बुधवार, 28 फरवरी, 2024

चालीसे का दूसरा सप्ताह

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📒 पहला पाठ : यिरमियाह का ग्रन्थ 18:18-20

18) वे कहते हैं, “आओ! हम यिरमियाह के विरुद्ध षड्यन्त्र रचें। पुरोहितों से शिक्षा मिलती रहती है, बुद्धिमानों से सत्यपरामर्श और नबियों से भवियवाणी। आओ! हम उस पर झूठा आरोप लगायें, हम उसकी किसी भी बात पर ध्यान न दें।“

19) प्रभु! तू मेरी पुकार सुन, मेरे अभियोक्ताओं की बातों पर ध्यान दे।

20) क्या भलाई के बदले बुराई करना उचित है? वे मेरे लिए गड्ढा खोदते हैं। याद कर कि मैं उनके पक्ष में बोलने और उन पर से तेरा क्रोध दूर करने के लिए तेरे सामने खड़ा रहा।

📙 सुसमाचार : सन्त मत्ती 20:17-28

17) ईसा येरुसालेम के मार्ग पर आगे बढ रहे थे। बारहों को अलग ले जा कर उन्होंने रास्ते में उन से कहा,

18) ’’देखो, हम येरुसालेम जा रहे हैं। मानव पुत्र महायाजकों और शास्त्रियों के हवाले कर दिया जायेगा।

19) वे उसे प्राणदण्ड की आज्ञा सुना कर गैर-यहूदियों के हवाले कर देंगे, जिससे वे उसका उपहास करें, उसे कोडे़ लगायें और क्रूस पर चढायें; लेकिन तीसरे दिन वह जी उठेगा।’’

20) उस समय जेबेदी के पुत्रों की माता अपने पुत्रों के साथ ईसा के पास आयी और उसने दण्डवत् कर उन से एक निवेदन करना चाहा।

21) ईसा ने उस से कहा, ’’क्या चाहती हो?’’ उसने उत्तर दिया, ’’ये मेरे दो बेटे हैं। आप आज्ञा दीजिए कि आपके राज्य में एक आपके दायें बैठे और एक आपके बायें।’’

22) ईसा ने उन से कहा, ’’तुम नहीं जानते कि क्या माँग रहे हो। जो प्याला मैं पीने वाला हूँ, क्या तुम उसे पी सकते हो?’’ उन्होंने उत्तर दिया, ’’हम पी सकते हैं।’’

23) इस पर ईसा ने उन से कहा, ’’मेरा प्याला तुम पिओगे, किन्तु तुम्हें अपने दायें या बायें बैठने का अधिकार मेरा नहीं है। वे स्थान उन लोगों के लिए हैं, जिनके लिए मेरे पिता ने उन्हें तैयार किया है।’’

24) जब दस प्रेरितों को यह मालूम हुआ, तो वे दोनों भाइयों पर क्रुद्ध हो गये।

25) ईसा ने अपने शिष्यों को अपने पास बुला कर कहा, ’’तुम जानते हो कि संसार के अधिपति अपनी प्रजा पर निरंकुश शासन करते हैं और सत्ताधारी लोगों पर अधिकार जताते हैं।

26) तुम में ऐसी बात नहीं होगी। जो तुम लोगों में बडा होना चाहता है, वह तुम्हारा सेवक बने

27) और जो तुम में प्रधान होना चाहता है, वह तुम्हारा दास बने;

28) क्योंकि मानव पुत्र भी अपनी सेवा कराने नहीं, बल्कि सेवा करने तथा बहुतों के उद्धार के लिए अपने प्राण देने आया है।’’

📚 मनन-चिंतन

जब हम चालीसा के इस मौसम में इकट्ठे होते हैं, तो मत्ती 20:17-28 से आज का सुसमाचार हमें नम्रता और सेवा के गहन संदेश पर विचार करने के लिए कहता है जो येसु ने अपने शिष्यों को दिया था। इन वचनों में, येसु अपनी आने वाली पीड़ा, मृत्यु और पुनरुत्थान की भविष्यवाणी करता है। वह इस बात पर जोर देता है कि सच्ची महानता दूसरों की सेवा में निहित है, जो मानवता के लिए उसके बलिदान प्रेम को प्रतिध्वनित करता है।

येसु महानता और शक्ति की हमारी सांसारिक समझ को चुनौती देता है। वह हमारे ध्यान को अधिकार के पदों की तलाश से निस्वार्थ सेवा के जीवन को गले लगाने के लिए पुनर्निर्देशित करता है। एक ऐसी दुनिया में जो अक्सर प्रतिष्ठा और प्रमुखता को महत्व देती है, येसु हमें विनम्र मार्ग लेने के लिए आमंत्रित करता है, जैसा कि उसने किया था। जबेदी के पुत्र, याकूब और योहन, येसु के पास उसके राज्य में सम्मान के पदों के लिए अनुरोध करने आते हैं। हालाँकि, येसु उनकी महत्वाकांक्षा को पीड़ा के प्याले और विनम्रता के बपतिस्मा की ओर निर्देशित करता है। वह सिखाता है कि सच्चा नेतृत्व दूसरों पर प्रभुता करने के बारे में नहीं है, बल्कि प्यार और करुणा के साथ उनकी सेवा करने के बारे में है। जब हम उपवास, प्रार्थना और क्षमा करने के कार्यों में संलग्न होते हैं, तो हमें याद रखना चाहिए कि ये अभ्यास ईश्वर के साथ हमारे संबंध और दूसरों की सेवा करने की हमारी प्रतिबद्धता को गहरा करने के लिए हैं। चालीसा परिवर्तन की एक यात्रा है, सांसारिक इच्छाओं से खुद को अलग करने और मसीह द्वारा प्रदर्शित निस्वार्थ प्रेम को गले लगाने का निमंत्रण है।

- फादर पॉल राज (भोपाल महाधर्मप्रान्त)


📚 REFLECTION

As we gather in this season of Lent, today’s Gospel reading from Matthew 20:17-28 calls us to reflect on the profound message of humility and service that Jesus imparted to His disciples. In these verses, Jesus foretells His upcoming suffering, death, and resurrection. He emphasizes that true greatness lies in service to others, echoing His sacrificial love for humanity.

Jesus challenges our worldly understanding of greatness and power. He redirects our focus from seeking positions of authority to embracing a life of selfless service. In a world that often values prestige and prominence, Jesus invites us to take the humble path, just as He did. The Sons of Zebedee, James, and John, approach Jesus with a request for positions of honor in His kingdom. However, Jesus redirects their ambition towards the cup of suffering and the baptism of humility. He teaches that true leadership is not about lording over others but about serving them with love and compassion. As we engage in acts of fasting, prayer, and almsgiving, let us remember that these practices are meant to deepen our connection with God and our commitment to serving others. Lent is a journey of transformation, an invitation to detach ourselves from worldly desires and embrace the selfless love that Christ demonstrated.

-Fr. Paul Raj (Bhopal Archdiocese)

📚 मनन-चिंतन-2

येसु के शिष्य अक्सर इस बारे में चर्चा करते थे कि उनमें से सबसे बड़ा कौन था। चूँकि वे अक्सर येसु के अधिकार को भौतिक और राजनीतिक समझते थे, इसलिए वे येसु द्वारा स्थापित किए जाने वाले राज्य में अपने पदों के बारे में भी चिंतित थे। येसु ने उन्हें मानव राज्य और ईश्वरीय राज्य के बीच का अंतर दिखाने की कोशिश की। शिष्य सांसारिक राज्य के मूल्यों के बारे में चिंतित थे जबकि ईश्वर के राज्य के मूल्य पूरी तरह से अलग थे। इसलिए प्रभु येसु उन्हें पदों को हासिल करने के बजाय दूसरों की सेवा करने में एक-दूसरे के साथ प्रतिस्पर्धा करने की चुनौती देता है। आत्म-रिक्त होना ही शिष्यता का मार्ग है। यही रास्ता येसु ने दिखाया था। यही कारण है कि संत पौलुस ने फिलिप्पियों को स्वयं को दीन-हीन बनाने वाले मसीह के मनोभाव को अपनाने को कहा (देखें फिलिप्पियों 2:5-11)। येसु ने शिष्यों को यह भी सिखाया कि ईश्वर के राज्य में अधिकार केवल सेवा करने के लिए है, न कि दूसरों पर अधिकार जताने के लिए। आइए, हम मसीह के शिष्यों के रूप में ईश्वर के राज्य में महान गिने जाने के लिए क्रूस के मार्ग पर चलें।

- फादर फ्रांसिस स्करिया


📚 REFLECTION

The disciples of Jesus often discussed about who among them was the greatest. Since they often misunderstood the authority of Jesus as something material and political they also bothered about their positions in the kingdom to be established by Jesus. Jesus tried to show them the contrast between the human kingdom and the divine kingdom. The disciples were bothered about the values of the earthly kingdom while the values of the kingdom of God were totally different. He therefore challenges to compete with each other in serving others rather than securing positions. Self-emptying is the way of discipleship. That was the way shown by Jesus. That is why St. Paul wrote to the Philippians to cultivate in themselves the mind of the self-emptying Christ (cf. Phil 2:5-11). Jesus also taught the disciples that the authority in the Kingdom of God is purely for service, not for lording it over others. As disciples of Christ let us walk the way of the cross to be counted great in the kingdom of God.

-Fr. Francis Scaria

📚 मनन-चिंतन- 3

येसु तीसरी बार अपने निकटत्तम दुखभोग, क्रूसमरण तथा पुररूत्थान की घोषणा करते हैं। इस सुस्पष्ट तथा विस्तृत बातों से येसु इस बात को स्पष्ट करना चाहते थे कि उनका दुखभोग तथा क्रूस पर मरना एक संयोग और आकस्मिक नहीं वरन एक पूर्व-निर्धारित घटना होगी। इस पूर्व-घोषणा का मुख्य उद्देश्य यह था कि शिष्यगण इस घटनाक्रम से किसी भी प्रकार से हतोसाहित एवं विचलित न हो बल्कि विश्वास करे कि अंत में सबकुछ वैसा ही होगा जैसा कि येसु ने उन्हें पूर्व-सूचित किया था।

येसु का दुखभोग एवं मरण ईश्वर की मुक्तिदायक योजना का अभिन्न अंग था। येसु इस मुक्तिदायक योजना को पूरा करने आये थे। इसलिये उन्होंने स्वेच्छा एवं पूर्ण चेतना के साथ योजना को स्वीकारा तथा पूर्णता तक पहुंचाया। फिलिप्पियों के नाम पत्र से वचन इस बात का साक्ष्य तथा संक्षेप में प्रस्तुत करते हुये कहता है, ’’वह वास्तव में ईश्वर थे और उन को पूरा अधिकार था कि वह ईश्वर की बराबरी करें, फिर भी उन्होंने दास का रूप धारण कर तथा मनुष्यों के समान बन कर अपने को दीन-हीन बना लिया और उन्होंने मनुष्य का रूप धारण करने के बाद मरण तक, हाँ क्रूस पर मरण तक, आज्ञाकारी बन कर अपने को और भी दीन बना लिया।’’ (फिलिप्पियों 2ः6-8) येसु की बारी में प्राण-पीडा पुनः इस बात को प्रतिपादित करती हैं कि येसु ने पूर्ण ज्ञान, स्वतंत्रता एवं स्वेच्छा से इस योजना को अपनाया। येसु ने पिता द्वारा निर्धारित दुःखभोग के प्याले का पीना स्वीकारा।

- फादर रोनाल्ड वाँन


📚 REFLECTION

Jesus announces to his disciples for the third time about his impending condemnation, suffering, crucifixion and rising from the death. By these explicit details Jesus makes it clear that his suffering and eventual death are not accidental but it would be an incident. Jesus foretold these things so that when they occur it should not be a scandal to the disciples. Their must not get devastated with the sudden turn of events but rather have faith to hold on till the end.

The passion and death were the part of the salvific plan of God. Jesus came to live up it. It was not easy to be rejected, betrayed, suffered and crucified but Jesus willingly and with complete consciousness accepted and accomplished the work. The verses from letter to the Philippians testify and summarize the willing sacrifice of Jesus “Though he was in the form of God, did not regard equality with God…, but emptied himself, taking the form of a slave, being born in human likeness. And being found in human form, he humbled himself and became obedient to the point of death—even death on a cross.” (Philippians 2:6-8). The agony at the garden of Gethsemane bears the testimony how Jesus was fully aware of what lies ahead as well as his freedom to choose. He chose what had been determined by the father.

-Fr. Ronald Vaughan