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13) पेत्रुस और योहन का आत्मविश्वास देखकर और इन्हें अशिक्षित तथा अज्ञानी जान कर, महासभा के सदस्य अचम्भे में पड़ गये। फिर, वे पहचान गये कि ये ईसा के साथ रह चुके हैं,
14) किन्तु स्वस्थ किये गये मनुष्य को इनके साथ खड़ा देखकर, वे उत्तर में कुछ नहीं बोल सके।
15) उन्होंने पेत्रुस और योहन को सभा से बाहर जाने का आदेश दिया और यह कहते हुए आपस में परामर्श किया,
16) "हम इन लोगों के साथ क्या करें? येरुसालेम में रहने वाले सभी लोगों को यह मालूम हो गया कि इन्होंने एक अपूर्व चमत्कार दिखाया है। हम यह अस्वीकार नहीं कर सकते।
17) फिर भी जनता में इसका और अधिक प्रचार न हो, इसलिए हम इन्हें कड़ी चेतावनी दें कि अब से ईसा के नाम पर किसी से कुछ नहीं कहोगे।"
18) उन्होंने पेत्रुस तथा योहन को फिर बुला भेजा और उन्हें आदेश दिया कि वे न तो जनता को सम्बोधित करें और न ईसा का नाम ले कर शिक्षा दें।
19) इस पर पेत्रुस और योहन ने उन्हें यह उत्तर दिया, "आप लोग स्वयं निर्णय करें-क्या ईश्वर की दृष्टि में यह उचित होगा कि हम ईश्वर की नहीं, बल्कि आप लोगों की बात मानें?
20) क्योंकि हमने जो देखा और सुना है, उसके विषय में नहीं बोलना हमारे लिए सम्भव नहीं।"
21) इस पर उन्होंने पेत्रुस और योहन को फिर धमकाने के बाद जाने दिया। वे नहीं समझ पा रहे थे कि उन्हें किस प्रकार दण्ड दिया जाये, क्योंकि उस घटना के कारण सारी जनता ईश्वर की स्तुति करती थी।
9) ईसा सप्ताह के प्रथम दिन प्रातः जी उठे। वे पहले मरियम मगदलेना को, जिस से उन्होंने सात अपदूतों को निकाला था, दिखाई दिये।
10) उसने जा कर उनके शोक मनाते और विलाप करते हुए अनुयायियों को यह समाचार सुनाया।
11) किन्तु जब उन्होंने यह सुना कि ईसा जीवित हैं और उसने उन्हें देखा है, तो उन्हें इस पर विश्वास नहीं हुआ।
12) इसके बाद ईसा दूसरे वेश में उन में दो को दिखाई दिये, जो पैदल देहात जा रहे थे।
13) उन्होंने लौट कर शेष शिष्यों को यह समाचार सुनाया, किन्तु शिष्यों को उन दोनों पर भी विश्वास नहीं हुआ।
14) बाद में ईसा ग्यारहों को उनके भोजन करते समय दिखाई दिये और उन्होंने उनके अविश्वास और उनकी हठधर्मी की निन्दा की; क्योंकि उन्होंने उन लागों पर विश्वास नहीं किया था, जिन्होंने ईसा को पुनर्जीवित देखा था।
15) इसके बाद ईसा ने उन से कहा, "संसार के कोने-कोने में जाकर सारी सृष्टि को सुसमाचार सुनाओ।
पेत्रुस और योहन साधारण मछवारे थे। लोग उनको देखकर अचंभे में पढ़ जाते हैं। लोग उन्हें प्रभु येसु के नाम का प्रचार करने से रोकते हैं। लेकिन पेत्रुस अपना कार्य जारी रखता हैं। पेत्रुस कहता है, “हमने जो देखा और सुना हैं, उसके विषय में नहीं बोलना हमारे लिए संभव नहीं। कई बाधाओं के बावजूद भी वे प्रभु का प्रचार करने से नहीं ड़रते हैं।
पूर्नाजीवित प्रभु येसु कई बार अलग-अलग जगह पर शिष्यों को दिखाई दिए। लेकिन शिष्यों ने विश्वास नहीं किया। प्रभु येसु ने उन्हें विश्वास में मजबूत कर संसार के कौने कौने में जा कर सारी सृष्ट्रि को सुसमाचार सुनाने का आदेश दिया।
क्या हम प्रभु के सुसमाचार को सुनाने से ड़रते हैं? आइये, हम निड़र होकर प्रभु के सुसमाचार को बाटें।
✍ - फादर साइमन मोहता (इंदौर धर्मप्रांत)
Peter and John were ordinary fishermen. People are amazed to see them. People stop them from preaching in the name of Lord Jesus. But Peter continues his work. Peter says, “It is impossible for us not to speak about what we have seen and heard. Despite many obstacles, he is not afraid to preach the Lord.
The resurrected Lord Jesus appeared many times to the disciples at different places. But the disciples did not believe. Lord Jesus strengthened them in the faith and ordered them to go to every corner of the world and preach the gospel to the whole creation.
Are we afraid to share the gospel of the Lord? Come, let us be bold in sharing the good news of the Lord.
✍ -Fr. Simon Mohta (Indore Diocese)
साहस प्रेरितों तथा आदिम कलीसिया की पहचान थी। वे पुनरूत्थित येसु और उनके द्वारा मुक्ति में पूर्णत विश्वास करते थे। उनका यह नवीन विश्वास उनमें उत्साह का संचार करता था तथा वे विश्वास में बने रहने के लिये अपना सबकुछ दांव पर लगा देते थे। वे जानते थे येसु में लाभ जीवन की सारी हानियों से श्रेष्ठ था। उनका साहस इतना विस्मय था कि ये अपने आप में उनके विश्वास की गवाही बन गया था। अत्याचार के दौरान उनके साहस ने अनेकों को विश्वास ग्रहण करने के लिये प्रेरित किया।
अशिक्षित प्रेरित पेत्रुस और योहन का साहस एवं दृढता देखकर शासक एवं शास्त्री भी अंचभित थे। वे महसूस करते तथा जानते थे कि उनके साहस का कारण येसु के साथ उनकी मित्रता थी। शासकों तथा धर्माधिकारियों के पास ताकत तथा अधिकार था कि वे पेत्रुस और योहन को कोई भी यंत्रणा दे सकते थे किन्तु वे उनकी दृढता तथा विश्वास उनसे दूर नहीं कर सकते थे। योहन और पेत्रुस का साहस ईश्वर का वरदान था। शासकों को निराश होकर उन्हें छोड देना पडा।
जब हम दबाव एवं डर की परिस्थितियों से गुजरते हैं तो हम क्या करते हैं? क्या हम मौन होकर समर्पण कर देते हैं? या तनाव एवं दबाव हमें तोड देता? यदि ऐसा है तो हमें पेत्रुस और योहन तथा प्रेरित-चरित में उल्लेखित विश्वास के नायकों की ओर देखना चाहिये कि किस प्रकार इस विषम परिस्थितियों में और अधिक साहस एवं दृढता के लिये प्रार्थना करते हैं, ’’प्रभु! तू उनकी धमकियों पर ध्यान दे और अपने सेवकों को यह कृपा प्रदान कर कि वे निर्भीकता से तेरा वचन सुनाये।.......उनकी प्रार्थना समाप्त होने पर वह भवज जहॉ वे एकत्र थे, हिल गया। सब पवित्र आत्मा से परिपूर्ण हो गये और निर्भीकता के साथ ईश्वर का वचन सुनाते रहे।’’ (प्रेरित-चरित 4:29, 31) इस प्रकार की प्रार्थनाओं द्वारा उन्होंने विरोधियों तथा दबाव का सामना किया। ईश्वर ने साहस, सामर्थ्य का आत्मा प्रदान किया जिससे प्रभु का मिशन निरंतर आगे बढता गया। तिमथी को लिखते समय संत पौलुस हमें स्मरण दिलाते हैं, ’’ईश्वर ने हमें भीरुता का नहीं, बल्कि सामर्थ्य, प्रेम तथा आत्मसंयम का मनोभाव प्रदान किया।’’ (2 तिमथी 1:7) आइये हम भी प्रार्थना करे कि ईश्वर हमें साहस का आत्मा प्रदान करे।
✍ - फादर रोनाल्ड मेलकम वॉन
Boldness had been the earmark of the apostles and early Christian community. They had been deeply convinced of the risen Lord and salvation in him. their enthusiasm led them to risk anything for the sake of their newly imbibed faith. For they knew that no loss is a real loss in the comparison with the gain in Jesus. Their boldness was so astonishing that it itself became an edifying witness. In the face of persecution their boldness brought many people to faith.
Seeing the boldness of the uneducated Peter and John the rulers, elders and the scribes were clueless. They also realized that their boldness was the result of their association with Jesus. They had the power to inflict anything on them but they couldn’t take away their boldness and conviction in Jesus. For the boldness of Peter and John was the gift from God. In their frustration they had to let them go.
Whenever we are faced with fear and pressure what we do? Do we go silent and become submissive? Or the pressure and tension break us down? If this is the case with us then look at Peter and John and heroes of Acts of the apostles how they even prayer for boldness and courage to overcome fear, “When they had prayed, the place in which they were gathered together was shaken; and they were all filled with the Holy Spirit and spoke the word of God with boldness. (Acts 4:29-31) that is how they handled the opposition and their own fear. God granted them the spirit of power so that they may carry out His mission without inhibition. St. Paul reminds us through Timothy that, “For God did not give us a spirit of cowardice, but rather a spirit of power and of love and of self-discipline.” (2 Timothy 1:7)
Let pray to the Father to send the Spirit of boldness.
✍ -Fr. Ronald Melcom Vaughan
प्रिय दोस्तों अगर मैं आप से यह प्रश्न करूॅं कि क्या आप प्रभु पर भरोसा करते है? अधिकतर इस सवाल का जवाब हॉं ही होगा कि हम ईश्वर पर भरोसा करते हैं। अगर मै एक और प्रश्न करूॅं कि क्या आप चिंता करते है? इस प्रश्न का जवाब भी यही होगा कि हां, हम किसी न किसी चिज़ के लिए चिंता तो करते है। इस पर मैं आप लोगों यह बताना चाहता हूॅं कि यदि हम किसी चिज़ की चिंता करते है इसका मतलब हम उन चिजों पर प्रभु पर भरोसा नहीं रखते हैं क्योंकि जहॉं पर प्रभु पर भरोसा हैं वहॉं पर चिंता नहीं होती हैं। मेरे कहना का तात्पर्य यह नहीं है कि हम प्रभु पर भरोसा नहीं रखते परंतु मेरे कहने का तात्पर्य हैं हमस ब प्रभु पर पूर्ण भरोसा नहीं रखते। स्तोत्र-ग्रंथ 118ः8 कहता है, ‘‘मनुष्यों पर भरोसा रखने की अपेक्षा प्रभु की शरण जाना अच्छा है।’’ हम मनन चिंतन करें कि जब हमें अपने जीवन में अच्छे या बुरे समय में कुछ निर्णय लेना रहता हैं तो हम किस पर भरोसा करते हैं; ईश्वर पर या मनुष्य पर। यहॉं मनुष्य कहने का तात्पर्य है - मानव बुद्धि, धन-सम्पत्ति, मानव कला, मानव विशेषज्ञ, मानव दिमाग, मानव सुझाव और हल, मानव शक्ति, मानव द्वारा कृत तकनीक, विज्ञान आदि।
येसु हमें ईश्वर पर भरोसा रखने के लिए बुलाता है। येसु धनी युवक से मारकुस 10:21 में कहते है, ‘‘तुम में एक बात की कमी है। जाओ, अपना सब कुछ बेच कर गरीबों को दे दो और स्वर्ग में तुम्हारे लिए पूॅंजी रखी रहेगी। तब आ कर मेरा अनुसरण करो।’’ यहॉं पर येसु यह कहना चाहते है कि धन-सम्पत्ति, लौकिक वस्तुओं की ताकत और मनुष्य पर निर्भर होने से अपने आपको अलग करों। ईश्वर पर भरोसा करना हमें संत पेत्रुस से सीखना चहिए जो पुनर्जीवित येसु के दर्शन और पवित्र आत्मा को ग्रहण करने के बाद अपना जीवन ईश्वर के हाथ में सौप देता है। यह येसु में पूर्ण भरोसा या विश्वास ही है जो उन्हें महासभा के सदस्य को यह कहने का साहस देता है, ’’आप लोग स्वयं निर्णय करें- क्या ईश्वर की दृष्टि में यह उचित होगा कि हम ईश्वर की नहीं, बल्कि आप लोगों की बात मानें? क्योंकि हमने जो देखा औ सुना है, उसके विषय में नहीं बोलना हमारे लिए सम्भव नहीं।’’ जिसे हम आज के प्रथम पाठ में पाते हैं।
जब हम मनुष्य की अपेक्षा ईश्वर पर भरोसा रखकर ईश्वर की सुनते हैं तब ईश्वर हमारे जीवन पर नियंत्रण लेते हुए हमें समृद्धि की ओर ले चलता हैं। सूक्ति ग्रंथ 3:5-6 में लिखा है, ‘‘तुम सारे ह्दय से प्रभु का भरोसा करो; अपनी बुद्धि पर निर्भर मत रहों। अपने सब कार्यों में उसका ध्यान रखो। वह तुम्हारा मार्ग प्रशस्त कर देगा।’’ तथा स्तोत्र 125ः1 कहता है, ‘‘जो प्रभु पर भरोसा रखते है, वे सियोन पर्वत के सदृश हैं, जो अटल है और सदा बना रहता है।’’ प्रभु पर भरोसा हमें पर्वत के समान मजबूत बनाता हैं जिससे हम किसी भी विषम स्थिति में नहीं घबराते। आईये हम प्रभु पर भरोसा को बढ़ाये क्योंकि यह प्रभु ही है जो हमें हमारे जिंदगी को सही रास्ते पर ले जाता है और हमें मजबूत बनाता हैं। आमेन
✍ - फादर डेन्नीस तिग्गा
Dear friends if I ask the question do you trust God? What will be your answer? Almost every one answer will be, yes, we trust in God. Then if I ask another question do you worry? What will be your answer? Yes, we do worry in our lives for one or the other way. Then I must tell you that if we worry it means we do not trust God in those matters because where there is trust in the Lord there is no worry. I don’t mean to say that we don’t trust God, we do trust God, but we don’t put our full trust on him. Psalm 118:8 says, “It is better to take refuge in the Lord that to put confidence in man.” Other version says, “It is better to trust in the Lord than to put confidence in man.” Let’s us reflect in our lives when we need to take any decision during the time of bad situation or good situation, whom do we put our trust, in God or man. Man means in human intellect, human money, human experts, human mind, human suggestions and solutions, human power, technology made by man, science and so on.
Jesus calls us to put our trust in the Lord. Jesus said to the rich man in Mark 10:21, “You lack one thing; go, sell what you have, and give to the poor, and you will have treasure in heaven; and come, follow me.” Here Jesus means that detach oneself from depending on the wealth and power of material or human beings. To put the trust in the Lord we need to learn from St. Peter, who after witnessing the risen Lord and receiving the Holy Spirit, he surrenders his life in the hands of God. It is the trust in Jesus which gives him the courage to say, “You must judge whether in God’s eyes it is right to listen to you and not to God. We cannot stop proclaiming what we have seen and heard.” which we find in today’s first reading.
When we trust in God and listen to him more than any human person then Lord takes control of our life and leads us to the prosperity. Proverbs 3:5-6 tells, “Trust in the Lord with all your heart, and do not rely on your own inight. In all your ways acknowledge and he will make straight your paths.” Psalm 125:1 says, “Those who trust in the Lord are like Mount Zion, which cannot be moved but abides forever.” Trust in the Lord makes us firm like Mountain and during the time of adversaries we will not be shaken. Let us build our trust in the Lord because it is the Lord who brings our life on track and makes us strong. Amen
✍ -Fr. Dennis Tigga