समानताओं होने के साथ-साथ ये अपने आप में अद्वितिय है। एक समानता जो सुसमाचार में है वह है येसु की वंशावली। वंशावली के द्वारा सुसमाचार लेखकों ने येसु के कुटुम्ब या येसु कहा से आये है या किस वंश से आये है, उसके बारे में बताने की कोशिश की गई हैं। संत मत्ती के सुसमाचार में येसु की वंशावली इब्राहिम से की गई (मत्ती 1ः1) अर्थात् उस समय से जब ईश्वर ने एक वंश को विशेष रूप से चुनकर आर्शीवाद दिया था। संत लूकस के सुसमाचार में येसु की वंशावली की शुरुआत आदम से होती है (लूकस 3ः38) अर्थात् सृष्टि के प्रारम्भ से। परंतु संत योहन का सुसमाचार जो कि अपने गहरी बात के लिए जाना जाता है, वह येसु को ईश्वर से आया हूॅं दर्शाता है (योहन 1ः1-14)अर्थात् येसु की वंशावली न केवल इब्राहिम, दाउद या आदम से शुरु होती परंतु स्वयं ईश्वर से शुरुआत होती है। योहन के पूरे सुसमाचार में योहन का येसु के प्रति जो समझ या धारणा थी वह यह थी की येसु वह ईश्वर है जो ऊपर से आया है अर्थात् ईश्वर से आया है। आज के सुसमाचार में भी हम इसी बारे में सुनते है कि येसु ऊपर से आया है। जब येसु कहते है कि ‘मार्ग, सत्य और जीवन मैं हॅंू’। इससे यह बात स्पष्ट हो जाती है कि हम अपने कमजोर और सीमित ज्ञान और क्षमताओं से ईश्वर को कभी ठीक से नहीें जान सकते या ईश्वर के पास नहीं आ सकते हैं। केवल वही जो ईश्वर से आया है वहीं हमें ईश्वर के पास जाने का रास्ता दिखा सकता है। येसु जो ऊपर से आये है न केवल हमें पिता की ओर जाने वाला मार्ग को दिखाया परंतु वह स्वयं हमारे लिए वह मार्ग बन गये जिससे हम अपने कमजारियों के बावजूद भी उसके द्वारा पिता ईश्वर के पास आ सकें। येसु पर जिसे ईश्वर ने इस संसार में भेजा है, उस पर विश्वास के माघ्यम हम अनंत जीवन प्राप्त कर सकेंगे। हमने येसु के बारे विभिन्न माध्यम या लोगों से जाना है। हमें येसु के बारे में या तो अपने माता-पिता, रिश्तेदार, पुरोहितो, धर्मबहनों, बाइबिल या अन्य माध्यमों से जानकारी मिली होगी। परंतु येसु के बारे में जानना और येसु पर विश्वास करना ये दो अलग चिजे़ हैं। विश्वास हम सभी के लिए एक व्यक्तिगत क्रिया है। हमने संसार की ज्योति के विषय में जाना है और उस ज्योति को अपनाना या तिरस्कार करना हमारे आने वाले जीवन को निर्धारित करेगा। आइये हम सब येसु पर जो ऊपर से आया है, अपना विश्वास को सुदृढ़ बनाये तथा अपने जीवन में येसु को सब चीजों में प्रथम स्थान दें। आमेन
✍ - फादर डेन्नीस तिग्गा
In the Bible we have got four Gospels. There are many similarities between them at the same time each one has its own uniqueness. One of the similarities which the gospels have is the genealogy of Jesus. Through the genealogy the Evangelists wanted to trace the family tree of Jesus. The Gospel of Matthew traces the genealogy from Abraham (Mt 1:1) that is from when God called a chosen race. The gospel of Luke goes further and traces the genealogy from Adam onwards (Lk 3:38) that is from the beginning of the Creation. But the Gospel of John which is known for deeper understanding goes much further and tells that Jesus descended from God (Jn 1:1-14). All through the Gospel John main understanding about Jesus is that Jesus is the God who came from above i.e. from God. In today’s gospel reading we see the same view with regard to Jesus that Jesus is from above.
When Jesus says I am the way, the truth and life. It becomes very clear that we the weak human being with our limited mind and ability could have never known God or would have able to reach God. Only one who comes from God can show us the way to God. Jesus who is from above not only showed the way but he himself became the way for us so that though with our limitations we can know and come to God through him.
We can have eternal life by believing in Jesus whom God has send in this world. We have come to know about Jesus by various source or persons. We might have come to know about Jesus by our parents, priests, sisters, bible, Catechism and so on but knowing about Jesus and believing Jesus is two different things. Believing is something very personal for each one of us. We came to know about light and it is the acceptance and rejection of that light will decide our future. Let us start building our faith in Jesus who is from above and in our lives let us make him above all things. Amen
✍ -Fr. Dennis Tigga