4) प्रभु ने मुझे शिय बना कर वाणी दी है, जिससे मैं थके-माँदे लोगों को सँभाल सकूँ। वह प्रतिदिन प्रातः मेरे कान खोल देता है, जिससे मैं शिय की तरह सुन सकूँ।
5) प्रभु ने मेरे कान खोल दिये हैं; मैंने न तो उसका विरोध किया और न पीछे हटा।
6) मैंने मारने वालों के सामने अपनी पीठ कर दी और दाढ़ी नोचने वालों के सामने अपना गाल। मैंने अपमान करने और थूकने वालों से अपना मुख नहीं छिप़ाया।
7) प्रभु मेरी सहायता करता है; इसलिए मैं अपमान से विचलित नहीं हुआ। मैंने पत्थर की तरह अपना मुँह कड़ा कर लिया। मैं जानता हूँ कि अन्त में मुझे निराश नही होना पड़ेगा।
8) मेरा रक्षक निकट है, तो मेरा विरोधी कौन? हम एक दूसरे का सामना करें। मुझ पर अभियोग लगाने वाला कौन? वह आगे बढ़ने का साहस करे।
9) प्रभु-ईश्वर मेरी सहायता करता है, तो कौन मुझे दोषी ठहराने का साहस करेगा? मेरे सभी विरोधी वस्त्र की तरह जीर्ण हो जायेंगे, उन्हें कीड़े खा जायेंगे।
14) तब बारहों में से एक, यूदस इसकारियोती नामक व्यक्ति ने महायाजकों के पास जा कर
15) कहा, "यदि मैं ईसा को आप लोगों के हवाले कर दूँ, तो आप मुझे क्या देने को तैयार हैं?" उन्होंने उसे चाँदी के तीस सिक्के दिये।
16) उस समय से यूदस ईसा को पकड़वाने का अवसर ढूँढ़ता रहा।
17) बेख़मीर रोटी के पहले दिन शिष्य ईसा के पास आकर बोले, "आप क्या चाहते हैं? हम कहाँ आपके लिए पास्का-भोज की तैयारी करें?"
18) ईसा ने उत्तर दिया, "शहर में अमुक के पास जाओ और उस से कहो, ’गुरुवर कहते हैं- मेरा समय निकट आ गया है, मैं अपने शिष्यों के साथ तुम्हारे यहाँ पास्का का भोजन करूँगा’।"
19) ईसा ने जैसा आदेश दिया, शिष्यों ने वैसा ही किया और पास्का-भोज की तैयारी कर ली।
20) सन्ध्या हो जाने पर ईसा बारहों शिष्यों के साथ भोजन करने बैठे।
21) उनके भोजन करते समय ईसा ने कहा, "मैं तुम लोगों से यह कहता हूँ- तुम में से ही एक मुझे पकड़वा देगा"।
22) वे बहुत उदास हो गये और एक-एक कर उन से पूछने लगे, "प्रभु! कहीं वह मैं तो नहीं हूँ?"
23) ईसा ने उत्तर दिया, "जो मेरे साथ थाली में खाता है, वह मुझे पकड़वा देगा।
24) मानव पुत्र तो चला जाता है, जैसा कि उसके विषय में लिखा है; परन्तु धिक्कार उस मनुष्य को, जो मानव पुत्र को पकड़वाता है! उस मनुष्य के लिए कहीं अच्छा यही होता कि वह पैदा ही नहीं हुआ होता।"
25) ईसा के विश्वासघाती यूदस ने भी उन से पूछा, "गुरुवर! कहीं वह मैं तो नहीं हूँ? ईसा ने उत्तर दिया, तुमने ठीक ही कहा"।
नबी इसायाह ईश्वर के सेवक के जीवन में होने वाली कुछ बातों को हमारे सामने रखते हैं। यह सेवक प्रभु की वाणी पर ध्यान देगा एवं थके-मांदे को संभालेगा। इस पर दोष लगा कर इसका विरोध होगा। इसको अपमानित किया जाऐगा। फिर भी यह चुप रहेगा और सब-कुछ चुपचाप सह लेगा। लेकिन इस सेवक का भरोसा प्रभु ईश्वर पर बना रहता हैं, क्योंकि वह जानता है, वह उसे बचाऐगा।
यूदस महायाजकों के पास जा कर येसु को बेचने की तैयारी में लग जाता है। येसु आगे वाली पीड़ा समझ जाते है। प्रभु येसु अपना पास्का का भोजन अपने शिष्यों के साथ करते हैं। अब समय आ चुका था, प्रभु येसु पिता ईश्वर की इच्छा को पूरा करने के लिए तैयार हो जाते हैं।
क्या हम प्रभु की वाणी पर ध्यान देते हैं? आइये, हम भी प्रभु की इच्छा को पूरी करने के लिए तैयार हो जायें।
✍ - फादर साइमन मोहता (इंदौर धर्मप्रांत)
Prophet Isaiah puts before us some of the things that happened in the life of the servant of God. This servant will pay attention to the voice of the Lord and take care of the weary and burdened. He will be opposed by blaming. He will be insulted. Yet he will remain silent and bear everything silently. But this servant's trust remains on Lord God, because he knows, he will save him.
Judas goes to the high priests and starts preparing to sell Jesus. Jesus understands the pain ahead. Lord Jesus eats his Passover meal with his disciples. Now the time has come, Lord Jesus gets ready to fulfill the will of God the Father.
Do we heed the voice of the Lord? Come, let us also get ready to fulfill the will of the Lord.
✍ -Fr. Simon Mohta (Indore Diocese)
नबी इसायाह ने ईश्वर के साथ अपने व्यक्तिगत संबंध का खुलासा किया। ईश्वर ने उन्हें महान उपहारों के साथ आशीर्वाद दिया लेकिन यह ईश्वर के कार्यों को पूरा करने के उद्देशयो लिए था जिसने उसे बुलाया था।
इस मिशन को सफलतापूर्वक पूरा करने के लिए, हमें प्रभु के सेवक के रहस्य पर ध्यान देने की आवश्यकता है:
"प्रभु ने मुझे शिष्य बना कर वाणी दी है, जिससे मैं थके-माँदे लोगों को सँभाल सकूँ। वह प्रतिदिन प्रातः मेरे कान खोल देता है, जिससे मैं शिष्य की तरह सुन सकूँ।”
इस प्रकार, प्रभु के सेवक को सांत्वना, प्रोत्साहन, सुधार और अनुग्रह की भाषा का उपयोग करना चाहिए, जैसा कि संत पौलुस एफिसियो 4:29 में कहते है: "आपके मुख से कोई अशलील बात नहीं, बल्कि ऐसे शब्द निकलें, जो अवसर के अनुरूप दूसरों के निर्माण तथा कल्याण में सहायक हों।”
एक शिक्षक की जीभ ईश्वर की ओर से एक उपहार है, एक उपहार जो उसके साथ घनिष्ठता विकसित करने और उसके चमत्कारों को संप्रेषित करने से बढ़ता है।
ईश्वर के साथ घनिष्ठता ईश्वर के सेवक का रहस्य है। यह सुबह सुनने के माध्यम से प्राप्त होता है, जो ईश्वर के शिष्य की एक विशिष्ट विशेषता है, जो कभी भी प्रभु के चरणों में समय व्यतीत किए बिना एक दिन की शुरुआत नहीं करता है। प्रत्येक सुबह, शिष्य प्रभु की आवाज सुनना चाहता है, जो इंगित करता है कि किस मार्ग का अनुसरण करना है (भजन संहिता 32:8)। यह सुनने से अनुयायी एक अच्छे शिष्य के रूप में विकसित होगा जो गुरु से सीखने के लिए हमेशा तैयार रहता है। यह सीखने का समय है जो शिष्य को दुनिया को घोषित करने के लिए अच्छी चीजें देता है।
वास्तव में, प्रभु अपने शिष्य को सिखाने के लिए हमेशा तैयार रहते हैं, जिन्हें उनसे मिलने का समय मिलता है। प्रार्थना करें, "प्रभु, मुझे आपकी बात सुनने में मदद करें, ताकि, येसु मसीह की तरह, मैं अपने आस-पास के लोगों के लिए एक आशीर्वाद बन सकूं।
✍ - फादर रोनाल्ड मेलकम वॉन
Prophet Isaiah reveals his personal relationship with God. God blessed him with great gifts but it was to fulfil the works of God who called him.
To successfully carry out this mission, we need to dwell on the secret of the Lord’s servant:
“The Lord God has given me the tongue of a teacher, that I may know how to sustain the weary with a word. Morning by morning he wakens—wakens my ear to listen as those who are taught.”
Thus, the servant of the Lord ought to be using the language of consolation, encouragement, recovery and the grace as St. Paul tells in Ephesians 4:29: “Let no evil talk come out of your mouths, but only what is useful for building up, as there is need, so that your words may give grace to those who hear.”
The tongue of a teacher is a gift from God, a gift that grows through developing intimacy with him and communicating his wonders.
Intimacy with God is the secret of the servant of the Lord. It’s achieved through morning listening, a typical feature of the Lord’s disciple, who never begins a day without spending time at the feet of the Lord. Each morning, the disciple wants to hear the voice of the Lord, who indicates which road to follow (Psalm 32:8). This listening will develop the follower into a good disciple who is always ready to learn from the Master. It is a time of learning that gives the disciple good things to proclaim to the world.
Indeed, the Lord is always ready to teach his disciple who finds time to meet him. Let prayer be, “Lord, help me listen to you, so that, like Jesus Christ, I can be a blessing to those around me.
✍ -Fr. Ronald Melcom Vaughan
सबसे ह्दय-विदारक या सबसे दर्दभरा अनुभव वह अनुभव होता है जब कोई अपना करीबी अपने से विश्वासघात करता है। इस विश्वासघात के चलते कई राज्य गिर चुकी, कई सरकारे गिर चुकी और कई परिवार बरबाद हो चुके है। विश्वासघाती एक के समान होता है जो अपने साथ रहकर अपनों को ही धीरे धीरे नष्ट कर देता है।
येसु को भी युदस के द्वारा विश्वासघात के अनुभव से गुजरना पड़ा। आज का सुसमाचार संत मत्ती के सुसमाचार से लिया गया है जहॉं युदस येसु को चॉंदी के तीस सिक्कों के खातिर येसु से विश्वासघात करने के लिए तैयार हो जाता है। युदस के द्वारा विश्वासघात येसु को कू्रस पर मृत्यु की ओर ले तो जाता है परंतु येसु के राज्य को छू भी नहीं पाता। येसु का राज्य अनंत काल तक बना रहता है और रहेगा।
येसु इस संसार में ईश्वर के राज्य को बताने और हमारे बीच में उस राज्य की स्थापना करने आये थे। हम सब बपतिस्मा ग्रहण करने के द्वारा और येसु पर विश्वास के द्वारा येसु के राजकीय प्रजा बन गए है। संत पौलुस हम से कहते है, ‘‘ईश्वर हमें अन्धकार की अधीनता से निकाल कर अपने प्रिय पुत्र के राज्य में ले आया।’’ (कलो. 1:13)
अतः संत पौलुस (एफे. 5:8) हम से कहते है कि हम लोग पहले अंधकार थे, अब प्रभु के शिष्य होने के नाते ज्योति बन गये हैं। इसलिए ज्योति की सन्तान की तरह आचरण करें। हमारा जीवन शैली, हमारा स्वाभाव और आचरण, हमारे शब्द और विचार प्रभु के राज्य के अनुकूल होना चाहिए। आईये हम प्रार्थना करें कि ईश्वर का राज्य सारे संसार में फैल जाए।
✍ - फादर डेन्नीस तिग्गा
The heart breaking experience is the experience of betrayal by someone who is very close to us. Because of this betrayal many kingdoms have fallen, many governments have fallen and many familiesa have broken. Betrayer is like parasites which remains with us and slowly slowly destroy us.
This was the experience which Jesus too experienced through the betrayal of Judas. Today’s Gospel reading is taken from Matthew’s gospel where Judas was ready to betray Jesus for 30 silver coins. Betrayal by Judas led Jesus to the death on the cross but could not affect his kingdom. Jesus’ kingdom reigns for ever and ever.
Jesus came in this world to teach about God’s Kingdom and to establish God’s Kingdom among us. By the grace of baptism and believing in Jesus we have become the people of his Kingdom. St Paul says in Col 1:13, “He has rescued us from the power of darkness and transferred us into the Kingdom of his beloved Son.”
Therefore St. Paul says to us in Eph. 5:8 For once we were darkness, but now in the Lord we are light. Live as children of light. Our life style, our nature and behavior, our words and thoughts should be in line with the Kingdom of God. Let’s pray that the Kingdom of God may spread all over the world.
✍ -Fr. Dennis Tigga