शुक्रवार, 15 मार्च, 2024

चालीसे का चौथा सप्ताह

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📒 पहला पाठ : प्रज्ञा 2:1, 12-22

1) विधर्मी कुतर्क करते हुए आपस में यह कहते थे: ‘‘हमारा जीवन अल्पकालिक और दुःखमय है।

12) ‘‘हम धर्मात्मा के लिए फन्दा लगायें, क्योंकि वह हमें परेशान करता और हमारे आचरण का विरोध करता है। वह हमें संहिता भंग करने के कारण फटकारता है और हम पर हमारी शिक्षा को त्यागने का अभियोग लगाता है।

13) वह समझता है कि वह ईश्वर को जानता है और अपने को प्रभु का पुत्र कहता है।

14) वह हमारे विचारों के लिए एक जीवित चुनौती है। उसे देखने मात्र से हमें अरूचि होती है।

15) उसका आचरण दूसरों-जैसा नहीं और उसके मार्ग भिन्न हैं।

16) वह हमें खोटा और अपवित्र समझ कर हमारे सम्पर्क से दूर रहता है। वह धर्मियों की अन्तगति को सौभाग्यशाली बताता और शेखी मारता है कि ईश्वर उसका पिता है।

17) हम यह देखें कि उसका दावा कहाँ तक सच है; हम यह पता लगायें कि अन्त में उसका क्या होगा।

18) यदि वह धर्मात्मा ईश्वर का पुत्र है, तो ईश्वर उसकी सहायता करेगा और उसे उसके विरोधियों के हाथ से छुड़ायेगा।

19) हम अपमान और अत्याचार से उसकी परीक्षा ले, जिससे हम उसकी विनम्रता जानें और उसका धैर्य परख सकें।

20) हम उसे घिनौनी मृत्यु का दण्ड दिलायें, क्योंकि उसका दावा है, कि ईश्वर उसकी रक्षा करेगा।‘‘

21) वे ऐसा सोचते थे, किन्तु यह उनकी भूल थी। उनकी दुष्टता ने उन्हें अन्धा बना दिया था।

22) वे ईश्वर के रहस्य नहीं जानते थे। वे न तो धार्मिकता के प्रतिफल में विश्वास करते थे और न धर्मात्माओें के पुरस्कार में।

📙 सुसमाचार : सन्त योहन 7:1-2, 10, 25-30

1) इसके बाद ईसा गलीलिया में ही घूमते रहे। वह यहूदिया में घूमना नहीं चाहते थे, क्योंकि यहूदी उन्हें मार डालने की ताक में रहते थे।

2) यहूदियों का शिविर-पर्व निकट था।

10) बाद में, जब उनके भाई पर्व के लिए जा चुके थे, तो ईसा भी प्रकट रूप में नहीं, बल्कि जैसे गुप्त रूप में पर्व के लिए चल पड़े।

25) कुछ येरुसालेम-निवासी यह कहते थे, ‘‘क्या यह वही नहीं है, जिसे हमारे नेता मार डालने की ताक में रहते हैं?

26) देखो तो, यह प्रकट रूप से बोल रहा है और वे इस से कुछ नहीं कहते। क्या उन्होंने सचमुच मान लिया कि यह मसीह है?

27) फिर भी हम जानते हैं कि यह कहाँ का है; परन्तु जब मसीह प्रकट हो जायेंगे, तो किसी को यह पता नहीं चलेगा कि वह कहाँ के हैं।’’

28) ईसा ने मंदिर में शिक्षा देते हुए पुकार कर कहा, ‘‘तुम लाग मुझे भी जानते हो और यह भी जानते हो कि मैं कहाँ का हूँ। मैं अपनी इच्छा से नहीं आया हूँ। जिसने मुझे भेजा है, वह सच्चा है। तुम लोग उसे नहीं जानते।

29) मैं उसे जानता हूँ, क्योंकि मैं उसके यहाँ से आया हूँ और उसीने मुझे भेजा है।’’

30) इस पर वे उन्हें गिरफ्तार करना चाहते थे, किन्तु किसी ने उन पर हाथ नहीं डाला; क्योंकि अब तक उनका समय नहीं आया था।

📚 मनन-चिंतन

आज पहला पाठ धर्मी व्यक्ति के गुणों के बारे में बात करता है। अधर्मी व्यक्ति धर्मी के ईश्वरीय गुणों से ईर्ष्या करता है। ईश्वरीय गुण अधर्मी व्यक्ति के अस्तित्व के लिए खतरा हैं। ईश्वरीय व्यक्ति की विशिष्ट विशेषताओं में से एक यह है कि उसका जीवन जीने का तरीका दूसरों से भिन्न है और उसके तरीके असामान्य और अजीब हैं।

धर्मी व्यक्ति और उसके तरीके सामान्य तरीके नहीं हैं बल्कि विलक्षण और असामान्य हैं। धर्मी व्यक्ति को समाज में प्रचलित प्रवृत्तियों और रीति-रिवाजों की चिंता नहीं होती है। वह अपने व्यवहार को नियमों और परमेश्वर की इच्छा के अनुसार आधारित करता है। उसका व्यवहार असामान्य है लेकिन वह अपने चारों ओर के अलगाव और सामाजिक अलगाव के बारे में चिंतित नहीं है। बहुत बार हम अपने मूल्यों से समझौता कर लेते हैं और अपने व्यवहार को मोड़ देते हैं ताकि स्थिति और समाज के अनुसार स्वीकार्य हो सकें। संत पौलुस हमें बताते है, "अब इस दुनिया के विचारधारा के अनुरूप मत बनो, लेकिन अपने दिमाग के नवीनीकरण से बदल जाओ।" (रोमियों 12:2) येसु स्वयं एक असामान्य व्यक्तित्व के थे। वह उस समय की व्यवस्था को चुनौती देने वाले साहसी, दूरदर्शी, पथ-प्रदर्शक थे।

येसु ने दूसरों को खुश करने के लिए कभी भी अपनी शिक्षा और कार्यों को संशोधित नहीं किया। जब लोग व्यभिचार में फंसी एक स्त्री को ले आए, तो येसु उसे छुड़ाने के लिए आगे आये। जब लोग उस स्त्री की निंदा करना चाहते थे जो आँसुओं से उनके पैर धो रही थी और इत्र से अभिषेक कर रही थी तो येसु ने सार्वजनिक रूप से उसका बचाव किया और उसकी कार्रवाई को मंजूरी दी। येसु ने धार्मिक लोगों के दृष्टिकोण और परमेश्वर की उनकी समझ पर प्रश्नचिह्न लगाया। उन्होंने तत्कालीन नेतृत्व को चुनौती दी, जो लोगों पर बोझ लाद रहे थे। उन्होंने विश्राम के दिनों में चंगा किया और महिलाओं से सार्वजनिक रूप से बात की और हाशिए के लोगों की संगति का आनंद लिया।

स्थिति और जनता की धारणा जो भी हो, वह मूल गतिशील और भविष्यसूचक थे। आज हम उन लोगों की प्रतीक्षा कर रहे हैं जो बेमानी परंपराओं और सदियों पुराने नियमों को तोड़ने में सक्षम हैं। हमें अच्छा करने और अच्छा बनने की जरूरत है, तब भी जब कोई नहीं देख रहा हो।

- फादर रोनाल्ड मेलकम वॉन


📚 REFLECTION

Today the first reading talks about the characteristics of a righteous person. The ungodly person is jealous of the godly virtues of the righteous. The godly virtues are a threat to the existence of the ungodly person. One of the stand out characteristics of the godly person is this that his manner of life is unlike of others and his ways are unusual and strange.

The righteous person and his ways are not the common ways but strange and unusual. The godly person is not worried about the prevailing trends and customs in society. He bases his behavior according to the laws and the will of God. His appearance is strange and his behavior is unusual but he is not worried about the isolation and the social segregation that surrounds him. Very often we compromise our values and bend our behavior in order to become acceptable according to the situation and society. St. Paul tells us, “Do not conform any longer to the pattern of this world but be transformed by the renewing of your mind.” (Romans 12:2) Jesus himself was a strange and unusual personality. He was bold, courageous, path-breaker, challenging the then-existing system. ...

Jesus never modified his teaching and actions to please others. When people brought a women caught in adultery, Jesus came forward to her rescue her. When people wanted to condemn the woman who was washing his feet with tears and anointing with the perfume Jesus publicly defended her and approved her action. Jesus questioned the attitude and the understanding of God of the religious people. He challenged the then leadership, who were loading the people with burdens. He healed on the sabbath days and spoke to the women in public and enjoyed the company of the marginalized people.

Whatever may be the situation and public perception he was original dynamic and prophetic. Today we look forward for the people who are able to break the traditions and age-old rules which are redundant. We need to do good and be good even when nobody is watching.

-Fr. Ronald Melcom Vaughan

📚 मनन-चिंतन - 2

लोग येसु का विभिन्न क्षुद्र एवं तुच्छ कारणों जैसे उनके जन्मस्थान, शिक्षा का स्रोत्र, परिवार आदि से विरोध करते हैं। वे अपने अल्पज्ञान के तर्को तथा बहसों से उनसे विवाद करते हैं। लेकिन वे किसी भी प्रकार से येसु को उनके मिशन से रोक नहीं पाते। तो वे उनको गिरफतार कर उनको मार डालना चाहते थे।

एक प्रश्न हमारे जहन में बना रहता है कि क्यों वे किसी तरीके से येसु को मौन करना चाहते थे। यदि वे उनकी पूर्वकल्पति धारणा के अनुसार मसीहा नहीं थे तो वे उनको नजरअंदाज भी कर सकते थे। लेकिन इसके विपरीत वे येसु को हर मोड तथा अवसर पर रोकना चाहते थे। उन्होंने येसु तथा उनकी शिक्षाओं को अस्वीकार किया। उन्होंने येसु को नकारा क्योंकि येसु कहते हैं, ’वे ईश्वर की ओर से आये है’ इस प्रकार उन्होने ईश्वर को नकारा तथा उन्हंे समाप्त कर देना चाहा। ईश्वर के प्रति इतनी नफरत!

एफेसियों के नाम पत्र में संत पौलुस बताते हैं, ’’क्योंकि हमें निरे मनुष्यों से नहीं, बल्कि इस अन्धकारमय संसार के अधिपतियों, अधिकारियों तथा शासकों और आकाश के दुष्ट आत्माओं से संघर्ष करना पड़ता है।’’ (एफेसियों 6ः12) वास्तव में शैतान ईश्वर का विरोधी है तथा वह इन लोगों के अज्ञान तथा पापों में जडता के कारण येसु को ईश्वर के राज्य की स्थापना से रोकना चाहता था।

हमारा जीवन ऐसी अनेक घटनाओं से भरा है जब हम लोगों के भले कार्यो का इसलिये विरोध करते है क्योंकि वे हमारी समझ तथा इच्छानुसार काम न करते हैं। हमारी सीमितता की अंधता सत्य को देखने नहीं देती तथा लोगों को बिना सोचे समझे न्याय करने लगते हैं। आज का सुसमाचार हमें सिखाता है कि ईश्वर की इच्छा जाने बिना हमें किसी का भी अकारण विरोध या समर्थन नहीं करना चाहिये। जब हम लोगों के भले कार्यों को विरोध करते हैं तो वास्तव में ईश्वर जो उनके माध्यम से काम करता है उनका विरोध करते हैं।

- फादर रोनाल्ड वाँन


📚 REFLECTION

People tried to discredit him by lame excuses such as his place of origin or his family or source of education etc. The tried to oppose him with their own arguments at various points. However, they couldn’t success in stopping Jesus from the mission that he was on. So, they tried to arrest and kill Jesus.

One question keeps lingering in our minds, why they wanted to silence Jesus? If he was not fitting into their preconceived idea about the Messiah they could have brushed him aside. But they wanted to stop, silence and destroy Jesus at every level and at every opportunity. They refused to accept Jesus as well as his message. They rejected him because he said, ‘I have been sent by God.’ In this sense they refused to listen to God and his message. So much of aversion and opposition to God! They couldn’t see or hear the name of God.

St. Paul has an answer for their stance, “For our struggle is not against enemies of blood and flesh, but against the rulers, against the authorities, against the cosmic powers of this present darkness, against the spiritual forces of evil in the heavenly places.” (Ephesians 6:12) It was devil that was resisting the kingdom of God. People’s reservation was the face of it. It was devil who wanted to thwart Jesus from peaching and establishing the Kingdom of God. People were just tools into his hands to oppose and reject him.

Our life is full of incidents when we oppose good works of others by lame excuses and ideas. We make snap judgements about others all the time, not realising how our own limitations blind us to their truth. This passage teaches us never to stop or support others without knowing the will of God. Whenever we oppose others in their good works we oppose God working through them.

-Fr. Ronald Vaughan