14) नबूकदनेज़र ने कहा, ’’शद्र्रक, मेशक और अबेदनगो! क्या यह बात सच है कि तुम लोग न तो मेरे देवताओं की सेवा करते और न मेरे द्वारा संस्थापित स्वर्ण-मूर्ति की आराधना करते हो?
15) क्या तुम लोग अब तुरही, वंशी, सितार, सारंगी, वीणा और सब प्रकार के वाद्यों की आवाज सुनते ही मेरी बनायी मूर्ति को दण्डवत कर उसकी आराधना करने तैयार हो? यदि तुम उसकी आराधना नहीं करोग, तो उसी समय प्रज्वलित भट्टी में डाल दिये जाओगे। तब कौन देवता तुम लोगों को मेरे हाथों से बचा सकेगा?''
16) शद्रक, मेशक और अबेदनगो ने राजा नबूकदनेज़र को यह उत्तर दिया, ’’राजा! इसके सम्बन्ध में हमें आप से कुछ नहीं कहना है।
17) यदि कोई ईश्वर है, जो ऐसा कर सकता है, तो वह हमारा ही ईश्वर है, जिसकी हम सेवा करते हैं। वह हमें प्रज्वलित भट्टी से बचाने में समर्थ है और हमें आपके हाथों से छुडायेगा।
18) यदि वह ऐसा नहीं करेगा, तो राजा! यह जान लें कि हम न तो आपके देवताओं की सेवा करेंगे और न आपके द्वारा संस्थापित स्वर्ण-मूर्ति की आराधना ही।’’
19) यह सुन कर नबूकदनेज़र शद्रक, मेशक और अबेदनगो पर बहुत क्रुद्ध हो गया और उसके चेहरे का रंग बदल गया। उसने भट्टी का ताप सामान्य से सात गुना अधिक तेज करने की आज्ञा दी
20) और अपनी सेना से कुछ बलिष्ठ जवानों को आदेश दिया कि वे शद्रक, मेशक और अबेदनगो को बाँध कर प्रज्वलित भट्टी में डाल दें।
91) राजा नबूकदनेज़र बड़े अचम्भे में पड गया। वह घबरा कर उठ खड़ा हुआ और अपने दरबारियों से बोला, “क्या हमने तीन व्यक्तियों को बाँध कर आग में नहीं डलवाया?“ उन्होंने उत्तर दिया, “राजा! आप ठीक कहते हैं“।
92) इस पर उसने कहा, “मैं तो चार व्यक्तियों को मुक्त हो कर आग में सकुशल टहलते देख रहा हूँ। चैथा स्वर्गदूत-जैसा दिखता है।
95) तब नबूकदनेज़र बोल उठा, “धन्य है शद्रक, मेशक और अबेदनगो का ईश्वर! उसने अपने दूत को भेजा है, जिससे वह उसके उन सेवकों की रक्षा करे, जिन्होंने ईश्वर पर भरोसा रख कर राजाज्ञा का उल्लंघन किया और अपने शरीर अर्पित कर दिये; क्योंकि वे अपने ईश्वर को छोड कर किसी अन्य देवता की सेवा या आराधना नहीं करना चाहते थे।
31) जिन यहूदियों ने उन में विश्वास किया, उन से ईसा ने कहा, "यदि तुम मेरी शिक्षा पर दृढ़ रहोगे, तो सचमुच मेरे शिष्य सिद्ध होगे।
32) तुम सत्य को पहचान जाओगे और सत्य तुम्हें स्वतन्त्र बना देगा।’’
33) उन्होंने उत्तर दिया, "हम इब्राहीम की सन्तान हैं, हम कभी किसी के दास नहीं रहे। आप यह क्या कहते हैं- तुम स्वतन्त्र हो जाओगे?’’
34) ईसा ने उन से कहा, "मै तुम से यह कहता हूँ- जो पाप करता है, वह पाप का दास है।
35) दास सदा घर में नहीं रहता, पुत्र सदा रहता है।
36) इसलिए यदि पुत्र तुम्हें स्वतन्त्र बना देगा, तो तुम सचमुच स्वतन्त्र होगे।
37) "मैं जानता हूँ कि तुम लोग इब्राहीम की सन्तान हो। फिर भी तुम मुझे मार डालने की ताक में रहते हो, क्योंकि मेरी शिक्षा तुम्हारे हृदय में घर नहीं कर सकी।
38) मैंने अपने पिता के यहाँ जो देखा है, वही कहता हूँ और तुम लोगों ने अपने पिता के यहाँ जो सीखा है, वही करते हो।’’ उन्होंने उत्तर दिया, "इब्राहीम हमारे पिता हैं’’।
39) इस पर ईसा ने उन से कहा, "यदि तुम इब्राहीम की सन्तान हो, तो इब्राहीम-जैसा आचरण करो।
40) अब तो तुम मुझे इसलिए मार डालने की ताक में रहते हो कि मैंने जो सत्य ईश्वर से सुना, वह तुम लोगों को बता दिया। यह इब्राहीम-जैसा आचरण नहीं है।
41) तुम लोग तो अपने ही पिता-जैसा आचरण करते हो।’’ उन्होंने ईसा से कहा, "हम व्यभिचार से पैदा नहीं हुए। हमारा एक ही पिता है और वह ईश्वर है।’’
42) ईसा ने यहूदियों से कहा, "यदि ईश्वर तुम्हारा पिता होता, तो तुम मुझे प्यार करते, क्योंकि मैं ईश्वर से उत्पन्न हुआ हूँ और उसके यहाँ से आया हूँ। मैं अपनी इच्छा से नहीं आया हूँ, मुझे उसी ने भेजा है।
जब आप ईश्वर के सामने घुटने टेकते हैं, तो वह आपके लिए खड़ा होता है। और जब परमेश्वर आपके पक्ष में खड़ा हो तो कोई भी आपके विरुद्ध खड़ा नहीं हो सकता। ईश्वर हमेशा उनकी रक्षा करते हैं और उनका समर्थन करते हैं जो उनकी संप्रभुता में दृढ़ विश्वास दिखाते हैं। तीन युवकों शद्रक, मेशक और अबेदनगो द्वारा राजा नबूकदनेस्सर की आराधना करने से निडर होकर इनकार करना विश्वास और साहस का एक उल्लेखनीय उदाहरण बन गया। इन युवकों को उस खतरे के बारे में पता था जिसे उन्होंने, हुक्म का पालन करने से इंकार करके उठाया था। जैसी कि उम्मीद थी, उन्हें जलती भट्टी में डाल दिया गया। उन्होंने अपने विश्वास का दावा किया कि, "ईश्वर उन्हें बचाने में सक्षम हैं।"
विश्वास के साहस में शक्ति होती है। जब हम अपने दैनिक जीवन में परमेश्वर के अधिकार की घोषणा करते हैं तो परमेश्वर हमारे पक्ष में चलता है। संत पौलुस हमें बताते है, "ईश्वर ने हमें भीरूता की नहीं बल्कि शक्ति की आत्मा दी है।" जब हम पहचानते हैं और स्वीकार करते हैं कि हमारे पास शक्ति की आत्मा है तो हम उसकी शक्ति और शक्ति की आत्मा से सशक्त हो जाते हैं। हम सभी के पास इन तीन युवकों की तरह मोके आते है। हम कैसे प्रतिक्रिया देते हैं? क्या हम भय और असफलता से वशीभूत हो जाते हैं? खोने या हारने का डर हमारे विश्वास और हम को डूबाने लगता हैं। ऐसे में हमें न केवल आस्था रखने के लिए बल्कि उसकी घोषणा करने के लिए भी बुलाया गया है। स्तोत्रकार हमें इन शब्दों के साथ आश्वासन देता है, "जब धर्मी लोग सहायता के लिए दोहाई देते हैं, तब यहोवा सुनता है और उन्हें उनकी सब विपत्तियों से छुड़ाता है। यहोवा टूटे मनवालों के निकट है और दुखियो का उद्धार करता है। धर्मियों के दु:ख बहुत हैं, परन्तु यहोवा उन सब से उन्हें छुड़ाता है।” (34:17-19) आइए येसु में विश्वास और साहस के साथ रहने के एक नए तरीके का अभ्यास करें।
✍ - फादर रोनाल्ड मेलकम वॉन
When you kneel down to God, He stands for you. And when God stands for you no one can stand against you. God always defends and upholds those who show bold faith in his sovereignty. The bold refusal of the three young men Shadrach, Meshach, and Abednego to worship King Nebuchadnezzar became a telling example of faith and boldness. These young men were aware of the danger they had invited upon themselves by refusing to follow the diktat. As expected, they were put in the burning furnace. They professed their faith that, “God is able to save them.”
There is power in the boldness of faith. When we proclaim God’s authority in our daily life God move in our favour. St. Paul tells us, “God did not give us the spirit of the timidity but spirit of power.” When we recognize and acknowledge that we have the spirit of power we get empowered by his Spirit of power and strength. We all have the moment like these three young men. How do we respond? Do we get subdued by fear and failure? The fear of losing clouds our faith and we begin to sink. In such a situation, we are called not only to have faith but also to proclaim it. Psalmist assures us with these words, “When the righteous cry for help, the Lord hears and rescues them from all their troubles. The Lord is near to the broken-hearted and saves the crushed in spirit. Many are the afflictions of the righteous, but the Lord rescues them from them all.” (34:17-19) Come let's practice a new way of being in Jesus with faith and boldness.
✍ -Fr. Ronald Melcom Vaughan
आज के सुसमाचार में जो प्रमुख प्रश्न हमारे मन मे आता है वह यह है कि ‘‘क्या हम स्वतंत्र है?’’ हम सभी का इस प्रश्न का उत्तर यही होगा कि ‘‘हॉं हम सब स्वतंत्र है’’ क्योंकि हम स्वतंत्र भारत के नागरिक है। परन्तु इस से भी गहरा प्रश्न यह है कि क्या हम आंतरिक रूप से स्वतंत्र हैं? तब इस प्रश्न का उत्तर हम सभी का भिन्न भिन्न होगा क्योंकि ईश्वर का वचन कहता है जो कोई पाप करता है वह पाप का दास है (योहन 8:34)। और यह पाप की गुलामी ही है जो हमारे आचरण और व्यवहार को नियंत्रण करता है। इसलिए हम वह चीज़ करते जो हम नहीं करना चाहते। हम जानते हैं कि झूठ बोलना गलत हैं फिर भी हम झूठ बोलते हैं क्योंकि हम उस पाप के गुलाम हैं; हम जानते है कि चोरी करना गलत हैं फिर भी कई लोग चोरी करते है क्योंकि वे उसके गुलाम बन चुके हैं; हम जानते है कि धूम्रपान करना सेहत के लिए अच्छा नहीं है फिर भी कई लोग धूम्रपान करते है क्योंकि वे उसके गुलाम बन चुके हैं। यह सब हमें यह बताते हैं कि हम सभी को यह मालूम है कि क्या गलत है और क्या सहीं है और हमें यह भी मालूम है कि सही या अच्छी चीजों का चुनाव हमारे लिए लाभदायक हैं परन्तु फिर भी हम अक्सर गलत चीज़ो का चुनाव करते हैं। यह सब क्योंकि हम उन पापों के गुलाम हैं।
अब सवाल यह उठता हैं कि हम इससे स्वतंत्रता कैसे प्राप्त कर सकते हैं? केवल येसु हमें स्वतंत्र कर सकते हैं। येसु आज हमसे कहते हैं कि यदि तुम मेरी शिक्षा पर दृढ़ रहोगे, तो सचमुच मेरे शिष्य सिद्ध होगे। तमु सत्य को पहचान जाओगे और सत्य तुम्हें स्वतंत्र बना देगा। अगर हम अपने में स्वतंत्रता चाहते हैं तो हमें प्रभु येसु के वचनों पर दृढ़ बने रहना होगा चाहे कितनी भी बहकाने वाली बातें या फिर दुख भरी स्थिति क्यों न हों हमें उसके वचनों को अपना नींव बना कर रखना चाहिए जिस प्रकार मत्ती 7:24-25 में कहा गया हैं।
आईये हम प्रभु के वचनों को अपना घर बनायें। इसका तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार घर एक रहने का स्थान है वह हमारा शरण स्थान होता है उसी प्रकार हम प्रभु के वचनों को अपना शरण स्थान बनायें, अपना घर बनाये। जब हम उसके वचनों में रहने लगेंगे, उनके वचन में दृढ़ बनते रहेंगे और धीरे-धीरे हम अपने सभी पापमय बुरी आदतों से जो हमें और हमारे परिवार को तबाह करते जा रहीं हैं हम उस से स्वतंत्र हो जाऐंगे और हम अपने आप में स्वतंत्रता महसूस करेंगे। आमेन
✍ - फादर डेन्नीस तिग्गा
From today’s gospel passage one striking question arises is “Are we free?” The answer to this by many will be “Yes, we are free” because we are the citizens of free India. But the deeper question still arises that “are we free within?” then the answer to this will differ for all because the Word of God says everyone who commit sin is a slave of sin (Jn 8:34). And this is the slave to sin which controls our action and behavior. That’s why we do the things which we don’t want to do. We know that lying is not good but we lie because we are slave to sin; we know that stealing is wrong but many steal because many are slave to sin; we know smoking is dangerous for health but many smoke because many are slave to that. This tells us that all of us know what is right and what is wrong and we also know that we have to choosing the right thing is beneficial for us but still many times we choose wrong thing. This is all because we are slave to sin.
The question arises how can we achieve that freedom? Only Jesus can set us free. Jesus tells us today in his words that if you make my word your home you will indeed be my disciples, you will come to know the truth, and the truth will set you free. If we want to be free then we need to stand firm in his words even when someone mislead or even there are worse situations. We have to make his words our foundations as it is said in Mt 7:24-25.
Let’s make His words our home. It means that as home is a place of living, a shelter place or a dwelling place, likewise we have to make God’s word our shelter place or our home. When we will start living in His words, we will become firm in His words and gradually we will become free of those sinful habits which are destroying us and our families and we will start feeling freedom within us. Amen
✍ -Fr. Dennis Tigga