21) और उन से कहो: प्रभु-ईश्वर यह कहता है- मैं इस्राएलियों को उन राष्ट्रों में से इकट्ठा करूँगा, जहाँ वे चले गये हैं। मैं उन्हें चारों दिशाओं से इकट्ठा करूँगा और उन्हें उनकी निजी भूमि वापस ले जाऊँगा।
22) मैं अपने देश में तथा इस्राएल के पर्वतों पर उन्हें एक राष्ट्र बना दूँगा और एक ही राजा उन सब का राजा होगा। वे अब से न तो दो राष्ट्र होंगे और न दो राज्यों में विभाजित।
23) वे फिर घृणास्पद मूर्तिपूजा और अधर्म से अपने को दूशित नहीं करेंगे। उन्होंने मरे साथ कितनी बार विश्वासघात किया! फिर भी मैं उन सब पापों से उन्हें छुडाऊँगा और शुद्ध करूँगा वे मेरी प्रजा होंगे और मैं उनका ईश्वर होऊँगा।
24) मेरा सेवक दाऊद उनका राजा बनेगा आर उन सबों का एक ही चरवाहा होगा। वे मरे नियमों पर चलेंगे और मेरी आज्ञाओं को विधिवत् पालन करेंगे।
25) वे और उनके पुत्र-पौत्र सदा-सर्वदा अपने पूर्वजों के देश में निवास करेंगे, जिस मैंने अपने सेवक याकूब को दे दिया है। मेरा सेवक दाऊद सदा के लिए उनका राजा होगा।
26) मैं उनके लिए शांति का विधान निर्धारित करूँगा, एक ऐसा विधान, जो सदा बना रहेंगा। मैं उन्हें फिर बसाऊँगा, उनकी संख्या बढाऊँगा और उनके बीच सदा के लिए अपना मन्दिर बनाऊँगा।
27) मैं उनके बीच निवास करूँगा, मैं उनका ईश्वर होऊँगा और वे मेरी प्रजा होंगे।
28) जब मेरा मंदिर सदा के लिए उनके बीच स्थापित होगा, तब सभी राष्ट्र यह जान जायेंगे कि मैं प्रभु हूँ, जो इस्राएल को पवित्र करता है।"
45) जो यहूदी मरियम से मिलने आये थे और जिन्होंने ईसा का यह चमत्कार देखा, उन में से बहुतों ने उन में विश्वास किया।
46) पंरतु उन में से कुछ लोगों ने फरीसियों के पास जाकर बताया कि ईसा ने क्या किया था।
47) तब महायाजकों और फरीसियों ने महासभा बुलाकर कहा "हम क्या करें? वह मनुष्य बहुत से चमत्कार दिखा रहा है।
48) यदि हम उसे ऐसा करते रहने देंगे, तो सभी उस में विश्वास करेंगे ओर रोमन लोग आकर हमारा मन्दिर और हमारा राष्ट्र नष्ट कर देंगे।"
49) उन में से एक ने जिसका नाम केफस था और जो उस वर्ष प्रधान याजक था उन से कहा, "आप लोगो की बुद्वि कहाँ हैं?
50) आप यह नही समझते कि हमारा कल्याण इस में है कि जनता के लिये एक ही मनुष्य मरे और समस्त राष्ट्र का सर्वनाश न हो।
51) उसने यह बात अपनी ओर से नहीं कही। उसने उस वर्ष के प्रधानयाजक के रूप में भविष्यवाणी की कि ईसा राष्ट्र के लिये मरेंगे
52) और न केवल राष्ट्र के लिये बल्कि इसलिये भी कि वे ईश्वर की बिखरी हुई संतान को एकत्र कर लें।
53) उसी दिन उन्होनें ईसा को मार डालने का निश्चय किया।
54) इसलिये ईसा ने उस समय से यहूदियों के बीच प्रकट रूप से आना-जाना बन्द कर दिया। वे निर्जन प्रदेश के निकटवर्ती प्रांत के एफ्राइम नामक नगर गये और वहाँ अपने शिष्यों के साथ रहने लगे।
55) यहूदियों का पास्का पर्व निकट था। बहुत से लोग पास्का से पहले शुद्वीकरण के लिये देहात से येरुसालेम आये।
56) वे ईसा को ढूढ़ते थे और मन्दिर में आपस में कहते थे "आपका क्या विचार है? क्या वह पर्व के लिये नहीं आ रहे हैं?"
दाऊद और सुलैमान के अधीन इस्राएल एक बहुत समृद्ध राष्ट्र था। हालाँकि, सुलैमान की मृत्यु के साथ जल्द ही राज्य यहूदा और इस्राएल में विभाजित हो गया। विभाजन की नींव सुलैमान की यहोवा के प्रति बेवफाई के द्वारा रखी गई थी। वह मूर्तिपूजक बन देवताओं को बलि चढ़ाने लगा। और विभाजन के बाद, दोनों राष्ट्र बड़े पैमाने पर अन्य देवताओं की पूजा करने में शामिल थे। एक बार जब उन्होंने उन्हें स्थापित करने वाले परमेश्वर को त्याग दिया, तो वे बिखर गए और उन्हें बंदी बना लिया गया।
हालांकि, नबी येजिकियल के माध्यम से ईश्वर उन्हें फिर से स्थापित करने और बहाल करने का वादा करता है। लेकिन नए शासन का क्रम पहले से अलग होगा। ईश्वर उनका एकमात्र ईश्वर होगा और वे किसी अन्य ईश्वर की पूजा नहीं करेंगे। परमेश्वर उनकी पिछली असमानता और विभाजन को मिटा देगा और वे एक राष्ट्र होंगे।
इज़राइल का इतिहास, उसका उत्थान और पतन हमारे अपने जीवन को भी दर्शाता है। जब हम ईश्वर को पहले स्थान पर रखते हैं और उनकी अकेले आराधना करते हैं, तो हमें एहसास होता है कि हमारे जीवन में शांति और समृद्धि का ईश्वर का आशीर्वाद प्रवाहित होता है। हालाँकि, जब अन्य चीजें प्राथमिकता लेती हैं और ईश्वर और उनकी आज्ञाएँ पीछे हट जाती हैं, तो हम अपने पतन की पहल करते हैं। हमें ईश्वर को पहले स्थान पर रखने की जरूरत है। परमेश्वर की इच्छा और उसका वचन हमारा मार्गदर्शक होना चाहिए। परमेश्वर की इच्छा की खोज यह सुनिश्चित करती है कि हमारा भविष्य परमेश्वर की देखभाल में हैं और वह हमारी निष्ठा को पुरस्कृत करेगा। आइए हम ईश्वर को पहले स्थान पर रखें और अपने जीवन के माध्यम से उनका सम्मान करते रहें।
✍ - फादर रोनाल्ड मेलकम वॉन
Israel was a very prosperous nation under David and Solomon. However, with the demise of Solomon soon the kingdom was divided into Judah and Israel. The foundation of the division was laid by Solomon’s infidelity to Yahweh. He began to offer sacrifices to pagan gods. and after the division, both nations were massively involved in worshiping other gods. Once they abandoned the God who established them, they were disintegrated and taken into captivity.
However, God through Prophet Ezekiel promises to re-establish and restore them. But the order of the new reign will differ from the first. God will be their sole God and no other God they shall worship. God will wipe away their past inequity and they shall be one nation.
The history of Israel, its rise and fall mirror our own life too. When we keep God in the first place and worship him alone, we realize God’s blessings of peace and prosperity flows in our life. However, when other things take priority and God and his commands backslide, then we initiate our own downfall. We need to keep God in the first place. God’s will and his word should be our guiding reality. Seeking God’s will ensures we are into God’s providential care and he would reward our fidelity. Let us keep God in the first place and keep honoring him through our life.
✍ -Fr. Ronald Melcom Vaughan
येसु इस संसार में ईश्वर की ईच्छा और ईश्वर के कार्य को पूरा करने आये थे। लाजरुस के जिंदा करना उन्ही कार्यों में से एक था जो उन्होने ईश्वर के ईच्छा पर पूरी किया था जिससे कि सभी ईश्वर की महिमा देख सकें। बहुतों ने इस चमत्कार द्वारा येसु में विश्वास किया। परन्तु दो समुदायें इस कार्य से कु्रध थे; वे महायाजक और फरीसी लोग थे। इसलिए उन्होंने येसु को रास्ते से हटाने के लिए महासभा बुलायी।
ईश्वर की ईच्छा पूरी करना और पिता के कार्यों को पूरा करने पर येसु को बहुतो का विरोध सहना पड़ा। परन्तु फिर भी येसु ने पिता ईश्वर की ईच्छा को कू्रस पर मरण तक पूरा किया।
ईश्वर की ईच्छा पूरी करने पर हमारे सामने विरोध, चुनौतियॉं, परेशानियॉं आना स्वाभविक है। लोग हमारे विरुद्ध बुराई करेंगे, हमें नष्ट करने का षड़्यंत्र रचेंगे, हमारे नाम बरबाद करेंगे और हमें फंसाने की कोशिश करेंगे और भी बहुत कुछ इस प्रकार की रणनीति अपनायेंगे। जब ये सब आयेंगे तब हमारे सामने दो विकल्प आयेंगे एक तो या हम अपने आपको ईश्वर की ईच्छा पूरी करने से पीछे हट जायेंगे या फिर हम ईश्वर की ईच्छा पूरी करने में आगे बढेंगे।
जो लोग ईश्वर की ईच्छा पूरी करने से पीछे हट जाते हैं ये वो लोग हैं जो ईश्वर के वचन में बढ़ नहीं पायें हैं, क्योंकि कितने बार ईश्वर का वचन कहता हैं कि ‘‘डरो नहीं मैं तुम्हारे साथ हूॅ।’’ उन से नहीं डरों, जो शरीर को मार डालते हैं, किन्तु आत्मा को नहीं मार सकते, बल्कि उससे डरों, जो शरीर और आत्मा दोनों का नरक में सर्वनाश कर सकता है।’’ (मत्ती 10:28) ‘‘क्योंकि जो अपना जीवन सुरक्षित रखना चाहता है, वह उसे खो देगा और जो मेरे कारण अपना जीवन खो देता है, वह उसे सुरक्षित रखेगा।’’(मत्ती 16:25)
क्या हम वे लोग हैं जो प्रभु के वचनों में बढ़ नहीं पाये है? आईये हम मनन चिंतन करें और उनके वचनों में बनें रहें जिससे कि ईश्वर के कार्यों को पूरा करने हेतु हर प्रकार की चुनौतियॉं और परेशानियों का सामना करने के लिए वचन हमें बल और साहस प्रदान करें। आमेन
✍ - फादर डेन्नीस तिग्गा
Jesus came in this world to fulfill the will of the Father and do the Father’s work. Raising Lazarus was one of the works he performed as the will of the Father so that many may see the glory of God. Many came to believe in Jesus by this miracle. But the two sects were annoyed by this they were the chief priests and Pharisees. That’s why they called a meeting in order to get rid of Jesus.
Doing the will of God and performing the works of Father brought much opposition to Jesus. But Jesus still carried forward the will of the Father even unto the death on the cross. Carrying forward the will of God for sure will bring the opposition, challenges, and difficulties in front of us. People will plot evil against, plot to destroy us, may spoil the name, and may try to trap us and so on. When these things come there are two possibilities one is we may withdraw ourselves from doing God’s work or we may carry forward in doing the work of God. People who withdraw from doing the God’s work are those who have not grown in Jesus words. Because so many times the word of God says “Fear not I am with you”. “Do not fear those who kill the body but cannot kill the soul; rather fear him who can destroy both soul and body in hell.” (Mt 10:28). “For those who want to save their life will lose it and those who lose their life for my sake will find it” (Mt 16:25). Are we the people who have not grown in the words of Jesus? Let us reflect and abide in his words so that it may give us strength and courage to face any kind of challenges and difficulties in carrying forward God’s work.✍ -Fr. Dennis Tigga