1) ईश्वर ने इब्राहीम की परीक्षा ली। उसने उस से कहा, ''इब्राहीम! इब्राहीम!'' इब्राहीम ने उत्तर दिया, ''प्रस्तुत हूँ।''
2) ईश्वर ने कहा, ''अपने पुत्र को, अपने एकलौते को परमप्रिय इसहाक को साथ ले जा कर मोरिया देश जाओ। वहाँ, जिस पहाड़ पर मैं तुम्हें बताऊँगा, उसे बलि चढ़ा देना।''
9) जब वे उस जगह पहुँच गये, जिसे ईश्वर ने बताया था, तो इब्राहीम ने वहाँ एक वेदी बना ली और उस पर लकड़ी सजायी।
10) तब इब्राहीम ने अपने पुत्र को बलि चढ़ाने के लिए हाथ बढ़ा कर छुरा उठा लिया।
11) किन्तु प्रभु का दूत स्वर्ग से उसे पुकार कर बोला, ''इब्राहीम! ''इब्राहीम! उसने उत्तर दिया, ''प्रस्तुत हूँ।''
12) दूत ने कहा, ''बालक पर हाथ नहीं उठाना; उसे कोई हानि नहीं पहुँचाना। अब मैं जान गया कि तुम ईश्वर पर श्रद्धा रखते हो - तुमने मुझे अपने पुत्र, अपने एकलौते पुत्र को भी देने से इनकार नहीं किया।
13) इब्राहीम ने आँखें ऊपर उठायीं और सींगों से झाड़ी में फँसे हुए एक मेढ़े को देखा। इब्राहीम ने जाकर मेढ़े को पकड़ लिया और उसे अपने पुत्र के बदले बलि चढ़ा दिया।
15) ईश्वर का दूत इब्राहीम को दूसरी बार पुकार कर
16) बोला, ''यह प्रभु की वाणी है। मैं शपथ खा कर कहता हूँ - तुमने यह काम किया : तुमने मुझे अपने पुत्र, अपने एकलौते पुत्र को भी देने से इनकार नहीं किया;
17) इसलिए मैं तुम पर आशिष बरसाता रहूँगा। मैं आकाश के तारों और समुद्र के बालू की तरह तुम्हारे वंशजों को असंख्य बना दूँगा और वे अपने शत्रुओं के नगरों पर अधिकार कर लेंगे।
18) तुमने मेरी आज्ञा का पालन किया है; इसलिए तुम्हारे वंश के द्वारा पृथ्वी के सभी राष्ट्रों का कल्याण होगा।''
31) यदि ईश्वर हमारे साथ है, तो कौन हमारे विरुद्ध होगा?
32) उसने अपने निजी पुत्र को भी नहीं बचाया, उसने हम सबों के लिए उसे समर्पित कर दिया। तो, इतना देने के बाद क्या वह हमें सब कुछ नहीं देगा?
33) जिन्हें ईश्वर ने चुना है, उन पर कौन अभियोग लगा सकेगा? जिन्हें ईश्वर ने दोषमुक्त कर दिया है,
34) उन्हें कौन दोषी ठहरायेगा? क्या ईसा मसीह ऐसा करेंगे? वह तो मर गये, बल्कि जी उठे और ईश्वर के दाहिने विराजमान हो कर हमारे लिए प्रार्थना करते रहते हैं।
2) छः दिन बाद ईसा ने पेत्रुस, याकूब और योहन को अपने साथ ले लिया और वह उन्हें एक ऊँचे पहाड़ पर एकान्त में ले चले। उनके सामने ही ईसा का रूपान्तरण हो गया।
3) उनके वस्त्र ऐसे चमकीले और उजले हो गये कि दुनिया का कोई भी धोबी उन्हें उतना उजला नहीं कर सकता।
4) शिष्यों को एलियस और मूसा दिखाई दिये-वे ईसा के साथ बातचीत कर रहे थे।
5) उस समय पेत्रुस ने ईसा से कहा, ’’गुरुवर! यहाँ होना हमारे लिए कितना अच्छा है! हम तीन तम्बू खड़े कर दें- एक आपके लिए, एक मूसा और एक एलियस के लिए।’’
6) उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या कहे, क्योंकि वे सब बहुत डर गये थे।
7) तब एक बादल आ कर उन पर छा गया और उस बादल में से यह वाणी सुनाई दी, ’’यह मेरा प्रिय पुत्र है। इसकी सुनो।’’
8) इसके तुरन्त बाद जब शिष्यों ने अपने चारों ओर दृष्टि दौड़ायी, तो उन्हें ईसा के सिवा और कोई नहीं दिखाई पड़ा।
9) ईसा ने पहाड़ से उतरते समय उन्हें आदेश दिया कि जब तक मानव पुत्र मृतकों में से न जी उठे, तब तक तुम लोगों ने जो देखा है, उसकी चर्चा किसी से नहीं करोगे।
10) उन्होंने ईसा की यह बात मान ली, परन्तु वे आपस में विचार-विमर्श करते थे कि ’मृतकों में से जी उठने’ का अर्थ क्या हो सकता है।
आज का सुसमाचार पाठ, मरकुस 9:2-10 हमें परिवर्तन की घटना, रूपांतरण, पर चिंतन करने का निमंत्रण देता है। येसु प्रेत्रुस, याकूब, और योहन को एक पहाड़ पर ले गए, जहां उनके सामने उनका रूपांतरण हुआ, और उन्होंने अपनी दिव्य महिमा का प्रकाश फैलाया। यह क्षण हमारे चालीसा की यात्रा के लिए गहरा अर्थ रखता है। चालीसा एक परिवर्तन का समय है, हमारे आध्यात्मिक पहाड़ की ओर एक यात्रा है। जैसे येसु का रूपांतरण हुआ, वैसे ही हमें भी प्रार्थना, उपवास और दान के माध्यम से परिवर्तित होने का आह्वान किया जाता है। प्रार्थना की निशब्दता में, हम ईश्वर के करीब आते हैं, उनकी रोशनी को हम पर चमकने देते हैं। मूसा और एलियाह की उपस्थिति संहिता और नबियों का प्रतिनिधित्व करती है, जो येसु में ईश्वर की योजना की पूर्ति का संकेत करती है। चालीसा-काल हमें अपने जीवन पर उन्हें ईश्वर की इच्छा के साथ मेल खाते हुए चिंतन करने का आह्वान करता है। जैसे पेत्रुस, हम भी अपने पुराने तरीकों की आरामदायकता में रहने के लिए प्रलोभित हो सकते हैं, लेकिन ईश्वर हमें अपने प्रिय पुत्र की बात सुनने का आह्वान करते हैं। उन पर छाए हुए बादल का अर्थ है दिव्य उपस्थिति। उपवास हमें व्याकुलताओं को हटाते हुए मौन के क्षणों को अपनाने का निमंत्रण देता है और ईश्वर की आवाज को हमारे दिलों से बात करने देता है। उपवास में, हम अपने आप को खाली करते हैं, ईश्वर को हमें अपनी कृपा से भरने के लिए जगह बनाते हैं। जब शिष्य पहाड़ से उतरे, तो येसु ने उन्हें आदेश दिया कि वे इस दृश्य को अपने अंदर रखें, जब तक मनुष्य का पुत्र जी न उठा हो। उपवास हमें मसीह के पुनरुत्थान की अंतिम महिमा की याद दिलाता है। इस मौसम में हमारे बलिदान हमें उसकी पाप और मृत्यु पर विजय में भागीदार बनने के लिए तैयार करते हैं। अपनी उपवास की यात्रा में, आइए हम रूपांतरण की रोशनी को ले जाएं। ईश्वर की महिमा के झलक हमें हमारे आध्यात्मिक चढ़ाई में दृढ़ता से आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करें, विश्वास करते हुए कि यात्रा की चुनौतियां ईस्टर के आनंद के लिए रास्ता बनाती हैं। हम ईश्वर के प्रेम और कृपा से रूपांतरित हो, उसकी रोशनी के प्रकाशक बनें।
✍ - फादर पॉल राज (भोपाल महाधर्मप्रान्त)
Today’s Gospel from Mark 9:2-10 invites us to reflect on the transformative event of the Transfiguration. Jesus took Peter, James, and John up a mountain, where He was transfigured before them, revealing His divine glory. This moment holds profound meaning for our Lenten journey. Lent is a time of transformation, a journey up our spiritual mountain. As Jesus was transfigured, so too are we called to be transformed by prayer, fasting, and almsgiving. In the silence of prayer, we draw closer to God, allowing His light to shine upon us.
The presence of Moses and Elijah represents the Law and the Prophets, pointing to the fulfillment of God’s plan in Jesus. Lent calls us to reflect on our lives, aligning them with God’s will. Like Peter, we may be tempted to stay in the comfort of our old ways, but God calls us to listen to His beloved Son. The cloud that overshadowed them signifies the divine presence. Lent invites us to embrace moments of silence, removing distractions, and allowing God’s voice to speak to our hearts. In fasting, we empty ourselves, creating space for God to fill us with His grace.
As the disciples descended from the mountain, Jesus instructed them to keep the vision to themselves until the Son of Man had risen. Lent reminds us of the ultimate glory of Christ’s Resurrection. Our sacrifices during this season prepare us to share in His triumph over sin and death.
In our Lenten journey, let us carry the light of the Transfiguration. May the glimpses of God’s glory inspire us to persevere in our spiritual ascent, trusting that the challenges of the journey lead to the joy of Easter. May we be transfigured by God’s love and mercy, becoming beacons of His light in the world.
✍ -Fr. Paul Raj (Bhopal Archdiocese)
आज के सुसमाचार में, हम पढ़ते हैं कि प्रभु येसु पेत्रुस, याकूब और योहन को एक ऊँचे पहाड़ पर ले जाते हैं , और वहाँ उन्हें येसु की दिव्यता के साक्षात् दर्शन होते हैं जिसे देखकर वे आवाक रह जाते हैं। पेत्रुस के लिए यह इतना सुखद और कीमती पल था कि वह इसे जाने नहीं देना चाहता था। वह उस सुखद माहौल में अनिश्चित काल तक रहना चाहता था इसलिए वह येसु से कहता है, "गुरुवर! यहाँ होना हमारे लिए कितना अच्छा है! हम तीन तम्बू खड़े कर दें- एक आपके लिए, एक मूसा और एक एलियस के लिए।" उनहोने मसीह की स्वर्गीय सुंदरता की एक झलक देखी थी, और वे उसे जाने नहीं देना चाहते थे ।
प्रभु येसु ने उस समय उन्हें अपनी स्वर्गिक महिमा की बस एक झलक मात्र दिखलाई जिसे शिष्य आने वाले जीवन में अनंतकाल तक देखने व उसके भागिदार बनने वाले थे। पर इस अनंत आनंदमय स्वर्ग में जाने के लिए हमें पिता ही इस वाणी को गंभीरता से लेने की ज़रूरत है - " "यह मेरा प्रिय पुत्र है। इसकी सुनो।"
हम अपने जीवन में येसु की वाणी को सुनें और उस पर चलने वाले बने। प्रभु अपने वचन में और हमारे जीवन की परिस्थितियों में हमसे बात करता है; हम उसे उस अद्भुत क्षण की तैयारी के रूप में सुने जब हम उसे अनंत काल में आमने-सामने देख पाएंगे और सुन पाएंगे और कहेंगे - यहाँ होना हमारे लिए कितना अच्छा है! आमेन।
✍ -फादर प्रीतम वसूनिया (इन्दौर धर्मप्रान्त)
In today’s Gospel reading, Peter, James and John are taken up a high mountain by Jesus, and there they have an experience of Jesus which took their breath away. It was an experience that was so precious that Peter could not let it go. He wanted to prolong it indefinitely and so he says to Jesus, ‘Rabbi, it is wonderful for us to be here, so let us make three tents, one for you, one for Moses and one for Elijah’. He and the other two disciples had a fleeting glimpse of the heavenly beauty of Christ, and did not want to let go of it.
Beauty always attracts; it calls out to us. Yet, Peter and the others had to let go of this precious experience; it was only ever intended to be momentary. They would receive it back in the next life as a gift. For now, their task was to listen to Jesus, ‘This is my beloved Son. Listen to him’. That is our task too. We spend our lives listening to the Lord as he speaks to us in his word and in the circumstances of our lives; we listen to him as a preparation for that wonderful moment when we see him face to face in eternity and we can finally say, ‘it is wonderful to be here’, without the need to let go.
✍ -Fr. Preetam Vasuniya (Indore)
येसु के रूपांतरण का उद्देश्य शिष्यों को येसु के भावी दुःखभोग को साहस एवं विश्वास के साथ साक्ष्य देने के लिए सक्षम बनाना था। रूपांतरण के दौरान पिता परमेश्वर येसु की प्रभुता को प्रदर्शित करते हैं तथा साथ ही साथ उन्हें स्वर्गिक वाणी “यह मेरा प्रिय पुत्र है” को सुनाते हैं। यह दृश्य तथा दिव्य वाणी येसु की प्रभुता में विश्वास करने के लिए शिष्यों को तैयार कर रही थी जिससे प्रेरित होकर वे येसु के दुःखभोग तथा क्रूस-मरण से निराश न हो बल्कि विश्वास में दृढ बने रहें। येसु का यह निर्देश कि “जब तक मानव पुत्र मृतकों में से न जी उठे, तब तक तुम लोगों ने जो देखा है, उसकी चर्चा किसी से नहीं करोगे।”(मारकुस 9:9) उनके इसी उद्देश्य की पुष्टि करता है कि उन्हें न सिर्फ विश्वास में दृढ बने रहना है बल्कि येसु के पुनरूत्थान के बाद इस रूपांतरण की घोषणा भी करना है।
रूपांतरण का अनुभव अस्थायी था लेकिन उसका उद्देश्य प्रभावशाली था। पेत्रुस उस आध्यात्मिक वातावरण में ही बना रहना चाहते थे। वे उस गौरवमय क्षणों में हमेशा बने रहना चाहते थे। शायद इसलिये वे कहते हैं, “गुरुवर! यहाँ होना हमारे लिए कितना अच्छा है! हम तीन तम्बू खड़े कर दें- एक आपके लिए, एक मूसा और एक एलियस के लिए।” किन्तु पेत्रुस की इस अभिव्यक्ति एवं सुझाव पर येसु कोई उत्तर नहीं देते हैं क्योंकि शायद ये बातें अप्रासंगिक थी। जो बात प्रासांगिक थी वह यह कि वे येसु की प्रभुता एवं दिव्यता का अनुभव करे तथा अपने कठिन समय में यह याद रखें कि येसु सचमुच में कौन हैं।
ईश्वर सोदोम और गोमोरा का विनाश करने से पूर्व इब्राहिम को इसका आश्वान्वित करना चाहते थे। वे इब्राहिम से कहते हैं कि, “सोदोम और गोमोरा के विरुद्ध बहुत ऊँची आवाज उठ रही है और उनका पाप बहुत भारी हो गया है। मैं उतर कर देखना और जानना चाहता हूँ कि मेरे पास जैसी आवाज पहुँची है, उन्होंने वैसा किया अथवा नहीं।” (उत्पत्ति 18:20-21) ईश्वर का इस प्रकार इब्राहिम को अपनी योजना बताना इस बात का सूचक था कि इब्राहिम को सोदोम निवासी अपने भतीजे लोट एवं उसके परिवार की चिंता करने की आवश्यकता नहीं है। ईश्वर इब्राहिम के इस निवेदन को कि यदि वहाँ पर दस धर्मी व्यक्ति भी मिलेंगे तो भी वह उसे नष्ट नहीं करेंगे को भी स्वीकार करता है। इस प्रकार ईश्वर इब्राहिम को विश्वास में लेकर ही यह कदम उठाते हैं जिससे इब्राहिम का साहस बना रहे। (देखिए उत्पत्ति 18:20-33)
मूसा भी ईश्वर के आज्ञानुसार लोगों का नेतृत्व करते समय अनिश्चितता एवं संशय की स्थिति में था। ऐसी स्थिति में वह भी ईश्वर के दर्शन की अभिलाषा करता है जिससे संकट एवं कठिन परिस्थितियों में उसका मनोबल बना रहे। “मूसा ने प्रभु से कहा,...यदि मैं सचमुच तेरा कृपापात्र हूँ, तो मुझे अपना मार्ग दिखला, जिससे मैं तुझे जान सकूँ और तेरा कृपापात्र बना रहूँ। यह भी ध्यान रख कि ये लोग तेरी ही प्रजा हैं। ....प्रभु ने मूसा से कहा, तुमने अभी जिस बात के लिए प्रार्थना की है, वही मैं करूँगा, क्योंकि तुम मेरे कृपापात्र हो और मैंने तुम को चुना है”। इस पर मूसा ने निवेदन किया, “मुझे अपनी महिमा दिखाने की कृपा कर।” उसने कहा, “मैं अपनी सम्पूर्ण महिमा के साथ तुम्हारे सामने से निकल जाऊँगा और तुम पर अपना ’प्रभु’ नाम प्रकट करूँगा। मैं जिनके प्रति कृपालु हूँ, उन पर कृपा करूँगा और जिनके प्रति दयालू हूँ, उन पर दया करूँगा।” (देखिए निर्गमन 33:12-19)
इस प्रकार ईश्वर मूसा पर अपनी महिमा प्रकट करते हैं और मूसा के हृदय में इस ईश्वरीय महिमा की स्मृति सदैव बनी रहती है। इस अनुभव से प्रेरित होकर मूसा प्रभु की प्रजा को नेतृत्व प्रदान करते हैं।
हमारे जीवन में भी ईश्वर हमें इस प्रकार का अनुभव कराते हैं। हमें भी ईश्वर की अद्वितीय निकटता तथा सहायता का अहसास होता है। इसके फलस्वरूप हमारा विश्वास एक नये मुकाम पर पहुँचता है। किन्तु यह सदैव नहीं बना रहता है। लेकिन इस अनुभव की छाप सदैव हमारे स्मृतिपटल पर बनी रहती है। यह स्मृति हमें हमारे कठिन दौर में हमारे विश्वास को बनाये रखने में सहायक होती है।
शायद रूपांतरण के इसी अनुभव को ध्यान में रखकर संत योहन साक्ष्य देते हैं, “... शब्द ने शरीर धारण कर हमारे बीच निवास किया। हमने उसकी महिमा देखी। वह पिता के एकलौते की महिमा-जैसी है- अनुग्रह और सत्य से परिपूर्ण।” (योहन 1:14) तथा “हमने उसे अपनी आंखों से देखा है। हमने उसका अवलोकन किया और अपने हाथों से उसका स्पर्श किया है। वह शब्द जीवन है और यह जीवन प्रकट किया गया है। यह शाश्वत जीवन, जो पिता के यहाँ था और हम पर प्रकट किया गया है- हमने इसे देखा है, हम इसके विषय में साक्ष्य देते ओर तुम्हें इसका सन्देश सुनाते हैं।” (1 योहन 1:1:2) संत योहन को येसु की दिव्यता एवं प्रभुता में विश्वास था क्योंकि उन्होंने इसका अनुभव किया था तथा वे अपने इस ईश्वरीय अनुभव को सारी जीवन संजोय रखते हैं। उनकी इस स्मृति के कारण उन्होंने अपने प्रेरिताई के जीवन के सारे दुःख-संकट विश्वास के साथ झेले। संत पेत्रुस कहते हैं, “जब हमने आप लोगों को अपने प्रभु ईसा मसीह के सामर्थ्य तथा पुनरागमन के विषय में बताया, तो हमने कपट-कल्पित कथाओं का सहारा नहीं लिया, बल्कि अपनी ही आंखों से उनका प्रताप उस समय देखा, जब उन्हें पिता-परमेश्वर के सम्मान तथा महिमा प्राप्त हुई और भव्य ऐश्वर्य में से उनके प्रति एक वाणी यह कहती हुई सुनाई पड़ी, “यह मेरा प्रिय पुत्र है। मैं इस पर अत्यन्त प्रसन्न हूँ।” जब हम पवित्र पर्वत पर उनके साथ थे, तो हमने स्वयं स्वर्ग से आती हुई यह वाणी सुनी।” (2 पेत्रुस 1:16-18)
आइए हम भी अपने जीवन में ईश्वरीय अनुभवों की स्मृति संजोए रखें जिससे अपने निजी दुःखभोग में हमारा विश्वास दृढ़ बना रहें।