1) दूरवर्ती द्वीप मेरी बात सुन¨। दूर के राष्ट्रों! कान लगा कर सुनो। प्रभु ने मुझे जन्म से पहले ही बुलाया, मैं माता के गर्भ में ही था, जब उसने मेरा नाम लिया।
2) उसने मेरी वाणी को अपनी तलवार बना दिया और मुझे अपने हाथ की छाया में छिपा लिया। उसने मुझे एक नुकीला तीर बना दिया और मुझे अपने तरकश में रख लिया
3) उसने मुझे से कहा, “तुम मेरे सेवक हो, मैं तुम में अपनी महिमा प्रकट करूँगा“।
4) मैं कहता था, “मैंने बेकार ही काम किया है, मैंने व्यर्थ ही अपनी शक्ति खर्च की है। प्रभु ही मेरा न्याय करेगा, मेरा पुरस्कार उसी के हाथ में है।“
5) परन्तु जिसने मुझे माता के गर्भ से ही अपना सेवक बना लिया है, जिससे मैं याकूब को उसके पास ले चलँू और उसके लिए इस्राएल को इकट्ठा कर लूँ, वही प्रभु बोला; उसने मेरा सम्मान किया, मेरा ईश्वर मेरा बल है।
6) उसने कहाः “याकूब के वंशों का उद्धार करने तथा इस्राएल के बचे हुए लोगों को वापस ले आने के लिए ही तुम मेरे सेवक नहीं बने। मैं तुम्हें राष्ट्रों की ज्योति बना दूँगा, जिससे मेरा मुक्ति-विधान पृथ्वी के सीमान्तों तक फैल जाये।“
21) यह कहते-कहते ईसा का मन व्याकुल हो उठा और उन्होंने कहा, मैं तुम लोगो से यह कहता हूँ तुम में से ही एक मुझे पकडवा देगा।
22) शिष्य एक दूसरे को देखते रहे। वे समझ नहीं पा रहे थे कि वे किसके विषय में कह रहे हैं।
23) ईसा का एक शिष्य, जिसे वे प्यार करते थे, उनकी छाती के सामने लेटा हुआ था।
24) सिमोन पेत्रुस ने उस से इशारे से यह कहा, "पूछो तो, वे किसके विषय में कह रहे हैं?"
25) इसलिये वह ईसा की छाती पर झुककर उन से बोला, "प्रभु! वह कौन है?"
26) ईसा ने उत्तर दिया, "मैं जिसे रोटी का टुकडा थाली में डुबो कर दूँगा वही है"। और उन्होंने रोटी डुबो कर सिमोन इसकारियोती के पुत्र यूदस को दी।
27) यूदस ने उसे ले लिया और शैतान उस में घुस गया। तब ईसा ने उस से कहा, "तुम्हे जो करना है, वह जल्द ही करो"।
28) भोजन करने वालों में केाई नहीं समझ पाया कि ईसा ने उस से यह क्यों कहा।
29) यूदस के पास थैली थी, इसलिये कुछ लोग यह समझते थे कि ईसा ने उस से यह कहा होगा कि हमें पर्व के लिये जो कुछ जो कुछ चाहिए, वह खरीदना या गरीबों को कुछ दान देना।
30 टुकड़ा लेकर यूदस तुरन्त बाहर चला गया। उस समय रात हो चली थी।
31) यूदस के चले जाने के बाद ईसा ने कहा, अब मानव पुत्र महिमान्वित हुआ और उसके द्वारा ईश्वर की महिमा प्रकट हुई।
32) यदि उसके द्वारा ईश्वर की महिमा प्रकट हुई, तो ईश्वर भी उसे अपने यहाँ महिमान्वित करेगा और वह शीघ्र ही उसे महिमान्वित करेगा।
33) बच्चों! मैं और थोडे ही समय तक तुम्हारे साथ हूँ। तुम मुझे ढूँढोगे और मैंने यहूदियों से जो कहा था, अब तुम से भी वही कहता हूँ - मैं जहाँ जा रहा हूँ, वहाँ तुम नहीं आ सकते।"
36) सिमोन पेत्रुस ने उन से कहा, "प्रभु! आप कहाँ जा रहे हैं"? ईसा ने उसे उत्तर दिया, "मैं जहाँ जा रहा हूँ, वहाँ तुम इस समय मेरे पीछे नहीं आ सकते। तुम वहाँ बाद में आओगे।
37) पेत्रुस ने उन से कहा, "प्रभु! मैं इस समय आपके पीछे क्यों नही आ सकता? मैं आपके लिये अपने प्राण दे दूँगा।"
38) ईसा ने उत्तर दिया, "तुम मेरे लिये अपने प्राण देागे? मैं तुम से यह कहता हूँ मुर्गे के बाँग देने से पहले ही तुम मुझे तीन बार अस्वीकार करोगे।
प्रभु ईश्वर का चुनाव अपने सेवकों के लिए अनोखा है। वे उनको अपना नाम ले ले कर बुलाते हैं। मेरे जन्म के पहले ही, माता के गर्भ में से ही उसने मेरा नाम ले कर बुलाया है। उसने मुझे तैयार किया है। उसने मुझ से कहा, “तुम मेरे सेवक हो, मैं तुम में अपनी महिमा प्रकट करूंगा। प्रभु ने हमें अपनी माता के गर्भ में से ही अपना सेवक चुन लिया है।
प्रभु येसु को ईश्वर ने अपने सेवक के रूप में चुन लिया। उसे राष्ट्रों की ज्योति बना दिया, जिससे उसके द्वारा सबों का उद्धार हो सके। और वह घड़ी अब निकट ही थी कि येसु के द्वारा सारी मानव-जाति का उद्वार हो। यूदस इस तैयारी में था कि वह प्रभु येसु को पकड़़वा दे। उन्होंने यूदस से कहा, “तुम्हें जो करना है, वह जल्द ही करो।“’
क्या हम प्रभु के बुलावे को पहचानते हैं? आइये, हम अपनी ख्रीस्तीय बुलाहट के अनुसार आचरण करें।
✍ - फादर साइमन मोहता (इंदौर धर्मप्रांत)
The choice of Lord God for his servants is unique. He calls them by their names. Even before my birth, from my mother's womb, He has called me by name. He has prepared me. He said to me, “You are my servant, I will reveal my glory in you. The Lord has chosen us to be His servants from the womb of our mother.
God chose Lord Jesus as his servant. He was made the light of the nations, so that all could be saved through him. And the hour was now near when the salvation of all mankind would come through Jesus. Judas was preparing to hand over the Lord Jesus. He said to Judas, "Whatever you have to do, do it quickly."
Do we recognize the call of the Lord? Let us live according to our Christian calling.
✍ -Fr. Simon Mohta (Indore Diocese)
किसी मित्र या परिवार के किसी सदस्य द्वारा विश्वासघात किया जाना जीवन के सबसे कड़वे अनुभवों में से एक है। कभी-कभी भावनात्मक दर्द शारीरिक दर्द से भी कष्टदायक होता है। हम विश्वासघातियों से कैसे निपटते हैं? विश्वासघात के बारे में सबसे दुखद बात यह है कि यह कभी किसी शत्रु से नहीं आता है। यह हमेशा किसी ऐसे व्यक्ति से आता है जिसे हम प्यार करते हैं और जिस पर हम भरोसा करते हैं। जो कभी हमारे जीवन का अभिन्न हिस्सा रहा हो और तब हमें एहसास हुआ कि हमारे भरोसे और प्यार से समझौता किया गया है। येसु भी अपने सबसे करीबी दोस्तों से विश्वासघात और अस्वीकृति का अनुभव करते है। हालाँकि, येसु के साथ विश्वासघात और अस्वीकृति की सुंदरता और विशिष्टता यह थी कि येसु यह सब जानते थे। येसु जानते थे कि कौन, कब और किस परिस्थिति में उन्हें छोड़ देगा।
फिर भी अपने जीवन के अंतिम क्षण से पहले येसु ने यूदस और पेत्रुस दोनों को उनके द्रारा किये जाने वाले विश्वासघात और अस्वीकृति के बारे में आगाह कर दिया। यह येसु का उन्हें यह बताने का तरीका था कि उनकी साजिश और कमजोरियों को जानकर भी, येसु अब भी उनसे प्यार करते हैं और उन्हें अंत तक प्यार करते हैं। येसु यूदस के बारे में बताते है, `'यह वही है जिसे मैं रोटी के टुकड़े को थाली में डुबोकर देता हूँ।' इसलिए जब उसने रोटी का टुकड़ा डुबोया, तो उसने शमौन इस्करियोती के पुत्र यहूदा को दे दिया।' और पेत्रुस से उन्होंने कहा, "मुर्गे के बाँग देने से पहिले तुम मुझे अस्वीकार करोगे।"
येसु के साथ विश्वासघात किया गया था लेकिन उनके मन में कोई द्वेष और कठोर भावना नहीं थी क्योंकि उन्होंने इसे उस कार्य के अंग के रूप में स्वीकार किया था जिसे उसे पूरा करना था। कोई उदासी, सदमा या दर्द येसु को अपना काम करने से नहीं रोक सकता था।
हम भी इनकार और विश्वासघात का अनुभव करते हैं। हम विश्वासघात को कैसे संभालते हैं? पहली चीज जो हम करना चाहते हैं वह है बदला लेना। शारीरिक रूप से नहीं तो हमारे दिमाग में। लेकिन हमें स्थिर रहना चाहिए। हमें अपने दिमाग को दुःख की स्थिति से हटाना चाहिए और अपना ध्यान मसीह पर लगाना चाहिए। जब येसु के साथ विश्वासघात की घड़ी आई, तो उन्होंने यही किया। हमें उनके साथ वैसा ही व्यवहार करना चाहिए जैसा येसु ने किया था। इन कटु अनुभवों को हम हमारी बड़ी और अदृश्य भलाई के लिए ईश्वर की इच्छा के रूप में स्वीकार करें और कभी भी नुकसान की भावनात्मक भावना से न झुकें।
जब आप अपना मन मसीह पर लगाते हैं तो एक अद्भुत शांति और प्रेम की अनुभूति होती है जो वे प्रदान करते है। हमे एक शांत जगह खोजकर ईश्वर को पुकारना चाहिए। ईश्वर हमारे दर्द और चोट में मदद कर सकते है। अपने विश्वासघाती के लिए प्रार्थना करें जैसे मसीह ने अपने शत्रुओं के लिए प्रार्थना की।
✍ - फादर रोनाल्ड मेलकम वॉन
Being betrayed by a friend or a family member is one of the worst feelings ever. Sometimes the emotional pain is far worse than that of physical pain. How do we deal with the betrayals? The saddest thing about betrayal is that it never comes from an enemy. It always comes from someone whom we love and trust. Someone who had been part of our project and then we realized that our trust and love has been compromised. Jesus too experiences betrayal and denial from his closest friends. However, the beauty and uniqueness of the betrayal and denial Jesus would face were that Jesus knew it all along. Jesus knew who, when, and in what measure and circumstance would abandon him.
Yet Jesus before the final moment of truth forewarns both Judas and Peter about their impending betrayal. It was Jesus’ way of letting them know that knowing their conspiracy and weakness Jesus still loves them and loved them till the end. Jesus tells about Judas ‘It is the one to whom I give this piece of bread when I have dipped it in the dish.’ So when he had dipped the piece of bread, he gave it to Judas son of Simon Iscariot.” And to Peter, he said that “before the cock crows, you will have denied me three times.”
Jesus was betrayed but he held no grudge and hard feelings because he accepted it as part of the mission that he was to accomplish. No sadness, shock, or pain could stop Jesus from carrying on his work.
We too experience denial and betrayal. How do we handle betrayal? The first thing we want to do is get revenge. If not physically, then in our minds. However, we must be still. We must take our minds off the situation and put our focus on Christ. This is what Jesus did when his hour of betrayal had come. We need to deal with them as Jesus did. Accept them as God’s will for our greater and unseen good and never bog down by the sentimental sense of loss.
When you set your mind on Christ there is an amazing peace and love feeling that He will provide. Go find a quiet place. Cry out to God. Allow God to help your pain and hurt. Pray for your betrayer just like Christ prayed for His enemies.
✍ -Fr. Ronald Melcom Vaughan
आज के सुसमाचार में येसु आने वाने समय में उनकें शिष्यों में से एक द्वारा विश्वासघात किये जाने और आगे पेत्रुस द्वारा अस्विकार किये जाने की बात बताते है। यह अपने शिषयों के साथ भोजन करने का दृश्य हैं। इस दृश्य में तीन व्यक्ति पर ज्यादा प्रकाश जाता हैः येसु, युदस और पेत्रुस।
पहले येसु, जिन्हें मालूम है कि आने वाला समय उनके लिए बहुत ही कष्टदायी होने वाली हैं जिसकी शुरुआत युदस के विश्वासघात से होगी और आगे चलकर पेत्रुस के द्वारा अस्वीकार किए जाना भी शामिल होगा। ये सब जानने के बावजूद भी येसु उनके साथ उनके प्रति असीम प्रेम के साथ भोजन करते है।
दूसरा, येसु और उसके प्यार को कभी भी नहीं जानने वाला युदस, येसु को समझने में असमर्थ रहता है और येसु के बदले धन को ज्यादा महत्व देता है।
तीसरा पेत्रुस जो समझता है कि वह येसु को दूसरों से अधिक प्यार करता है परन्तु सच्चाई यह थी पेत्रुस जितना अपने आप को जानता था उसकी अपेक्षा येसु पेत्रुस को कहीं अधिक अच्छे से जानते थे।
हर यूख्रीस्तीय समारोह में उस भोज को साझा करने के लिए येसु हमारे साथ रहते हैं। और उस भोज के दौरान येसु सब जानते है कि हम से प्रत्येक व्यक्ति उस भोज के बाद क्या क्या करने वाले है, सब जानने के बावजूद भी वह हमारे प्रति पूरे प्रेम के साथ उस भोज को साझा करते है।
कभी कभी हम युदस के समान व्यवहार करते है जो येसु के साथ रहते हुए भी येसु को समझ नहीं पाया। हम बचपन से ख्रीस्तीय होंगे; हम सभी धार्मिक गतिविधियों में हमेंशा सहभाग होते होंगे लेकिन फिर भी हम येसु के असीमित प्यार को समझने में विफल हो जाते हैं।
कभी कभी हम सोचते है कि हम अपने आपको बहुत अच्छी तरह से जानते है। हम सोचते हैं कि हमारे पास ज्ञान हैं, प्रतिभा हैं और हम अपने जीवन को अच्छी तरह से संभाल सकते है परंतु सच्चाई यह है कि येसु के सिवा हमें कोई भी पूरी तरह से नहीं जानता।
येसु को अच्छी तरह से जानने का एक ही रास्ता है वह है उसके प्यार को व्यक्तिगत स्तर पर अनुभव करना, जिस प्रकार योहन ने एहसास किया कि येसु उसे प्यार करते है। ‘‘ईसा का एक शिष्य जिसे वे प्यार करते थे’’ (योहन 13:23)। हम येसु को अपनी कमजोरियों के साथ कभी भी पूर्ण रूप से प्यार नहीं कर सकते। परन्तु हम हर क्षण इस पर मनन कर सकते हैं कि किस प्रकार येसु हर एक क्षण हम प्रत्येक से प्यार करता और हमारी देखभाल करता है, दिन की शुरुआत से दिन के अंत तक। और यही प्रेम हमें येसु के साथ सदा बनें रहने और उसको कभी नहीं त्यागने में हमें बल और सहायता प्रदान करता है। आईये हम उसके प्रेम को प्रत्येक क्षण महसूस करें। आमेन!
✍ - फादर डेन्नीस तिग्गा
In today’s Gospel Jesus foretells the betrayal by one of the disciples and later foretells the denial by Peter. The scene is of the Supper where Jesus is with his disciples. This scene mostly highlights the three persons: Jesus, Judas and Peter.
First is Jesus who knows that the coming time will be very excruciating one and it will start with the betrayal of Judas and later denial by Peter. Knowing everything, he is having supper with them with all the love for them.
Judas, a person who has never known Jesus well and his love, fails to understand him and give more importance for money than Jesus.
Peter who feels that he is the person who loves Jesus more than others but the truth was, more than Peter knew about himself Jesus knew Peter very well.
In every Eucharistic celebration Jesus is with us to share the fellowship meal with us. And during that meal He knows each and every one of us what we are going to do afterward, knowing everything of us, He shares the meal with all the love for us.
Sometimes we will be like Judas who was with Jesus but was not able to understand Him. We may be Christians from the child onwards; we may be regular for the pious activities but fail to understand the unconditional love of Jesus.
Sometimes we feel that we know about ourselves very well. We think we have knowledge, talents and we can handle our lives very well but the truth is except Jesus no one knows about ourselves very well.
The only way we can be with Jesus is to understand his love for us in personal level, just as John realized that Jesus loved him.(the one whom Jesus loved John 13:23). We may not be able to love Jesus with our weaknesses. But we can always meditate upon, how Jesus loves and takes care of each one of us at each and every moment, from the beginning of the day till the end of day. And this love of Jesus will strengthen us and help us to always remain with him and not to desert him anytime. Let’s experience his love at each and every moment. Amen
✍ -Fr. Dennis Tigga