1) जब वे येरूसालेम के निकट, जैतून पहाड़ के समीप बेथफ़गे और बेथानिया पहुँचे, तो ईसा ने अपने दो शिष्यों को यह कहते हुए भेजा,
2) "सामने के गाँव जाओ। वहाँ पहुँचते ही तुम्हें बँधा हुआ एक बछेड़ा मिलेगा, जिस पर अब तक कोई नहीं सवार हुआ है। उसे खोल कर ले आओ।
3) यदि कोई तुम से कहे- यह क्या कर रहे हो, तो कह देना, प्रभु को इसकी ज़रूरत है, वह इसे शीघ्र ही वापस भेज देंगे।"
4) शिष्य चले गये और बछेड़े को बाहर सड़क के किनारे एक फाटक पर बँधा हुआ पा कर उन्होंने उसे खोल दिया।
5) वहाँ खड़े लोगों में कुछ ने कहा, "यह क्या कर रहे हो? बछेड़ा क्यों खोलते हो?"
6) ईसा ने जैसा बताया था, शिष्यों ने वैसा ही कहा और लोगों ने उन्हें जाने दिया।
7) उन्होंने, बछेड़े को ईसा के पास ले आ कर, उस पर अपने कपड़े बिछा दिये और ईसा सवार हो गये।
8) बहुत-से लोगों ने अपने कपड़े रास्ते में बिछा दिये। कुछ लोगों ने खेतों में हरी-भरी डालियाँ काट कर फैला दीं।
9) रईसा के आगे-आगे जाते हुए और पीछे-पीछे आते हुए लोग यह नारा लगा रहे थे, "होसन्ना! धन्य हैं वह, जो प्रभु के नाम पर आते हैं!
10) धन्य हैं हमारे पिता दाऊद का आने वाला राज्य! सर्वोच्च स्वर्ग में होसन्ना!"
4) प्रभु ने मुझे शिय बना कर वाणी दी है, जिससे मैं थके-माँदे लोगों को सँभाल सकूँ। वह प्रतिदिन प्रातः मेरे कान खोल देता है, जिससे मैं शिय की तरह सुन सकूँ।
5) प्रभु ने मेरे कान खोल दिये हैं; मैंने न तो उसका विरोध किया और न पीछे हटा।
6) मैंने मारने वालों के सामने अपनी पीठ कर दी और दाढ़ी नोचने वालों के सामने अपना गाल। मैंने अपमान करने और थूकने वालों से अपना मुख नहीं छिप़ाया।
7) प्रभु मेरी सहायता करता है; इसलिए मैं अपमान से विचलित नहीं हुआ। मैंने पत्थर की तरह अपना मुँह कड़ा कर लिया। मैं जानता हूँ कि अन्त में मुझे निराश नही होना पड़ेगा।
6) वह वास्तव में ईश्वर थे और उन को पूरा अधिकार था कि वह ईश्वर की बराबरी करें,
7) फिर भी उन्होंने दास का रूप धारण कर तथा मनुष्यों के समान बन कर अपने को दीन-हीन बना लिया और उन्होंने मनुष्य का रूप धारण करने के बाद
8) मरण तक, हाँ क्रूस पर मरण तक, आज्ञाकारी बन कर अपने को और भी दीन बना लिया।
9) इसलिए ईश्वर ने उन्हें महान् बनाया और उन को वह नाम प्रदान किया, जो सब नामों में श्रेष्ठ है,
10) जिससे ईसा का नाम सुन कर आकाश, पृथ्वी तथा अधोलोक के सब निवासी घुटने टेकें
11) और पिता की महिमा के लिए सब लोग यह स्वीकार करें कि ईसा मसीह प्रभु हैं।
14:1) पास्का तथा बेख़मीर रोटी के पर्व में दो दिन रह गये थे। महायाजक और शास्त्री ईसा को छल से गिरफ़्तार करने और मरवा देने का उपाय ढूँढ़ रहे थे।
2) फिर भी वे कहते थे, "पर्व के दिनों में नहीं। कहीं ऐसा न हो कि जनता में हंगामा हो जाये।"
3) जब ईसा बेथानिया में सिमाने कोढ़ी के यहाँ भोजन कर रहे थे, तो एक महिला संगमरमर के पात्र में असली जटामांसी का बहुमूल्य इत्र ले कर आयी। उसने पात्र तोड़ कर ईसा के सिर पर इत्र ऊँढ़ेल दिया।
4) इस पर कुछ लोग झुंझला कर एक दूसरे से बोले, "इत्र का यह अपव्यय क्यों?
5) यह इत्र तीन सौ दीनार से अधिक में बिक सकता था और इसकी कीमत ग़रीबों में बाँटी जा सकती थी" और वे उसे झिड़कते रहे।
6) ईसा ने कहा, "इसको छोड़ दो। इसे क्यों तंग करते हो? इसने मेरे लिए भला काम किया।
7) ग़रीब तो बराबर तुम लोगों के साथ रहेंगे। तुम जब चाहो, उनका उपकार कर सकते हो; किन्तु मैं हमेशा तुम्हारे साथ नहीं रहूँगा।
8) यह जो कुछ कर सकती थी, इसने कर दिया। इसने दफ़न की तैयारी में पहले ही से मेरे शरीर पर इत्र लगाया।
9) मैं तुम लोंगों से यह कहता हूँ - सारे संसार में जहाँ कहीं सुसमाचार का प्रचार किया जायेगा, वहाँ इसकी स्मृति में इसके इस कार्य की भी चर्चा होगी।"
10) बारहों में से एक, यूदस इसकारियोती, महायाजकों के पास गया और उसने ईसा को उनके हवाले करने का प्रस्ताव किया।
11) वे यह सुन कर बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने उसे रुपया देने का वादा किया और यूदस ईसा को पकड़वाने का अवसर ढूँढ़ता रहा।
12) बेख़मीर रोटी के पहले दिन, जब पास्का के मेमने की बलि चढ़ायी जाती है, शिष्यों ने ईसा से कहा, "आप क्या चाहते हैं? हम कहाँ जा कर आपके लिए पास्का भोज की तैयारी करें?"
13) ईसा ने दो शिष्यों को यह कहते हुए भेजा, "शहर जाओ। तुम्हें पानी का घड़ा लिये एक पुरुष मिलेगा। उसके पीछे-पीछे चलो।
14) और जिस घर में वह प्रवेश करे, उस घर के स्वामी से यह कहो, ’गुरुवर कहते हैं- मेरे लिए अतिथिशाला कहाँ हैं, जहाँ मैं अपने शिष्यों के साथ पास्का का भोजन करूँ?’
15) और वह तुम्हें ऊपर सजा-सजाया बड़ा कमरा दिखा देगा वहीं हम लोगों के लिए तैयार करो।"
16) शिष्य चल पड़े। ईसा ने जैसा कहा था, उन्होंने शहर पहुँच कर सब कुछ वैसा ही पाया और पास्का-भोज की तैयारी कर ली।
17) सन्ध्या हो जाने पर ईसा बारहों के साथ आये।
18) जब वे बैठ कर भोजन कर रहे थे, तो ईसा ने कहा, "मैं तुम लोगों से यह कहता हूँ - तुम में से ही एक, जो मेरे साथ भोजन कर रहा है, मुझे पकड़वा देगा"।
19) वे बहुत उदास हो गये और एक-एक कर उन से पूछने लगे, "कहीं वह मैं तो नहीं हूँ?"
20) ईसा ने उत्तर दिया, "वह बारहों में से ही एक है, जो मेरे साथ थाली में खा रहा है।
21) मानव पुत्र तो चला जाता है, जैसा कि उसके विषय में लिखा है; परन्तु धिक्कार उस मनुष्य को, जो मानव पुत्र को पकड़वाता है! उस मनुष्य के लिए अच्छा यही होता कि वह पैदा ही नहीं हुआ होता।"
22) उनके भोजन करते समय ईसा ने रोटी ले ली, और आशिष की प्रार्थना पढ़ने के बाद उसे तोड़ा और यह कहते हुए शिष्यों को दिया, "ले लो, यह मेरा शरीर है"।
23) तब उन्होंने प्याला ले कर धन्यवाद की प्रार्थना पढ़ी और उसे शिष्यों को दिया और सब ने उस में से पीया।
24) ईसा ने उन से कहा, "यह मेरा रक्त है, विधान का रक्त, जो बहुतों के लिए बहाया जा रहा है।
25) मैं तुम से यह कहता हूँ - जब तक मैं ईश्वर के राज्य में नवीन रस न पी लूँ, तब तक मैं दाख का रस फिर नहीं पिऊँगा।"
26) भजन गाने के बाद वे जैतून पहाड़ चल दिये।
27) ईसा ने उन से कहा, "तुम सब विचलित हो जाओगे; क्योंकि यह लिखा है- मैं चरवाहे को मारूँगा और भेडें़ तितर-बितर हो जायेंगी।
28) किन्तु अपने पुनरुत्थान के बाद मैं तुम लोगों से पहले गलीलिया जाऊँगा।"
29) इस पर पेत्रुस ने कहा, "चाहे सभी विचलित हो जायें, किन्तु मैं विचलित नहीं होऊँगा"।
30) ईसा ने उत्तर दिया, "मैं तुम से यह कहता हूँ - आज, इसी रात को, मुर्गे के दो बार बाँग देने से पहले ही तुम मुझे तीन बार अस्वीकार करोगे"।
31) किन्तु वह और भी ज़ोर से यह कहता जाता था, "मुझे आपके साथ चाहे मरना ही क्यों न पड़े, मैं आप को कभी अस्वीकार नहीं करूँगा" और सभी शिष्य यही कहते थे।
32) वे गेथसेमनी नामक बारी पहुँचे। ईसा ने अपने शिष्यों से कहा "तुम लोग यहाँ बैठे रहो। मैं तब तक प्रार्थना करूँगा।"
33) वे पेत्रुस, याकूब और योहन को अपने साथ ले गये। वे भयभीत तथा व्याकुल होने लगे
34) और उनसे बोले, "मेरी आत्मा इतनी उदास है कि मैं मरने-मरने को हूँ। यहाँ ठहर जाओ और जागते रहो।"
35) वे कुछ आगे बढ़ कर मुँह के बल गिर पड़े और यह प्रार्थना करते रहे कि यदि हो सके, तो यह घड़ी उन से टल जाये।
36) उन्होंने कहा, "अब्बा! पिता! तेरे लिए सब कुछ सम्भव है। यह प्याला मुझ से हटा ले। फिर भी मेरी नहीं, बल्कि तेरी ही इच्छा पूरी हो।"
37) तब वे अपने शिष्यों के पास गये और उन्हें सोया हुआ देख कर पेत्रुस से बोले, "सिमोन! सोते हो? क्या तुम घण्टे भर भी मेरे साथ नहीं जाग सके?
38) जागते रहो और प्रार्थना करते रहो, जिससे तुम परीक्षा में न पड़ो। आत्मा तो तत्पर है, परन्तु शरीर दुर्बल"
39) और उन्होंने फिर जा कर उन्हीं शब्दों को दुहराते हुए प्रार्थना की।
40) लौटने पर उन्होंने अपने शिष्यों को फिर सोया हुआ पाया, क्योंकि उनकी आंखें भारी थीं। वे नहीं जानते थे कि क्या उत्तर दें।
41) ईसा जब तीसरी बार अपने शिष्यों के पास आये, तो उन्होंने उन से कहा, "अब तक सो रहे हो? अब तक आराम कर रहे हो? बस! वह घड़ी आ गयी है। देखो! मानव पुत्र पापियों के हवाले कर दिया जायेगा।
42) उठो! हम चलें। मेरा विश्वासघाती निकट आ गया है।"
43) ईसा यह कह ही रहे थे कि बारहों में से एक यूदस आ गया। उसके साथ तलवारें और लाठियाँ लिये एक बड़ी भीड़ थीं, जिसे महायाजकों, शास्त्रियाँ और नेताओं ने भेजा था।
44) विश्वासघाती ने उन्हें यह कहते हुए संकेत दिया था, "मैं जिसका चुम्बन करूँगा, वही हैं। उसी को पकड़ना और सावधानी से ले जाना।"
45) उसने सीधे ईसा के पास आ कर कहा, "गुरुवर!" और उनका चुम्बन किया।
46) तब लोगों ने ईसा को पकड़ कर गिरफ़्तार कर लिया।
47) इस पर ईसा के साथियों में एक ने अपनी तलवार खींच ली और प्रधानयाजक के नौकर पर चला कर उसका कान उड़ा दिया।
48) ईसा ने भीड़ से कहा, "क्या तुम लोग मुझे डाकू समझते हो, जो तलवारें और लाठियाँ ले कर मुझे पकड़ने आये हो?
49) मैं तो प्रतिदिन तुम्हारे सामने मन्दिर में शिक्षा दिया करता था, फिर भी तुमने मुझे गिरफ़्तार नहीं किया। यह इसलिए हो रहा है कि धर्मग्रन्थ में जो लिखा है, वह पूरा हो जाये।"
50) तब सभी शिष्य ईसा को छोड़ कर भाग गये।
51) एक युवक, अपने नंगे बदन पर चादर ओढ़े, ईसा के पीछे हो लिया। भीड़ ने उसे पकड़ लिया,
52) किन्तु वह चादर छोड़ कर नंगा ही भाग गया।
53) वे ईसा को प्रधानयाजक के यहाँ ले गये। सभी महायाजक नेता और शास्त्री इकट्ठे हो गये थे।
54) पेत्रुस कुछ दूरी पर ईसा के पीछे-पीछे चला। वह प्रधानयाजक के महल पहुँच कर अन्दर गया और नौकरों के साथ बैठा हुआ आग तापता रहा।
55) महायाजक और सारी महासभा ईसा को मरवा डालने के उद्देश्य से उनके विरुद्ध गवाही खोज रही थी, परन्तु वह मिली नहीं।
56) बहुत-से लोगों ने तो उनके विरुद्ध झूठी गवाही खोज दी, किन्तु उनके बयान मेल नहीं खाते थे।
57) तब कुछ लोग उठ खड़े हो गये और उन्होंने यह कहते हुए उनके विरुद्ध झूठी गवाही दी,
58) "हमने इस व्यक्ति को ऐसा कहते सुना- मैं हाथ का बनाया हुआ यह मन्दिर ढ़ा दूँगा और तीन दिनों के अन्दर एक दूसरा खड़ा करूँगा, जो हाथ का बनाया हुआ नहीं होगा"।
59) किन्तु इसके विषय में भी उनके बयान मेल नहीं खाते थे।
60) तब प्रधानयाजक ने सभा के बीच में खड़ा हो कर ईसा से पूछा, "ये लोग तुम्हारे विरुद्ध जो गवाही दे रहे हैं, क्या इसका कोई उत्तर तुम्हारे पास नहीं है"
61) परन्तु ईसा मौन रहे और उत्तर में एक शब्द भी नहीं बोले। इसके बाद प्रधानयाजक ने ईसा से पूछा, "क्या तुम मसीह, परमस्तुत्य के पुत्र हो?"
62) ईसा ने उत्तर दिया, "मैं वही हूँ। आप लोग मानव पुत्र को सर्वशक्तिमान् ईश्वर के दाहिने बैठा हुआ और आकाश के बादलों पर आता हुआ देखेंगे।"
63) इस पर महायाजक ने अपने वस्त्र फाड़ कर कहा, "अब हमें गवाहों की ज़रूरत ही क्या है?
64) आप लोगों ने तो ईश-निन्छा सुनी है। आप लोगों का क्या विचार है?" और सब का निर्णय यह हुआ कि ईसा प्राणदण्ड के योग्य हैं।
65) तब कुछ लोग उन पर थूकने लगे और उनकी आंखों पर पट्टी बाँध कर यह कहते हुए उन्हें घूँसे मारने लगे, "यदि तू नबी है, तो बता- तुझे किसने मारा?" नौकर भी उन्हें थप्पड़ मारते थे।
66) "पेत्रुस उस समय नीचे प्रांगण में था। प्रधानयाजक की एक नौकरानी ने पास आ कर
67) पेत्रुस को आग तापते हुए देखा और उस पर दृष्टि गड़ा कर कहा, "तुम भी ईसा नाज़री के साथ थे"
68) किन्तु उसने अस्वीकार करते हुए कहा, "मैं न तो जानता हूँ और न समझता ही कि तुम क्या कह रही हो"। इसके बाद पेत्रुस फाटक की ओर निकल गया और मुर्गे ने बाँग दी।
69) नौकरानी उसे देख कर पास खड़े लोगों से फिर कहने लगी, "यह व्यक्ति उन्हीं लोगों में एक है"।
70) किन्तु उसने फिर अस्वीकार किया। इसके थोड़ी देर बाद वहाँ खड़े हुए लोग बोले, "निश्चय ही तुम उन्हीं लोगों में एक हो- तुम तो गलीली हो"।
71) इस पर पेत्रुस कोसने और शपथ खा कर कहने लगा कि तुम जिस मनुष्य की चर्चा कर रहे हो, मैं उसे जानता भी नहीं।
72 ठीक उसी समय मुर्गे ने दूसरी बार बाँग दी और पेत्रुस को ईसा का यह कहना याद आया- मुर्गे के दो बार बाँग देने से पहले ही तुम मुझे तीन बार अस्वीकार करोगे, और वह फूट-फूट कर रोता रहा।
15:1) दिन निकलते ही महायाजकों, नेताओं और शास्त्रियों अर्थात् समस्त महासभा ने परामर्श किया। इसके बाद उन्होंने ईसा को बाँधा और उन्हें ले जा कर पिलातुस के हवाले कर दिया।
2) पिलातुस ने ईसा से यह पूछा, "क्या तुम यहूदियों के राजा हो?" ईसा ने उत्तर दिया, "आप ठीक ही कहते हैं"।
3) तब महायाजक उन पर बहुत-से अभियोग लगाते रहे।
4) पिलातुस ने फिर ईसा से पूछा, "देखो, ये तुम पर कितने अभियोग लगा रहे हैं। क्या इनका कोई उत्तर तुम्हारे पास नहीं है?"
5) फिर भी ईसा ने उत्तर में एक शब्द भी नहीं कहा। इस पर पिलातुस को बहुत आश्चर्य हुआ।
6) पर्व के अवसर पर राज्यपाल लोगों की इच्छानुसार एक बन्दी को रिहा किया करता था।
7) उस समय बराबब्स नामक व्यक्ति बन्दीगृह में था। वह उन विद्रोहियों के साथ गिरफ़्तार हुआ था, जिन्होंने राजद्रोह के समय हत्या की थी।
8) जब भीड़ आ कर राज्यपाल से निवेदन करने लगी कि आप जैसा करते आये हैं, वैसा सा ही हमारे लिए करें,
9) तो पिलातुस ने उन से कहा, "क्या तुम लोग चाहते हो कि मैं तुम्हारे लिए यहूदियों के राजा को रिहा करूँ?"
10) वह जानता था कि महायाजकों ने ईर्ष्या से ईसा को पकड़वाया है।
11) किन्तु महायाजकों ने लोगों को उभाड़ा कि वे बराब्बस की ही रिहाई की माँग करें।
12) पिलातुस ने फिर भीड़ से पूछा, "तो, मैं इस मनुष्य का क्या करूँ, जिसे तुम यहूदियों का राजा कहते हो?"
13) लोगों ने उत्तर दिया, "इसे क्रूस दिया जावे"।
14) पिलातुस ने कहा, "क्यों? इसने कौन-सा अपराध किया?" किन्तु वे और भी जोर से चिल्ला उठे, "इसे क्रूस दिया जाये"।
15) तब पिलातुस ने भीड़ की माँग पूरी करने का निश्चय किया। उसने उन लोगों के लिए बराब्बस को मुक्त किया और इसा को कोड़े लगवा कर क्रूस पर चढ़ाने सैनिकों के हवाले कर दिया।
16) इसके बाद सैनिकों ने ईसा को राज्यपाल के भवन के अन्दर ले जा कर उनके पास सारी पलटन एकत्र कर ली।
17) उन्होंने ईसा को लाल चोंगा पहनाया और काँटों का मुकुट गूँथ कर उनके सिर पर रख दिया।
18) तब वे यह कहते हुए उनका अभिवादन करने लगे, "यहूदियों के राजा, प्रणाम!"
19) वे उनके सिर पर सरकण्डा मारते थे, उन पर थूकते और उनके सामने घुटने टेकते हुए उन्हें प्रणाम करते थे।
20) उनका उपहास करने के बाद उन्होंने चोंगा उतार कर उन्हें उनके निजी कपड़े पहना दिये।
21) वे ईसा को क्रूस पर चढ़ाने के लिए शहर के बाहर ले चले। उन्होंने कुरेने-निवासी सिमोन, सिकन्दर और रूफुस के पिता को, जो खेत से लौट रहा था, ईसा का क्रूस उठा कर चलने के लिए बाध्य किया।
22) वे ईसा को गोलगोथा, अर्थात् खोपड़ी की जगह, ले गये।
23) वहाँ लोग ईसा को गन्धरस मिली अंगूरी पिलाना चाहते थे, किन्तु उन्होंने उसे अस्वीकार किया।
24) उन्होंने ईसा को क्रूस पर चढ़ाया और किसे क्या मिले- इसके लिए चिट्टी डाल कर उनके कपड़े बाँट लिये।
25) जब उन्होंने ईसा को क्रूस पर चढ़ाया उस समय पहला पहर बीत चुका था।
26) दोषपत्र इस प्रकार था-’यहूदियों का राजा’।
27) ईसा के साथ ही उन्होंने दो डाकुओं को क्रूस पर चढ़ाया- एक को उनके दायें और दूसरे को उनके बायें।
28) इस प्रकार धर्मग्रन्थ का यह कथन पूरा हो गया- उसकी गिनती कुकर्मियों में हुई।
29) उधर से आने-जाने वाले लोग ईसा की निन्दा करते और सिर हिलाते हुए यह कहते थे, "ऐ मन्दिर ढ़ाने वाले और तीन दिनों के अन्दर उसे फिर बना देने वाले!
30) क्रूस से उतर कर अपने को बचा"।
31) महायाजक और शास़्त्री भी उनका उपहास करते हुए आपस में यह कहते थे, "इसने दूसरों को बचाया, किन्तु यह अपने को नहीं बचा सकता।
32) यह तो मसीह, इस्राएल का राजा है। अब यह क्रूस से उतरे, जिससे हम देख कर विश्वास करें।" जो ईसा के साथ क्रूस पर चढ़ाये गये थे, वे भी उनका उपहास करते थे।
33) दोहपर से तीसरे पहर तक पूरे प्रदेश पर अँधेरा छाया रहा।
34) तीसरे पहर ईसा ने ऊँचे स्वर से पुकारा, "एलोई! एलोई! लामा सबाखतानी?" इसका अर्थ है- मेरे ईश्वर! मेरे ईश्वर! तूने मुझे क्यों त्याग दिया है?
35) यह सुन कर पास खड़े लोगों में से कुछ ने कहा, "देखो! यह एलियस को बुला रहा है"।
36) उन में से एक ने दौड़ कर पनसोख्ता खट्टी अंगूरी में डुबाया, उसे सरकण्डे में लगाया और यह कहते हुए ईसा को पीने को दिया, "रहने दो! देखें, एलियस इसे उतारने आता है यहा नहीं"।
37) तब ईसा ने ऊँचे स्वर से पुकार कर प्राण त्याग दिये।
38) मन्दिर का परदा ऊपर से नीचे तक फट कर दो टुकड़े हो गया।
39) शतपति ईसा के सामने खड़ा था। वह उन्हें इस प्रकार प्राण त्यागते देख कर बोल उठा, "निश्चय ही, यह मनुष्य ईश्वर का पुत्र था"।
40) वहाँ कुछ नारियाँ भी दूर से देख रही थीं। उन मं मरियम मगदलेना, छोटे याकूब और यूसुफ़ की माता मरियम और सलोमी थीं।
41) जब ईसा गलीलिया में थे, वे उनके साथ रह कर उनकी सेवा-परिचर्या करती थीं। बहुत-सी अन्य नारियाँ भी थीं, जो उनके साथ येरूसालेम आयी थीं।
42) अब सन्ध्या हो गयी थीं। उस दिन शुक्रवार था, अर्थात विश्राम-दिवस के पहले दिन।
43) इसलिए अरिमथिया का यूसुफ़़, महासभा का एक सम्मानित सदस्य, जो ईश्वर के राज्य की प्रतीक्षा में था, आया। वह निर्भय हो कर पिलातुस के यहाँ गया और उसने ईसा का शव माँगा।
44) पिलातुस को आश्चर्य हुए कि वह इतने शीघ्र मर गये हैं।
45) उसने शतपति को बुला कर पूछा कि क्या वे मर चुके हैं और शतपित से इसकी सूचना पा कर यूसुफ़ को शव दिलवाया।
46) यूसुफ ने छालटी का कफ़न खरीदा और ईसा को क्रूस से उतारा। उसने उन्हें कफन में लपेट कर चट्टान में खोदी हुई कब्र में रख दिया और कब्र के द्वार पर एक पत्थर लुढ़का दिया।
47) मरियम मगदलेना और यूसुफ़ की माता मरियम यह देख रही थीं कि ईसा कहाँ रखे गये हैं।
प्यारे विश्वासियों, आज खजूर रविवार है और आज से पवित्र हफता आरम्भ होता है। इस हफते में प्रभु येसु के पीडा सहन और दुःख भोग पर मनन चिन्तन करते है। और आज हम विशेष रूप में प्रभु येसु के बछेडे के ऊपर बैट कर लोगों के द्वारा होसाना होसाना नरा लगाते हुए सुनकर, येरूसालेम मन्दिर में प्रवेश करने का पर्व मना रहे है।
प्रभु येसु जहॉ कहीं ईश्वर का विशेष निवास स्थान है उन सारी जगहों को शुद्ध करने केलिए इस दुनिया में पधारे। येरूसालेम मन्दिर एैसी जगह है जहॉ हमेशा ईश्वर की आराधना होती है। लेकिन येसु के समय इस मन्दिर अपना मुख्य उद्वेश खो चुका था और यह जगह बाजार बन गया था। इस पर येसु क्रोधित हो गये और उन्होंने रस्सियों का कोड़ा बना कर मन्दिर से बिक्री करने वालों को निष्कासित किया। येसु ने यह इसलिए किया कि ईश्वर के घर का उत्साह उन्हें खा जा रहा था।
यही उत्साह येसु को हमारे प्रति भी है; हमारे अन्तरतम को शुद्ध करें। इसलिए हमारे अन्तकरण को शुद्ध करने के लिए येसु ने पीड़ा सहन क्रूस मरण सहन किया। क्योंकि हम भी ईश्वर के मन्दिर है। 1कुरिन्थियों 3:16-17 क्या आप यह नहीं जानते कि आप ईश्वर के मन्दिर हैं और ईश्वर का आत्मा आप में निवास करता है? यदि कोई ईश्वर का मन्दिर नष्ट करेगा, तो ईश्वर उसे नष्ट करेगा; क्योंकि ईश्वर का मन्दिर पवित्र है और वह मन्दिर आप लोग हैं। 1कुरिन्थियों 6:19-20 क्या आप लोग यह नहीं जानते कि आपका शरीर पवित्र आत्मा का मन्दिर है? वह आप में निवास करता है और आप को ईश्वर से प्राप्त हुआ है। आपका अपने पर अधिकार नहीं है; क्योंकि आप लोग कीमत पर खरीदे गये हैं। इसलिए आप लोग अपने शरीर में ईश्वर की महिमा प्रकट करें।
प्यारे विश्वासियों आज हमारे लिए उपयुक्त समय है हमारे पापों केलिए येसु से क्षमा याचना करने केलिए। प्रभु ने हमें एक और अवसर प्रदान किया है कि हमारे जीवन में हम सुधार लाये। जैसे येसु बछडे के ऊपर सवार हो कर आये तो लोगों ने कपडे और डालियॉ येसु के सामने बिछाकर उनको अपनी और स्वागत किया, उसी प्रकार हम भी येसु के सामने अपने पापों को प्रार्थनाओं को बिचाकर येसु को हमारे दिल में स्वागत करें।
✍ -फादर शैलमोन आन्टनी
Friends, today is Palm Sunday and the holy week begins from today. In this week we very specially meditate upon the passion and death of our Lord Jesus Christ. Today we commemorate the entry of Jesus into Jerusalem on a donkey. People welcomed him by singing hosanna hosanna… and Jesus enters into Jerusalem temple.
Jesus came into this world in order to clean all the places where there should be the presence of God. The Temple of Jerusalem is a place where there is the mighty presence of God and supposed to be sacrifices offered for various needs. However, at the time of Jesus, Jerusalem Temple became a market place. And Jesus was very angry seeing this and he made a whip with cords and began to chase everyone out of the temple. Jesus did this because zeal for the house of God was consuming him.
Jesus has this passion towards us too; that is to cleanse our inner self. It is to cleanse our inner self that Jesus died on the cross, because we are also the temple of God. 1Cor 3:16-17 Do you not know that you are God’s temple and that God’s Spirit dwells in you? If anyone destroys God’s temple, God will destroy that person. For God’s temple is holy, and you are that temple. 1Cor 6:19-20 Or do you not know that your body is a temple of the Holy Spirit within you, which you have from God, and that you are not your own? For you were bought with a price; therefore glorify God in your body.
Friends, it is a fitting time for us to ask pardon from Jesus for all our sins. God has provided to us one more opportunity to make our lives better. As Jesus entered into Jerusalem people placed before him their clothes and olive branches, so also we should place before Jesus our sinfulness and ask him to enter into our hearts to clean it from all sinfulness.
✍ -Fr. Shellmon Antony
काथलिक कलीसिया की लातीनी पूजनविधि के अनुसार आज एक ऐसा दिन है जब एक मिस्सा बलिदान के दौरान सुसमाचार के दो पाठ पढ़े जाते हैं। एक शुरूआत में जुलूस के पूर्व पढ़ा जाता है जिस में येसु की येरूसालेम यात्रा का वर्णन है। बडे आदर-सम्मान के साथ समाज के साधारण लोगों ने येसु को एक गदही के बछडे पर बिठा कर अपने कपड़े रास्ते में बिछा दिये। कुछ लोगों ने खेतों में हरी-भरी डालियाँ काट कर फैला दीं। फिर ईसा के आगे-आगे जाते हुए और पीछे-पीछे आते हुए लोग यह नारा लगा रहे थे, "होसन्ना! धन्य हैं वह, जो प्रभु के नाम पर आते हैं! धन्य हैं हमारे पिता दाऊद का आने वाला राज्य! सर्वोच्च स्वर्ग में होसन्ना!" (मारकुस 11:8-10) येसु विजेता के समान येरूसालेम में प्रवेश करते हैं।
मिस्सा बलिदान के दौरान अन्य पाठों के साथ-साथ सुसमाचार से एक और पाठ घोषित किया जाता है, जिस में येसु के दुख-भोग का वर्णन है। तब जो पहले ’होसन्ना’ बोल रहे थे, वे ही “उसे क्रूस दीजिए, उसे क्रूस दीजिए” बोलने लगते हैं। इस प्रकार आज की पूजन-विधि में एक तरफ खुशी का माहौल है, तो दूसरी तरफ दुख का। ऐसा क्यों? आइए हम इस पर थोडा मनन-चिंतन करते हैं।
कई बार इस बात पर ईशशास्त्रियों के बीच वाद-विवाद होता है कि प्रभु येसु की मृत्यु एक बलिदान थी या एक हत्या। वास्तव में पवित्र ग्रन्थ को पढ़ने और समझने पर हमें यह ज्ञात होता है कि येसु की ओर से वह एक बलिदान थी। योहन 10:18 में प्रभु कहते हैं, “कोई मुझ से मेरा जीवन नहीं हर सकता; मैं स्वयं उसे अर्पित करता हूँ। मुझे अपना जीवन अर्पित करने और उसे फिर ग्रहण करने का अधिकार है। मुझे अपने पिता की ओर से यह आदेश मिला है।” इस से यह स्पष्ट होता है कि येसु ने अपने जीवन को अपने पिता के आदेश का पालन करते हुए स्वेच्छा से अर्पित किया। मरते-मरते उन्होंने कहा, “पिता! मैं अपनी आत्मा को तेरे हाथों सौंपता हूँ"(लूकस 23:46) योहन 15:12-13 में प्रभु येसु कहते हैं, “मेरी आज्ञा यह है, जिस प्रकार मैंने तुम लोगो को प्यार किया, उसी प्रकार तुम भी एक दूसरे को प्यार करो। इस से बडा प्रेम किसी का नहीं कि कोई अपने मित्रों के लिये अपने प्राण अर्पित कर दे।” यहाँ पर येसु अपने प्रेम को हमारे लिए आदर्श के रूप में प्रस्तुत करते हैं। येसु स्वयं हमें समझाते हैं कि उन्होंने क्रूस पर अपने जीवन की कुर्बानी दे कर हमारे प्रति उनके सर्वोत्तम प्रेम का प्रमाण दिया। इब्रानियों के पत्र में ईशवचन कहता है, “उन्होंने बकरों तथा बछड़ों का नहीं, बल्कि अपना रक्त ले कर सदा के लिए एक ही बार परमपावन स्थान में प्रवेश किया और इस तरह हमारे लिए सदा-सर्वदा रहने वाला उद्धार प्राप्त किया है” (इब्रानियों 9:12)। इस प्रकार हम देख सकते हैं कि येसु अब येरूसालेम में अपने पिता की इच्छा को पूरा करने हेतु तथा हमारे प्रति अपने प्रेम को प्रकट करते हुए अपने जीवन की कुर्बानी देने के लिए प्रवेश कर रहे थे।
परन्तु, जिन्होंने येसु को मार डाला, उनके लिए यह एक हत्या थी। यहूदी लोग येसु को मार डालने का षड़यन्त्र रच रहे थे और येसु इस बात को भली भाँति जानते थे। इसलिए योहन 8:40 में वे यहूदियों से कहते हैं, “अब तो तुम मुझे इसलिए मार डालने की ताक में रहते हो कि मैंने जो सत्य ईश्वर से सुना, वह तुम लोगों को बता दिया”। मारकुस के सुसमाचार के अध्याय 12 में प्रभु येसु असामियों के दृष्टान्त द्वारा यह स्पष्ट करते हैं – “अब उसके पास एक ही बच गया- उसका परमप्रिय पुत्र। अन्त में उसने यह सोच कर उसे उनके पास भेजा कि वे मेरे पुत्र का आदर करेंगे। किन्तु उन असामियों ने आपस में कहा, ‘यह तो उत्तराधिकारी है। चलो, हम इसे मार डालें और इसकी विरासत हमारी हो जायेगी।’ उन्होंने इसे पकड़ कर मार डाला और दाखबारी के बाहर फेंक दिया।” (मारकुस 12:6-8) पेन्तेकोस्त के बाद संत पेत्रुस ने इस्राएलियों के सामने प्रवचन देते हुए कहा, “आप लोगों ने सन्त तथा धर्मात्मा को अस्वीकार कर हत्यारे की रिहाई की माँग की। जीवन के अधिपति को आप लोगों ने मार डाला; किन्तु ईश्वर ने उन्हें मृतकों में से जिलाया। हम इस बात के साक्षी हैं।” (प्रेरित-चरित 3:14-15) संत पेत्रुस और
अन्य प्रेरितों ने निडर हो कर प्रधानयाजक से भी कहा था, “आप लोगों ने ईसा को क्रूस के काठ पर लटका कर मार डाला था” (प्रेरित-चरित 5:30) 1 थेसलनीकियों 2:15 में संत पौलुस भी कहते हैं, “यहूदियों ने ईसा मसीह तथा नबियों का वध किया और हम पर घोर अत्याचार किया”। इस प्रकार यहूदी नेताओं ने रोमी शासकों के साथ मिल कर येसु की हत्या की। यह एक दर्दनाक घटना थी।
इस प्रकार आज के मिस्सा बलिदान मे बलिदान और हत्या – दोनों का वातावरण बना रहता है। येसु क्रूस को टाल सकते थे, परन्तु पवित्र वचन हमें समझाता है – “वह वास्तव में ईश्वर थे और उन को पूरा अधिकार था कि वह ईश्वर की बराबरी करें, फिर भी उन्होंने दास का रूप धारण कर तथा मनुष्यों के समान बन कर अपने को दीन-हीन बना लिया और उन्होंने मनुष्य का रूप धारण करने के बाद मरण तक, हाँ क्रूस पर मरण तक, आज्ञाकारी बन कर अपने को और भी दीन बना लिया।”
इस प्रकार आज के पाठ हमें भी ईश्वर की इच्छा को ईमानदारी से खोजने तथा विनम्रता से स्वीकार करने के लिए प्रेरित करते हैं।
✍ फादर फ्रांसिस स्करिया