4) "प्रभु! महान् एवं भीषण ईश्वर! तू अपना विधान बनाये रखता है। तू उन लोगों पर दयादृष्टि करता है, जो तुझे प्यार करते और तेरी आज्ञाओं का पालन करते हैं। हम लोगों ने पाप किया है, हमने अधर्म और बुराई की है, हमने तेरे विरुद्ध विद्रोह किया है।
5) हमने तरी आज्ञाओं तथा नियमों का मार्ग त्याग दिया है।
6) नबी तेरे सेवक, हमारे राजाओं, नेताओं, पुरखों और समस्त देश के लोगों को उपदेश देते थे। हमने उनकी शिक्षा पर ध्यान नहीं दिया है।
7) "प्रभु! तू न्यायी है और यहूदिया के लोग, येरुसालेम के निवासी, समस्त इस्राएली, चाहे वे निकट रहते हों, चाहे उन दूर देशों में बिखेर दिया है, हम सब-के-सब कलंकित हैं।
8) प्रभु! हम सब कलांकित हैं- हमारे राजा, हमारे शासक और हमारे पुरखे, क्योंकि हमने तेरे विरुद्ध पाप किया है।
9) "हमारा प्रभु-ईश्वर हम पर दयादृष्टि करे और हमें क्षमा प्रदान करे, क्योंकि हमने उसके विरुद्ध विद्रोह किया
10) और अपने प्रभु-ईश्वर की वाणी अनसुनी कर दी है। उसने अपने सेवकों, अपने नबियों द्वारा जो नियम हमारे सामने रखे थे हमने उनका पालन नहीं किया।
36) "अपने स्वर्गिक पिता-जैसे दयालु बनो। दोष न लगाओ और तुम पर भी दोष नहीं लगाया जायेगा।
37) किसी के विरुद्ध निर्णय न दो और तुम्हारे विरुद्ध भी निर्णय नहीं दिया जायेगा। क्षमा करो और तुम्हें भी क्षमा मिल जायेगी।
38) दो और तुम्हें भी दिया जायेगा। दबा-दबा कर, हिला-हिला कर भरी हुई, ऊपर उठी हुई, पूरी-की-पूरी नाप तुम्हारी गोद में डाली जायेगी; क्योंकि जिस नाप से तुम नापते हो, उसी से तुम्हारे लिए भी नापा जायेगा।"
जैसे ही हम इस पवित्र उपवास और परहेज के मौसम में यात्रा करते हैं, तो आज का सुसमाचार पाठ, लूकस 6:36-38 हमें ईश्वर की असीम कृपा और उस कृपा को दूसरों तक पहुँचाने के महत्व पर चिंतन करने का निमंत्रण देता है। येसु हमें आदेश देते हैं, “दयालु बनो, जैसे तुम्हारा पिता दयालु है।” उपवास हमें एक अनोखा अवसर प्रदान करता है, जिससे हम ईश्वर की कृपा की गहराई समझ सकें और अपने अंदर एक दयालु हृदय को उगायें। हमारे चालीसा के अभ्यास, प्रार्थना, उपवास, और दान केवल रीतियाँ नहीं हैं, बल्कि अपने जीवन में ईश्वर की कृपा को अपनाने और प्रतिबिंबित करने के मार्ग हैं।
इन पदों में, येसु हमें कृपा के आदान-प्रदान के बारे में सिखाते हैं। वह हमें निर्णय या निंदा न करने, बल्कि क्षमा और उदारता से देने का आह्वान करते हैं। हम जितनी कृपा दूसरों तक पहुँचाते हैं, वही कृपा हमें ईश्वर से मिलती है। यह एक गहरा आह्वान है, निर्णय और आलोचना के चक्र से मुक्त होने का, अपने दिलों को कृपा की परिवर्तनशील शक्ति के लिए खोलने का। जब हम अपनी उपवास की यात्रा पर चिंतन करते हैं, तो आइए हम अपने संबंधों की जांच करें और अपने आप से पूछें, क्या हम निर्णय लेने में जल्दी करते हैं, या हम समझने और क्षमा करने का प्रयास करते हैं? क्या हम अपना प्यार और करुणा संभालते हैं, या हम उन्हें जरूरतमंदों के साथ उदारता से बांटते हैं? आइए हमारी उपवास की यात्रा को पिता की कृपा का अनुकरण करने के लिए एक सचेत प्रयास से चिह्नित करें। हम दया, क्षमा, और उदारता के बीज बोयें, विश्वास करते हुए कि ऐसा करके, हम अपने आप को उस बहुतायत की कृपा के लिए खोलते हैं, जिसे ईश्वर हमारे जीवन में डालने की लालसा रखता है।
✍ - फादर पॉल राज (भोपाल महाधर्मप्रान्त)
As we journey through this sacred season of Lent, today’s Gospel passage from Luke 6:36-38 calls us to reflect on God’s boundless mercy and the importance of extending that mercy to others. Jesus instructs us, “Be merciful, just as your Father is merciful.” Lent provides us with a unique opportunity to deepen our understanding of God’s mercy and cultivate a merciful heart within ourselves. Our Lenten practices of prayer, fasting, and almsgiving are not just rituals but pathways to embrace and reflect God's mercy in our lives.
In these verses, Jesus teaches us about the exchange of mercy. He urges us not to judge or condemn but to forgive and give generously. The measure of mercy we extend to others becomes the measure we receive from God. It’s a profound call to break free from the cycle of judgment and criticism, opening our hearts to the transformative power of mercy. As we reflect on our Lenten journey, let us examine our relationships and ask ourselves, Are we quick to judge, or do we strive to understand and forgive? Do we reserve our love and compassion, or do we generously share it with those in need? Let our Lenten journey be marked by a conscious effort to emulate the Father’s mercy. May we sow seeds of compassion, forgiveness, and generosity, trusting that in doing so, we open ourselves to the bountiful mercy God longs to pour into our lives.
✍ -Fr. Paul Raj (Bhopal Archdiocese)
मत्ती 5:48 में, प्रभु येसु कहते हैं, "तुम पूर्ण बनो, जैसे तुम्हारा स्वर्गिक पिता पूर्ण है। आज के सुसमाचार में येसु कहते हैं, "अपने स्वर्गिक पिता-जैसे दयालु बनो।" (लूकस 6:36)। दया का अर्थ है किसी को उसकी योग्यता से बहुत अधिक देना। उस अर्थ में, दया पूर्णता को प्रकट करती है। आज के सुसमाचार में, प्रभु येसु हमें सिखाते हैं कि यदि हम प्रभु से क्षमा की अपेक्षा करते हैं और प्रभु के आशीर्वाद से भरे जाने की इच्छा रखते हैं, तो हमें दूसरों के प्रति क्षमाशील और उदार बनने की आवश्यकता है। येसु कहते हैं, “जिस नाप से तुम नापते हो, उसी से तुम्हारे लिए भी नापा जायेगा"। कई दफ़ा हम दूसरों से हमारे प्रति उदार होने की अपेक्षा करते हैं। हम चाहते हैं कि अन्य लोग हमारी उपलब्धियों की सराहना करें, हमारे प्रयासों को प्रोत्साहित करें और हमारी इच्छा शक्ति को मजबूत करें। यह तब प्राप्त किया जा सकता है जब हम दूसरों की उपलब्धियों की सराहना करने, उनके प्रयासों को प्रोत्साहित करने और उनकी इच्छा को मजबूत करने लगेंगे। हमें अपना समय, संसाधन और प्रतिभा दूसरों को देने में आनन्द पाना चाहिए। हमें दूसरों के प्रति दया, करुणा, प्रेम और समझ प्रकट करना चाहिए।
✍ - फादर फ्रांसिस स्करिया
In Mt 5:48, Jesus says, “Be perfect, therefore, as your heavenly Father is perfect”. The word ‘perfect’ refers to completeness. In today’s Gospel Jesus says, “Be merciful, just as your Father is merciful” (Lk 6:36). Mercifulness is about giving someone much more than what he or she deserves. In that sense, mercifulness perfects perfection. In today’s Gospel, Jesus teaches us that if we expect forgiveness from the Lord and desire to be filled with the blessings of the Lord, we need to become forgiving and generous towards others. Jesus says, “the measure you give will be the measure you get back”. Very often we expect others to be generous towards us. We want others to applaud our achievements, encourage our efforts and strengthen our will. This can be achieved when we applaud others’ achievements, encourage their efforts and strengthen their will. We need to be happy to give our time, resources and talents to others. We need to show kindness, compassion, love and understanding towards others.
✍ -Fr. Francis Scaria
प्रेम और करूणा जैसे गुणों को जीवन में जीने की बडी कीमत चुकानी पडती है। सभी को, सभी समय प्रेम करना तथा करूणा दिखाना किसी के लिये भी आसान काम नहीं है। ऐसा करते समय हम अनेक बार भावनात्मक रूप से पीडित तथा भौतिक रूप हानि का अनुभव करते हैं। कोलकाता की संत मदर तेरेसा कहा करती थी, ’’जब तक हमें कोई दुख या हानि का अनुभव नहीं हो तब तक हमें देना चाहिये।’’ इस स्वाभाविक तथा मानवीय हानि की भावना से उपर उठकर तथा लाभ-हानि के गणित से परे जाकर हमें ’’देने तथा प्रेम करने’ के लिये दृढ इच्छाशक्ति तथा विश्वास को विकसित करना चाहिये।
येसु हमें प्रेम करने तथा करूणा दिखाने के लिये कहते क्योंकि पिता ईश्वर स्वयं ऐसा ही है। जब हम ईश्वर के प्रेम को अपने जीवन में अनुभव करते हैं तो उससे हमारा मनोबल उठता तथा हमें प्रेरणा मिलती है। संत योहन लिखते हैं, ’’हम प्यार करते हैं क्योंकि उन्होंने पहले हमें प्यार किया।’’ क्यांेकि ’’जो प्यार करता है, वह ईश्वर की संतान है और ईश्वर को जानता है। जो प्यार नहीं करता, वह ईश्वर को नहीं जानता; क्योंकि ईश्वर प्रेम है।’’ (1 योहन 4ः19 एवं 8) ईश्वर के प्रेम से अनुप्राणित होकर हम दूसरों को प्रेम करना सिखते तथा उन्हंे प्रेम करते हैं। येसु ’कितना देने’ को परिभाषित करते हुये कहते हैं, ’’इससे बडा प्रेम किसी का नहीं कि कोई अपने मित्रों के लिए अपने प्राण अर्पित कर दे।’’ (योहन 15ः13) येसु का जीवन भी देने के अनेक छोटे-बडे़ कार्यों से भरा पडा हैं।
येसु इस ’’हानि’’ की भावना से परिचित थे इसलिये वे हमें प्रोहोत्सहित करते हुये कहते हैं ईश्वर हमारे परोपकारों के कार्यों का कहीं गुण अधिक हमें प्रदान करेगा। हमें इन बातों पर विश्वास करना चाहिये तथा जीवन तथा उसके सभी दानों को ईश्वर का वरदान मानकर उसे उनके वचन के अनुसार लोगों की सेवा में अर्पित करना चाहिये।
✍ - फादर रोनाल्ड वाँन
Practicing virtues like love and compassion can cost us dearly. It has never been easy to love and being compassionate to people all the time. There are times we feel that it hurts us emotionally and cost us materially. “Give until hurts you” is something St. Theresa of Kolkata use to say. Inspite of this natural and human ‘sense of loss’ one needs to ride above the arithmetic calculations of gain and loss and cultivate a deep conviction and strong will power to give.
Jesus teaches us to be loving and compassionate because our heavenly father is also so. We experience God’s love in our life that motivates and inspires us to love others. “We love because he loved us first”. (1 John 4:19) “Whoever does not love does not know God, for God is love” (1 John 4:8) nourished by God’s love we share God’s love with others. Jesus would define giving with sacrificing one’s life for a friend or a cause, “No one has greater love than this, to lay down one’s life for one’s friends.” (John 15:13) Jesus’ life was full of small and big acts of giving and finally he would lay down his life for salvation and good of all.
The Lord was aware of this loss factor. So he encourages us that whatever we do to others in his name God will compensate us many fold. We need to believe that all gifts are from God and when we put them back in the service of others God make us flourish many more times.
✍ -Fr. Ronald Vaughan