10) सोदोम के शासको! प्रभु की वाणी सुनो। गोमारा की प्रजा! ईश्वर की शिक्षा पर ध्यान दो।
16) स्नान करो, शुद्ध हो जाओ। अपने कुकर्म मेरी आँखों के सामने से दूर करो। पाप करना छोड़ दो,
17) भलाई करना सीखो। न्याय के अनुसार आचरण करो, पद्दलितों को सहायता दो, अनाथों को न्याय दिलाओ और विधवाओं की रक्षा करो।“
18) प्रभु कहता है: “आओ, हम एक साथ विचार करें। तुम्हारे पाप सिंदूर की तरह लाल क्यों न हों, वे हिम की तरह उज्जवल हो जायेंगे; वे किरमिज की तरह मटमैले क्यों न हों, वे ऊन की तरह श्वेत हो जायेंगे।
19) यदि तुम अज्ञापालन स्वीकार करोगे, तो भूमि की उपज खा कर तृप्त हो जाओगे।
20) किन्तु यदि तुम अस्वीकार कर विद्रोह करोगे, तो तलवार के घाट उतार दिये जाओगे।“ यह प्रभु की वाणी है।
1) उस समय ईसा ने जनसमूह तथा अपने शिष्यों से कहा,
2) ’’शास्त्री और फरीसी मूसा की गद्दी पर बैठे हैं,
3) इसलिए वे तुम लोगों से जो कुछ कहें, वह करते और मानते रहो; परंतु उनके कर्मों का अनुसरण न करो,
4) क्योंकि वे कहते तो हैं, पर करते नहीं। वे बहुत-से भारी बोझ बाँध कर लोगों के कन्धों पर लाद देते हैं, परंतु स्वंय उँगली से भी उन्हें उठाना नहीं चाहते।
5) वे हर काम लोगों का ध्यान आकर्षित करने के लिए करते हैं। वे अपने तावीज चैडे़ और अपने कपड़ों के झब्बे लम्बे कर देते हैं।
6) भोजों में प्रमुख स्थानों पर और सभागृहों में प्रथम आसनों पर विराजमान होना,
7) बाज़ारों में प्रणाम-प्रणाम सुनना और जनता द्वारा गुरुवर कहलाना- यह सब उन्हें बहुत पसन्द है।
8) ’’तुम लोग ’गुरुवर’ कहलाना स्वीकार न करो, क्योंकि एक ही गुरू है और तुम सब-के-सब भाई हो।
9) पृथ्वी पर किसी को अपना ’पिता’ न कहो, क्योंकि तुम्हारा एक ही पिता है, जो स्वर्ग में है।
10 ’आचार्य’ कहलाना भी स्वीकार न करो, क्योंकि तुम्हारा एक ही आचार्य है अर्थात् मसीह।
11) जो तुम लोगों में से सब से बड़ा है, वह तुम्हारा सेवक बने।
12) जो अपने को बडा मानता है, वह छोटा बनाया जायेगा। और जो अपने को छोटा मानता है, वह बडा बनाया जायेगा।
जैसे ही हम इस पवित्र उपवास के मौसम में यात्रा करते हैं, तो आज का सुसमाचार पाठ मत्ती 23:1-12 हमें अपने विश्वास की यात्रा में विनम्रता के सार की याद दिलाता है। येसु हमें अभिमान और आत्म-धर्मीता के खड़े होने वाले जोखिमों से सावधान करते हैं, और हमें विनम्रता के गुण को अपनाने का आह्वान करते हैं। अक्सर शक्ति और प्रतिष्ठा को महत्व देने वाली हमारी दुनिया में येसु हमारा ध्यान एक सच्चे अनुयायी द्वारा दिखाई गई विनम्रता की ओर ले जाते हैं। वह धार्मिक नेताओं के खिलाफ चेतावनी देते हैं, जो बाहरी धर्मनिष्ठा को हृदय के सच्चे परिवर्तन से अधिक महत्व देते हैं। उपवास हमें अपने रवैये और कार्यों पर चिंतन करने का एक अवसर प्रदान करता है। हम अपने आप से पूछें कि क्या हमारा विश्वास वास्तविक है या केवल एक ढोंग है। येसु यह स्वीकार करते हुए कि सच्ची महानता दूसरों की सेवा में निहित है हमें विनम्र सेवक बनने का प्रोत्साहन देते हैं। इस चालीसा काल में, आइए हम सुलह, क्षमा, और दया के कार्यों को अपनाते हुए येसु की विनम्रता का अनुकरण करने का प्रयास करें। ऐसा करके, हम अपने दिलों को ईश्वर की कृपा के लिए खोलते हैं, जो हमें अंदर से परिवर्तित करता है।
जब हम चालीसा काल के दौरान उपवास, प्रार्थना, और दान करते हैं, तब हम याद रखें कि ये कार्य हमारी विनम्रता को गहराने और हमें ईश्वर के करीब लाने के लिए हैं। हमारी उपवास की यात्रा आत्मनिरीक्षण, पश्चाताप, और पवित्रता में बढ़ने की एक सच्ची इच्छा का एक समय हो। येसु का विनम्रता के लिए आह्वान आत्म-अवमान का निमंत्रण नहीं है, बल्कि ईश्वर पर निर्भरता को पहचानने का निमंत्रण है। जब हम उसकी कृपा की जरूरत को स्वीकार करते हैं, तो हम अपने आप को उसके प्रचुर प्रेम और कृपा के लिए खोलते हैं। यह उपवास एक गहरी विनम्रता का एक मौसम हो, जहां हमारे कार्य और इरादे मसीह के उपदेशों के साथ मेल खाते हैं।
✍ - फादर पॉल राज (भोपाल महाधर्मप्रान्त)
As we embark on this sacred season of Lent, today’s Gospel reading from Matthew 23:1-12 reminds us of the essence of humility in our journey of faith. Jesus cautions us against the pitfalls of pride and self-righteousness, urging us to embrace the virtue of humility. In a world that often values power and prestige, Jesus directs our attention to the humility exemplified by a true disciple. He warns against religious leaders who prioritize outward displays of piety over the sincere transformation of the heart. Lent offers us an opportunity to reflect on our attitudes and actions, asking ourselves if our faith is genuine or merely a facade. Jesus encourages us to be humble servants, acknowledging that true greatness lies in serving others. This Lenten season, let us strive to imitate Christ’s humility by seeking reconciliation, forgiving others, and embracing acts of kindness. In doing so, we open our hearts to the grace of God, allowing Him to transform us from within.
As we fast, pray, and give alms during Lent, let us remember that these actions are meant to deepen our humility and draw us closer to God. May our Lenten journey be a time of self-examination, repentance, and a genuine desire to grow in holiness. Jesus’ call to humility is not an invitation to self-degradation but an invitation to recognize our dependence on God. By acknowledging our need for His mercy, we open ourselves to His abundant love and grace. Let this Lent be a season of profound humility, where our actions and intentions align with the teachings of Christ.
✍ -Fr. Paul Raj (Bhopal Archdiocese)
आज, येसु हम से कहते हैं कि हम पृथ्वी पर किसी को भी गुरुवर, पिता या शिक्षक न कहें। क्या इसका यह अर्थ है कि हमें पृथ्वी पर किसी को भी इन शब्दों से संबोधित नहीं करना चाहिए? बिल्कुल नहीं! संत पौलुस कुरिन्थियों से कहते है, “हो सकता है कि मसीह में आपके हजार शिक्षक हों, किन्तु आपके अनेक पिता नहीं हैं। मैंने सुसमाचार द्वारा ईसा मसीह में आप लोगों को उत्पन्न किया है।” (1कुरिन्थियों 4:15)। यहाँ संत पौलुस खुद को पिता के रूप में प्रस्तुत करते हैं। इसलिए हमें इस शिक्षा के वास्तविक अर्थ को समझने की जरूरत है। ’गुरुवर’ शब्द उस व्यक्ति को संदर्भित करता है जो आधिकारिक रूप से सिखाता है। हमें अन्य सभी शिक्षाओं से ऊपर प्रभु की शिक्षाओं पर ध्यान देने की आवश्यकता है। पिता को आमतौर पर जीवन के स्रोत, रक्षक और पालनकर्ता के रूप में समझा जाता है। हमें ईश्वर को जीवन के वास्तविक रक्षक के रूप में देखने की जरूरत है जो विभिन्न व्यक्तियों के माध्यम से हमारे लिए प्रबंध करते हैं। आचार्य वह है जो हमें जीवन में दिशा देता है। हमें हमेशा ईश्वर द्वारा निर्देशित होने की आवश्यकता है। दूसरे शब्दों में, प्रभु येसु अपने श्रोताओं से कह रहे थे कि वे ईश्वर को प्रत्येक गुरु, पिता और प्रशिक्षक से परे रखें और कभी भी ईश्वर की सर्वोच्चता, शिक्षाओं और निर्देशों के विरुद्ध न जाएं।
✍ - फादर फ्रांसिस स्करिया
Today, Jesus tells us not to call anyone on earth rabbi, father or teacher. Does this mean that we should not address anyone on earth with these titles? Not exactly! St. Paul tells the Corinthians, “For though you might have ten thousand guardians in Christ, you do not have many fathers. Indeed, in Christ Jesus I became your father through the gospel” (1Cor 4:15). Here St. Paul presents himself as the father. We need to, therefore, understand the actual meaning of this teaching. The title rabbi refers to one who teaches authoritatively. We need to heed to the teachings of the Lord above all other teachings. Father is normally understood as the source, protector and sustainer of life. We need to think of God as the real protector of life who acts through various persons. Instructor is one who gives us directions in life. We need to be guided by God always. In other words, Jesus was asking his listeners to keep God above every rabbi, father and instructor and not to ever go against the supremacy, teachings and instructions of God.
✍ -Fr. Francis Scaria
आज के सुसमाचार में येसु फरीसियों और शास्त्रियों की आध्यात्मिक विफलता और उसके कारणों को बताते हैं। येसु उनके धार्मिक अधिकारों की वैधता को स्वीकारते हैं क्योंकि वे मूसा तथा धर्मग्रंथ का प्रतिनिधित्व करते हैं। इसलिये वे लोगों से उनके धार्मिक पदों का आदर करने को कहते हैं। ऐसा करके येसु मूसा के द्वारा किये गये ईश्वर के शक्तिशाली कार्यों को स्वीकारते तथा उन्हें मान्यता भी प्रदान करते हैं। येसु का कथन उनके इस बात को बल प्रदान करता हैं जब वे कहते हैं, ’’यह न समझो कि मैं संहिता अथवा नबियों के लेखों को रद्द करने आया हूँ। उन्हें रद्द करने नहीं, बल्कि पूरा करने आया हूँ। मैं तुम लोगों से यह कहता हूँ - आकाश और पृथ्वी भले ही टल जाये, किन्तु संहिता की एक मात्रा अथवा एक बिन्दु भी पूरा हुए बिना नहीं टलेगा।’’ (मत्ती 5:17-18)
उनकी यह आध्यात्मिक विफलता दो कारणों से थी। सर्वप्रथम वे जिन बातों को दूसरों को सिखाते थे वे स्वयं उन्हें नहीं किया करते थे। एक सच्चा एवं ईमानदान चरित्र अपने आप में शिक्षाप्रद है जबकि झूठा एवं पाखण्ड का जीवन निंदा और बदनामी का विषय बन जाता है। फरीसियों और शास्त्रियों का जीवन पाखण्ड का आत्म-प्रमाण था। उनका जीवन उनकी शिक्षाओं के विपरीत विरोधाभासी था।
उनकी विफलता का दूसरा कारण उनके द्वारा उनके पदों का दुरूपयोग था। वे स्वयं की प्रशंसा एवं लाभ पाने के लिये सारे कार्य किया करते थे। इससे सारा तंत्र ही भ्रष्ट हो गया था।
इसी स्थिति में येसु ’सेवक-नेतृत्व’ का नमूना प्रस्तुत करते हैं। उनके अनुसार नेता ईश्वर का सेवक होता है जो सेवा करता है। ’’जो तुम लोगों में सबसे बडा है वह तुम्हारा सेवक बने।’’ (मत्ती 23:11) दूसरों की निष्कपट एवं निश्चल सेवा से ही हमारे धार्मिक एवं नैतिक अधिकार आते हैं। येसु स्वयं के बारे में कहते हैं, ’’मानव पुत्र सेवा कराने नहीं बल्कि सेवा करने आया है।’’ (मारकुस 10:45) येसु ने अपने आदर्श सेवक के जीवन से आध्यात्मिक एवं नैतिक अधिकारों को पुनःस्थापित किया।
✍ - फादर रोनाल्ड वाँन
In today’s gospel Jesus points out the spiritual failure of the Pharisees and the Scribes and the reasons behind it. He recognises that their religious authority was authentic as he tells the people to honour the office for it represents Moses and the scripture. By this Jesus acknowledges and recognises the power of God that manifested through the mighty works of Moses. This is in keeping with Jesus’ stance, “Do not think that I have come to abolish the law or the prophets; I have come not to abolish but to fulfil…until heaven and earth pass away, not one letter, not one stroke of a letter, will pass from the law until all is accomplished…” (cf. Mt. 5:17-20)
However, their massive spiritual failure was on two accounts. Firstly, their failure to practice what their preach. An authentic behaviour is as effective as teaching itself and bad life provides scandals. It is quite evident that they were living a scandalous life. Their lives were contrary to the teaching.
Secondly, they misused their position for self-glorification and personal gains. This had corrupted the whole system and misled the people.
So, Jesus proposes as servant type of leadership. A leader is a servant of God who serves, “the greatest among you must be your servant.” (Mt.23:11) It is through our service to others our true religious and moral authority flows. Jesus called himself, “Son of man did not come to be served but to serve.” (Mk 10:45) By his very life Jesus re-established the true spiritual and moral authority.
✍ -Fr. Ronald Vaughan