1) प्रभु मूसा से बोला,
2) ''इस्राएलियों के सारे समुदाय से यह कहो - पवित्र बनो, क्योंकि मैं प्रभु, तुम्हारा ईश्वर, पवित्र हूँ।
11) चोरी मत करो, झूठ मत बोलो और अपने पड़ोसी को धोखा मत दो।
12) अपने ईश्वर का नाम अपवित्र करते हुए मेरे नाम की झूठी शपथ मत लो। मैं प्रभु हूँ।
13) तुम न तो अपने पड़ोसी का शोषण करो और न उसके साथ किसी प्रकार का अन्याय। अपने दैनिक मजदूर का वेतन दूसरे दिन तक अपने पास मत रखो।
14) तुम न तो बहरे का तिरस्कार करो और न अन्धे के मार्ग में ठोकर लगाओ, बल्कि अपने ईश्वर पर श्रद्धा रखो। मैं प्रभु हूँ।
15) तुम न्याय करते समय पक्षपात मत करो। तुम न तो दरिद्र का पक्ष लो और न धनी का मन रखो। तुम निष्पक्ष होकर अपने पड़ोसी का न्याय करो।
16) तुम न तो अपने लोगों की बदनामी करो और न अपने पड़ोसी को प्राणदण्ड दिलाओं। मैं प्रभु हूँ।
17) अपने भाई के प्रति अपने हृदय में बैर मत रखो। यदि तुम्हारा पड़ोसी कोई अपराध करे, तो उसे डाँटो। नहीं तो तुम उसके पाप के भागी बनोगे।
18) तुम न तो बदला लो और न तो अपने देश-भाइयों से मनमुटाव रखो। तुम अपने पड़ोसी को अपने समान प्यार करो। मैं प्रभु हूँ।
31) ’’जब मानव पुत्र सब स्वर्गदुतों के साथ अपनी महिमा-सहित आयेगा, तो वह अपने महिमामय सिंहासन पर विराजमान होगा
32) और सभी राष्ट्र उसके सम्मुख एकत्र किये जायेंगे। जिस तरह चरवाहा भेड़ों को बकरियों से अलग करता है, उसी तरह वह लोगों को एक दूसरे से अलग कर देगा।
33) वह भेड़ों को अपने दायें और बकरियों को अपने बायें खड़ा कर देखा।
34) ’’तब राजा अपने दायें के लोगों से कहेंगे, ’मेरे पिता के कृपापात्रों! आओ और उस राज्य के अधिकारी बनो, जो संसार के प्रारम्भ से तुम लोगों के लिए तैयार किया गया है;
35) क्योंकि मैं भूखा था और तुमने मुझे खिलाया; मैं प्यासा था तुमने मुझे पिलाया; मैं परदेशी था और तुमने मुझको अपने यहाँ ठहराया;
36) मैं नंगा था तुमने मुझे पहनाया; मैं बीमार था और तुम मुझ से भेंट करने आये; मैं बन्दी था और तुम मुझ से मिलने आये।’
37) इस पर धर्मी उन कहेंगे, ’प्रभु! हमने कब आप को भूखा देखा और खिलाया? कब प्यासा देखा और पिलाया?
38) हमने कब आपको परदेशी देखा और अपने यहाँ ठहराया? कब नंगा देखा और पहनाया ?
39) कब आप को बीमार या बन्दी देखा और आप से मिलने आये?’’
40) राजा उन्हें यह उत्तरदेंगे, ’मैं तुम लोगों से यह कहता हूँ- तुमने मेरे भाइयों में से किसी एक के लिए, चाहे वह कितना ही छोटा क्यों न हो, जो कुछ किया, वह तुमने मेरे लिए ही किया’।
41) ’’तब वे अपने बायें के लोगों से कहेंगे, ’शापितों! मुझ से दूर हट जाओ। उस अनन्त आग में जाओ, जो शैतान और उसके दूतों के लिए तैयार की गई है;
42) क्योंकि मैं भूखा था और तुम लोगों ने मुझे नहीं खिलाया; मैं प्यासा था और तुमने मुझे नहीं पिलाया;
43) मैं परदेशी था और तुमने मुझे अपने यहाँ नहीं ठहराया; मैं नंगा था और तुमने मुझे नहीं पहनाया; मैं बीमार और बन्दी था और तुम मुझ से नहीं मिलने आये’।
44) इस पर वे भी उन से पूछेंगे, ’प्रभु! हमने कब आप को भूखा, प्यासा, परदेशी, नंगा, बीमार या बन्दी देखा और आपकी सेवा नहीं की?’’
45) तब राजा उन्हें उत्तर देंगे, ’मैं तुम लोगों से यह कहता हूँ - जो कुछ तुमने मेरे छोटे-से-छोटे भाइयों में से किसी एक के लिए नहीं किया, वह तुमने मेरे लिए भी नहीं किया’।
46) और ये अनन्त दण्ड भोगने जायेंगे, परन्तु धर्मी अनन्त जीवन में प्रवेश करेंगे।’’
जैसे ही हम इस पवित्र उपवास के मौसम में यात्रा करते हैं, आज के सुसमाचार पाठ मत्ती 25:31-46 हमें ख्रीस्तीय जीवन के सार पर गहराई से चिंतन करने का आह्वान करता है। इस शक्तिशाली अंश में, येसु अंतिम न्याय का एक जीवंत चित्रण करते हैं। वह करुणा और निःस्वार्थ प्रेम के महत्व पर ज़ोर देते हैं। वह भेड़ों को बकरियों से अलग करके शुरू करते हैं, धार्मिकों को अधार्मिकों से प्रतीकित करते हैं। इस विभाजन के लिए मापदंड वैश्विक उपलब्धियों या बाहरी दिखावों पर आधारित नहीं हैं, बल्कि प्रेम और कृपा के कार्यों पर आधारित हैं। वह अपने आप को भूखे, प्यासे, पराये, नग्न, बीमार, और कैदी के साथ पहचानते हैं, हमें यह सिखाते हैं कि जरूरतमंदों की सेवा करना उसकी सेवा है। उपवास हमारे लिए एक अनुकूल समय है, जब हम अपने जीवन को पुनर्विचार करें और उन्हें सुसमाचार संदेश के साथ पुनर्स्थापित करें। यह आत्म-परीक्षण, पश्चाताप, और परिवर्तन का एक मौसम है। प्रार्थना, उपवास, और दान के माध्यम से, हम ईश्वर के करीब आते हैं और अपनी प्रतिबद्धता को अपने दैनिक जीवन में सुसमाचार को जीने के लिए गहराते हैं। सुसमाचार हमें केवल रीतियों से परे जाने और एक ऐसे विश्वास को अपनाने की चुनौती देता है, जो ठोस कार्यों में प्रकट होता है। जब हम भूखे को खाना खिलाते हैं, प्यासे को पानी पिलाते हैं, पराये को स्वागत करते हैं, नग्न को कपड़े पहनाते हैं, बीमारों का ख्याल रखते हैं, और कैदियों का दौरा करते हैं, तो हम मसीह को गहराई से और स्पर्शी रूप से अनुभव करते हैं। यह उपवास का मौसम एक आध्यात्मिक नवीकरण का समय हो, जो हमें मसीह के करीब ले जाए और हमें एक-दूसरे को सच्ची करुणा के साथ प्यार और सेवा करने के लिए प्रेरित करे।
✍ - फादर पॉल राज (भोपाल महाधर्मप्रान्त)
As we embark on this sacred season of Lent, today’s Gospel reading from Matthew 25:31-46 calls us to reflect deeply on the essence of Christian living. In this powerful passage, Jesus paints a vivid picture of the final judgment, emphasizing the importance of compassion and selfless love. He begins by separating the sheep from the goats, symbolizing the righteous from the unrighteous. The criteria for this division are not based on worldly achievements or external appearances but on acts of love and mercy. He identifies himself with the hungry, thirsty, stranger, naked, sick, and imprisoned, teaching us that serving those in need is akin to serving Him. Lent is an opportune time for us to reconsider our lives and restore them with the Gospel message. It’s a season of self-examination, repentance, and transformation. Through prayer, fasting, and almsgiving, we draw closer to God and deepen our commitment to live out the Gospel in our daily lives. The Gospel challenges us to move beyond mere rituals and embrace a faith that manifests in concrete actions. When we feed the hungry, give drink to the thirsty, welcome the stranger, clothe the naked, care for the sick, and visit the imprisoned, we encounter Christ profoundly and tangibly. May this Lenten season be a time of spiritual renewal, drawing us closer to Christ and inspiring us to love and serve one another with genuine compassion.
✍ -Fr. Paul Raj (Bhopal Archdiocese)
येसु के दृष्टान्त के द्वारा आज का सुसमाचार हमें यह शिक्षा देता है कि दूसरों के प्रति हमारे कार्यों के आधार पर हमारा अनंत परिणाम निर्धारित रहता है। यह हमें याद दिलाता है कि प्रत्येक व्यक्ति को ईश्वर के स्वरूप बनाया गया है, और हमें दूसरों से इस प्रकार प्रेम करने और उनकी सेवा करने के लिए बुलाया गया है, जैसे कि हम स्वयं येसु की सेवा कर रहे हों। यह हमें यह भी याद दिलाता है कि हमारा न्याय इस आधार पर किया जाएगा कि हम अपने बीच सबसे कमजोर लोगों के साथ कैसा व्यवहार करते हैं, और जिस तरह से हम दूसरों के साथ व्यवहार करते हैं वह ईश्वर के साथ हमारे संबंध को दर्शाता है।
अंततः यह पद्यांष हमें दूसरों के प्रति सेवा और करुणा का जीवन जीने के लिए बुलाता है। यह हमें याद दिलाता है कि प्रत्येक व्यक्ति मूल्यवान है तथा प्यार और सम्मान के योग्य है, और यह कि दूसरों की सेवा और देखभाल करके, हम स्वयं येसु की सेवा और देखभाल कर रहे हैं। आइए हम अपने दिल और दिमाग को दूसरों की जरूरतों के लिए खोलें, और सेवा और करुणा का जीवन जीने का प्रयास करें, ताकि एक दिन हमारा ईश्वर के राज्य में स्वागत हो सकें।
✍ -फादर डेन्नीस तिग्गा (भोपाल महाधर्मप्रान्त)
Today’s gospel through the parable of Jesus teaches us that our actions towards others have eternal consequences. It reminds us that every person is created in the image of God, and we are called to love and serve others, as if we are serving Jesus himself. It also reminds us that we will be judged based on how we treat the most vulnerable among us, and that the way we treat others reflects our relationship with God.
In the end, this passage calls us to live a life of service and compassion towards others. It reminds us that every person is valuable and deserving of love and respect, and that by serving and caring for others, we are serving and caring for Jesus himself. Let us open our hearts and minds to the needs of others, and strive to live a life of service and compassion, so that one day we will be welcomed into the kingdom of God.
✍ -Fr. Dennis Tigga (Bhopal Archdiocese)
आज के सुसमाचार में, येसु अंतिम न्याय का मापदंड प्रकट करते हैं। यह ध्यान रखना बहुत ही प्रासंगिक है कि येसु हमारे द्वारा किए जाने वाले अनुष्ठानों, उपवास, तपस्या तथा प्रार्थना को अंतिम न्याय का मापदंड नही मानते हैं। वे जरूरतमंद लोगों के प्रति प्रेम प्रकट करने के छ: कार्यों के बारे में बात करते है - भूखे को खाना खिलाना, प्यासे को पानी पिलाना, नग्न लोगों को कपड़े देना, बेघरों को आश्रय देना, बीमारों की देखभाल करना और कैदियों से मिलने जाना। येसु के अनुसार, दया के ये कार्य हम में से प्रत्येक के लिए स्वर्ग के द्वार खोल देंगे। इन कार्यों को करने में विफल रहने से हम स्वर्ग में प्रवेश से वंचित हो जाएंगे। येसु की शिक्षाएँ हमें अपने पड़ोस में ईश्वर को खोजने और प्रेम से उनकी सेवा करने का निमन्त्रण देती हैं। प्रभु हमारे करीब है। हमें उन्हें पहचानना और उनकी सेवा करना चाहिए। 1 योहन 4:12 में, संत योहन कहते हैं, "ईश्वर को कभी किसी ने नहीं देखा; यदि हम एक दूसरे से प्रेम रखते हैं, तो ईश्वर हम में रहता है, और उसका प्रेम हम में सिद्ध होता है।" इसके अलावा, वे यह भी कहते हैं, "हमें उस की ओर से यह आज्ञा मिली है: जो ईश्वर से प्रेम रखते हैं, वे अपने भाइयों और बहनों से भी प्रेम रखें" (1 योहन 4:21)।
✍ - फादर फ्रांसिस स्करिया
In today’s Gospel, Jesus reveals the criteria for the final judgement. It is very pertinent to note that Jesus does not refer to the rituals we perform, the fasting that we carry out, the penance that we do and the prayers that we utter as criteria for the last judgement. He speaks about six actions of love towards the people in need – feeding the hungry, giving a drink to the thirsty, clothing the naked, giving shelter to strangers, caring for the sick and visiting the prisoners. According to Jesus, these actions of mercy will open the gates of heaven to each one of us. Failing to carry out these actions will deny us entry into heaven. The teachings of Jesus call us to find God in our neighbourhood and serve him with love. God is close to us. We need to recognise and serve him. In 1Jn 4:12, St. John says, “No one has ever seen God; if we love one another, God lives in us, and his love is perfected in us”. Further, he says, “The commandment we have from him is this: those who love God must love their brothers and sisters also” (1Jn 4:21).
✍ -Fr. Francis Scaria
स्वर्ग पहुँचने के लिए हमें क्या करना चाहिये - एक ज्वलंत प्रश्न है। सुसमाचार में धनी युवक येसु से यह प्रश्न करता है, ’’अनंत जीवन प्राप्त करने के लिये मुझे क्या करना चाहिये? येसु उससे कहते हैं, ’’अपना सबकुछ बेचकर गरीबों को दे दो।’’ आज के सुसमाचार में येसु न्याय के दिन के बारे में बताते हुये कहते हैं कि जिन्होंने अपने जीवनकाल के दौरान भूखे को खिलाया, प्यासे को पिलाया, परदेशी को ठहराया, नंगे को पहनाया, बीमार से भेंट की तथा बंदी से मिले, उन्हीं को ही स्वर्गराज्य प्राप्त होगा। इसका कारण यह है कि इन उपेक्षित लोगों में वास्तव में ईश्वर स्वयं उपस्थित थे। सूक्ति ग्रंथ इसी वास्तविकता को बताता है कि जब हम दूसरों पर दया दिखाते है तो वास्तव में वह ईश्वर को ही समर्पित कार्य होता है और ईश्वर उसका पुरस्कार प्रदान करते हैं, ’’जो दरिद्रों पर दया करता, वह प्रभु को उधार देता है। प्रभु उसे उसके उपकार का बदला चुकायेगा।’’ (सुक्ति 19:17) नबी मीकाह कहते हैं, ’’मनुष्य! तुम को बताया गया है कि उचित क्या है और प्रभु तुम से क्या चाहता है। यह इतना ही है- न्यायपूर्ण व्यवहार, कोमल भक्ति और ईश्वर के सामने विनयपूर्ण आचरण।’’ (मीकाह 6:8) हमारा ख्रीस्तीय विश्वास हमारे आचारण में प्रदर्शित होना चाहिये तभी यह फलदायी सिद्ध होता है। कर्मों के अभाव में हमारा विश्वास व्यर्थ है। धर्मग्रंथ अनेक जगहों पर हमारा आह्वान करते हुये कहता है कि हमें दरिद्रों तथा उपेक्षित व्यक्तियों की सहायता करना चाहिये। संत याकूब अपने पत्र में कहते हैं, “भाइयो! यदि कोई यह कहता है कि मैं विश्वास करता हूँ, किन्तु उसके अनुसार आचरण नहीं करता, तो इस से क्या लाभ? क्या विश्वास ही उसका उद्धार कर सकता है? मान लीजिए कि किसी भाई या बहन के पास न पहनने के लिए कपड़े हों और न रोज-रोज खाने की चीजें। यदि आप लोगों में कोई उन से कहे, ’खुशी से जाइए, गरम-गरम कपड़े पहनिए और भर पेट खाइए’ किन्तु वह उन्हें शरीर के लिए जरूरी चीजें नहीं दे, तो इस से क्या लाभ? इसी तरह कर्मों के अभाव में विश्वास पूर्ण रूप से निर्जीव होता है। और ऐसे मनुष्य से कोई कह सकता है, “तुम विश्वास करते हो, किन्तु मैं उसके अनुसार आचरण करता हूँ। मुझे अपना विश्वास दिखाओ, जिस पर तुम नहीं चलते और मैं अपने आचरण द्वारा तुम्हें अपने विश्वास का प्रमाण दूँगा। बल्कि वह कर्ता बन जाता और उस संहिता को अपने जीवन में चरितार्थ करता है। वह अपने आचरण के कारण धन्य होगा।’’ (याकूब 2:15-18)
कलकत्ता की संत तेरेसा कहा करती थी, ’’प्रभु ने हमें सारे संसार को प्यार करने नहीं बुलाया, बल्कि उन्होंने कहा, ’’एक-दूसरे को प्रेम करो’’ जब हम ईश्वर के आज्ञानुसार एक-दूसरे को प्रेम करते है तो वास्तव में हमारा विश्वास जीवंत और ज्वलंत बन जाता है।
आइये हम भी अपने ख्रीस्तीय विश्वास को दरिद्रों तथा जरूरतमंदों के उद्धार में प्रदर्शित कर ईश्वर की सेवा करे।
✍ - फादर रोनाल्ड वाँन
“How to reach heaven” - has been a burning question. In the gospel the rich man asks Jesus, “What shall I do to enter the kingdom of heaven?’ Jesus replies saying, ‘sell what you own, and give the money[c] to the poor, and you will have treasure in heaven; then come, follow me” (Mk 10:21). In today’s gospel while speaking about the judgment day Jesus explains those who gave water to thirsty, food to the hungry, welcomed a strange, provided clothing to the naked, cared for the sick and visited the prisoners are the ones who will inherit the kingdom, for God himself was present in them. Book of Proverbs tells us that whatever we do to the poor and the needy in fact we do to the Lord, “Whoever is kind to the poor lends to the Lord, and will be repaid in full” (19:17). Similarly Micah reminds, “He has told you, O mortal, what is good; and what does the Lord require of you but to do justice, and to love kindness, and to walk humbly with your God?” (Micah 6:8)
Our Christian faith must be translated into action. Only then it can be fruitful. Without action our faith is in vein. In many places, the scripture reminds us that we ought to help the poor and the downtrodden. “If a brother or sister is naked and lacks daily food, and one of you says to them, ‘Go in peace; keep warm and eat your fill’, and yet you do not supply their bodily needs, what is the good of that? So faith by itself, if it has no works, is dead. But someone will say, ‘You have faith and I have works.’ Show me your faith without works, and I by my works will show you my faith.” (James 2:15-18) St. Teresa of Calcutta simplifies the Lord’s command when she says, “The Lord has not called us to love the whole world but to love one another.” If we love each other we in fact end up loving the whole world. Let us begin this by loving the person next us. Let us love the poor and marginalised so that our Christian faith may be perfected.
✍ -Fr. Ronald Vaughan