21) “यदि पापी, अपना पुराना पापमय जीवन त्याग कर, मेरी सब आज्ञाओं का पालन करता और धार्मिकता तथा न्याय के पथ पर चलने लगता है, तो वह अवश्य जीवित रहेगा, मरेगा नहीं।
22) उसके सब पापों को भुला दिया जायेगा और वह अपनी धार्मिकता के कारण जीवित रहेगा।
23) प्रभु-ईश्वर का यह कहना है- क्या मैं दुष्ट की मृत्यु से प्रसन्न हूँ? क्या मैं यह नहीं चाहता कि वह अपना मार्ग छोड़ दे और जीवित रहे?
24) किन्तु यदि भला मनुष्य अपनी धार्मिकता त्याग कर दुष्ट की तरह घृणित पाप करने लगता है, तो क्या वह जीवित रहेगा? उसकी समस्त धार्मिकता को भुला दिया जायेगा और वह अपने अधर्म तथा पाप के कारण मर जायेगा।
25) “तुम लोग कहते हो कि प्रभु का व्यवहार न्यायसंगत नहीं हैं। इस्राएलियो! मेरी बात सुनो। क्या मेरा व्यवहार न्यायसंगत नहीं है? क्या यह सही नहीं है कि तुम्हारा ही व्यवहार न्यायसंगत नहीं हैं।
26) यदि कोई भला मनुष्य अपनी धार्मिकता त्याग कर अधर्म करने लगता और मर जाता है, तो वह अपने पाप के कारण मरता है।
27) और यदि कोई पापी अपना पापमय जीवन त्याग कर धार्मिकता और न्याय के पथ पर चलने लगता है, तो वह अपने जीवन को सुरक्षित रखेगा।
28) यदि उसने अपने पुराने पापों को छोड़ देने का निश्चय किया है, तो वह अवश्य जीवित रहेगा, मरेगा नहीं।
(20) मैं तुम लोगों से कहता हूँ-यदि तुम्हारी धार्मिकता शास्त्रियों और फ़रीसियों की धार्मिकता से गहरी नहीं हुई, तो तुम स्वर्गराज्य में प्रवेश नहीं करोगे।
(21) "तुम लोगों ने सुना है कि पूर्वजों से कहा गया है- हत्या मत करो। यदि कोई हत्या करे, तो वह कचहरी में दण्ड के योग्य ठहराया जायेगा।
(22) परन्तु मैं तुम से यह कहता हूँ-जो अपने भाई पर क्रोध करता है, वह कचहरी में दण्ड के योग्य ठहराया जायेगा। यदि वह अपने भाई से कहे, ’रे मूर्ख! तो वह महासभा में दण्ड के योग्य ठहराया जायेगा और यदि वह कहे, ’रे नास्तिक! तो वह नरक की आग के योग्य ठहराया जायेगा ।
(23) "जब तुम वेदी पर अपनी भेंट चढ़ा रहे हो और तुम्हें वहाँं याद आये कि मेरे भाई को मुझ से कोई शिकायत है,
(24) तो अपनी भेंट वहीं वेदी के सामने छोड़ कर पहले अपने भाई से मेल करने जाओ और तब आ कर अपनी भेंट चढ़ाओ।
(25) "कचहरी जाते समय रास्ते में ही अपने मुद्दई से समझौता कर लो। कहीं ऐसा न हो कि वह तुम्हें न्यायाकर्ता के हवाले कर दे, न्यायाकर्ता तुम्हें प्यादे के हवाले कर दे और प्यादा तुम्हें बन्दीग्रह में डाल दे।
(26) मैं तुम से यह कहता हूँ- जब तक कौड़ी-कौड़ी न चुका दोगे, तब तक वहाँ से नहीं निकल पाओगे।
जैसे ही हम इस पवित्र उपवास के मौसम में यात्रा करते हैं, तो आज के सुसमाचार पाठ मत्ती 5:20-26 हमें धार्मिकता और मेलमिलाप के लिए गहरे आह्वान की याद दिलाता है। येसु हमें सिखाते हैं कि हमारा धर्म शास्त्रीयों और फरीसियों के धर्म से अधिक होना चाहिए, केवल बाहरी अनुष्ठानों से परे हमारे दिलों की गहराई तक पहुंचना चाहिए। इन पदों में, मसीह अपने अनुयायियों के बीच धार्मिकता और मेलमिलाप के महत्व पर ज़ोर देते हैं। वह हमें आह्वान करते हैं कि हम वेदी पर अपनी चढ़ावा पेश करने से पहले एक-दूसरे के साथ मेलमिलाप कर लें। वे हमें याद दिलाते हैं कि दूसरों के साथ हमारे संबंध ईश्वर के साथ संबंध से जुड़े हुए हैं। यह चालीसा काल आत्मनिरीक्षण, पश्चाताप और हमारे दिलों की जांच करने का अवसर है। येसु आन्तरिक क्रोध और साजिश के खिलाफ चेतावनी देते हैं, क्योंकि वे सच्चे धर्म के मार्ग को रोकते हैं। इसके बजाय, वह हमें उन लोगों के साथ, हर मानव संबंध की पवित्रता को पहचान कर, मेलमिलाप की तलाश करने का आह्वान करते हैं। प्रभु के शब्द हमें उपवास की बाहरी रीतियों से परे जाने और कृपा और क्षमा की परिवर्तनशील शक्ति में भरोसा करने की चुनौती देते हैं। यह झगड़ों को तुरंत हल करने और मेलमिलाप का उपहार एक सच्चे उपवास के बलिदान के रूप में पेश करने का आह्वान है। इन 40 दिनों में, आइए हम अपने आप को कृपा और दया के कार्यों के लिए समर्पित करें। हमारी उपवास की यात्रा हमें ईश्वर की कृपा की एक गहरी समझ तक ले जाए, और हम, बारी-बारी से, उस कृपा को दूसरों को बढ़ाएं। जब हम धार्मिकता के लिए प्रयास करते हैं, तो मेलमिलाप हमारे उपवास के अवलोकन का लक्षण हो, एक नवीन और एकजुट विश्वास के समुदाय के लिए रास्ता बनाते हुए। यह उपवास कृपा, क्षमा, और नवीन संबंधों का एक मौसम हो, जब हम ईश्वर और एक-दूसरे के करीब आते हैं।
✍ - फादर पॉल राज (भोपाल महाधर्मप्रान्त)
As we journey through the sacred season of Lent, today’s Gospel reading from Matthew 5:20-26 reminds us of the profound call to righteousness and reconciliation. Jesus teaches us that our righteousness must surpass that of the scribes and Pharisees, reaching beyond mere external observances to the depths of our hearts. In these verses, Christ emphasizes the importance of reconciliation and unity among His followers. He urges us to reconcile with one another before presenting our offerings at the altar. This is a powerful reminder that our relationships with others are intertwined with our relationship with God. Lent is a time of introspection and repentance, an opportunity to examine our hearts. Jesus warns against harboring anger and resentment, as they hinder the path to true righteousness. Instead, He calls us to seek reconciliation with those we may be at odds with, recognizing the sacredness of every human connection. The Lord’s words challenge us to go beyond the external rituals of Lent and delve into the transformative power of mercy and forgiveness. It’s a call to address conflicts promptly, offering the gift of reconciliation as a sincere Lenten sacrifice.
During these 40 days, let us commit ourselves to acts of mercy and kindness. May our Lenten journey lead us to a deeper understanding of God’s mercy, and may we, in turn, extend that mercy to others. As we strive for righteousness, let reconciliation be the hallmark of our Lenten observance, paving the way for a renewed and united community of faith. May this Lent be a season of mercy, forgiveness, and renewed relationships, as we draw closer to God and one another.
✍ -Fr. Paul Raj (Bhopal Archdiocese)
बाइबिल में आज के सुसमाचार पाठ-भाग से थोड़ा पहले, प्रभु येसु कहते हैं, "यह न समझो कि मैं संहिता अथवा नबियों के लेखों को रद्द करने आया हूँ। उन्हें रद्द करने नहीं, बल्कि पूरा करने आया हूँ" (मत्ती 5:17)। आज के पाठ इसकी पुष्ठी है कि येसु पुराने नियम को पूरा करते और सिद्ध करते हैं। जब पुराना नियम हमें हत्या न करने की आज्ञा देता है, तब येसु हमसे कहते हैं कि हम किसी से क्रोधित न हों और अपने शब्दों या कार्यों से किसी का अपमान न करें। येसु हमें यह भी याद दिलाते है कि इस दुनिया में रहते समय हम अदालत के रास्ते पर हैं। कोर्ट में जज का सामना करने से अच्छा यह है कि हम आपस में मेल-मिलाप कर लें। येसु चाहते हैं कि हम दूसरों की भावनाओं के प्रति बहुत संवेदनशील बनें। वे चाहते हैं कि हम सभी लोगों का सम्मान ईश्वर की संतान की गरिमा के साथ करें। आइए हम ईश्वर के राज्य के मूल्यों के प्रति अपनी सभी संवेदनाओं को जगाना सीखें।
✍ - फादर फ्रांसिस स्करिया
A little prior to today’s Gospel, Jesus says, “Do not think that I have come to abolish the law or the prophets; I have come not to abolish but to fulfill” (Mt 5:17). In today’s reading we can see how Jesus fulfills and perfects the Old Testament. When the Old Testament tells us not to murder, Jesus tells us not to be angry with anyone and not to insult anyone by our words or deeds. Jesus also reminds us that we are on the way to the court. It is better for us to get reconciled with one another than facing the judge in the court. Jesus wants us to be very sensitive to the feelings of others. He wants us to respect all people with the dignity of the children of God. Let us learn to awaken all our sensibilities towards the values of the Kingdom of God.
✍ -Fr. Francis Scaria
फरीसी और शास्त्री धर्म के कानूनी पहलू पर अत्याधिक जोर देते थे तथा उसके मर्म को नजरअंदाज किया करते थे। उनकी समझ के अनुसार किसी भी कार्य को बाहरी तौर पर कर देने मात्र से ईश्वर की कृपा को प्राप्त किया जा सकता है। येसु लोगों को इस चलन और मानसिकता से परे जाने के लिये कहते हैं। वे लोगों से दिखावटी नहीं बल्कि सही मायने में पवित्र तथा शुद्ध होने का आव्हान करते हैं। सचमुच में शुद्ध होने के लिये हमारे विचारों और इरादों को भी शुद्ध रखना चाहिये। इसलिये प्रभु आंतरिक शुद्धता पर जोर देते हुये कहते हैं, ’’जो मुहँ में जाता है, वह मनुष्य को अशुद्ध नहीं करता है, बल्कि जो मुँह से निकालता है, वही मनुष्य को अशुद्ध करता है, क्योंकि बुरे विचार, हत्या, परगमन, व्याभिचार, चोरी, झूठी गवाही और निन्दा- ये सब मन से निकलते हैं। ये ही बातें मनुष्य को अशुद्ध करती है, बिना हाथ धोये भोजन करना, मनुष्य को अशुद्ध नहीं करता।’’ (मत्ती 15:11,19-20)
आंतरिक मनोवृत्ति हमारी आराधना में महत्वपूर्ण तथा निर्णायक भूमिका निभाती है। क्योंकि ईश्वर हृदय देखता है जैसा कि वे समुएल के प्रथम ग्रन्थ 16:7 में कहते हैं, ’’प्रभु मनुष्य की तरह विचार नहीं करता। मनुष्य तो बाहरी रूप-रंग देखता है, किन्तु प्रभु हृदय देखता है।’’ यदि हम हमारे आंतरिक मनोभावों को शुद्ध रखेंगे तो हमारा बाहरी आचरण तथा आराधना अपने आप ठीक हो जायेगी। रोमियों के नाम अपने पत्र 12:1 में संत पौलुस आव्हान करते हैं, ’’अतः भाइयो! मैं ईश्वर की दया के नाम पर अनुरोध करता हूँ कि आप मन तथा हृदय से उसकी उपासना करें और एक जीवन्त, पवित्र तथा सुग्राह्य बलि के रूप में अपने को ईश्वर के प्रति अर्पित करें।’’(रोमियो 12:1) आईये हम भी आंतरिक अशुद्धता को त्याग कर प्रभु को स्वीकार्यणीय बलिदान चढाये।
✍ - फादर रोनाल्ड वाँन
The Pharisees and the Scribes emphasized too much on the legality of the religion while massively undermining the spirit of it. According to their understanding just fulfilling the required actions was sufficient to obtain grace. Jesus warned the people to move beyond this aspect. He proposes to be truly clean rather than showboating the cleanliness. To be truly clean and holy one must have clean thoughts and intentions. Therefore, Lord insists on the inner cleanliness. “It is not what goes into the mouth that defiles a person, but it is what comes out of the mouth that defiles.’ For out of the heart come evil intentions, murder, adultery, fornication, theft, false witness, slander. These are what defile a person, but to eat with unwashed hands does not defile.’ (Mt. 15:11,19-20)
Our inner disposition is the most important element and decisive part of our worship. God sees the heart. He can read the innermost thoughts of men and he can’t be deceived or misled by outer performance as he in 1 Samuel 16:7 testifies, “the Lord does not see as mortals see; they look on the outward appearance, but the Lord looks on the heart” (1 Samuel 16:7). If we keep our intentions honest and the outer worship will be automatically be right before God. In his letter to the Romans 12:1 St. Paul appeals, “I appeal to you therefore, brothers and sisters, by the mercies of God, to present your bodies as a living sacrifice, holy and acceptable to God, which is your spiritual worship” (Romans 12:1). Therefore, let us renounce what is evil in us and offer a willing sacrifice to the Lord.
✍ -Fr. Ronald Vaughan