22) इसके बाद सुलेमान इस्राएल के समस्त समुदाय के सम्मुख ईश्वर की वेदी के सामने खड़ा हो गया और आकाश की ओर हाथ उठा कर
23) बोला, "प्रभु! इस्राएल के ईश्वर! न तो ऊपर स्वर्ग में और न नीचे पृथ्वी पर तेरे सदृश कोई ईश्वर है। तू विधान बनाये रखता और अपने सेवकों पर दया दृष्टि करता है, जो निष्कपट हृदय से तेरे मार्ग पर चलते हैं।
27) क्या यह सम्भव है कि ईश्वर सचमुच पृथ्वी पर मनुष्यों के साथ निवास करे? आकाश तथा समस्त ब्रह्माण्ड में भी तू नहीं समा सकता, तो इस मन्दिर की क्या, जिसे मैंने तेरे लिए बनवाया है!
28) प्रभु, मेरे ईश्वर! अपने सेवक की प्रार्थना तथा अनुनय पर ध्यान दे। आज अपने सेवक की पुकार तथा विनती सुनने की कृपा कर।
29) तेरी कृपादृष्टि दिन-रात इस मन्दिर पर बनी रहे- इस स्थान पर, जिसके विषय में तूने कहा कि मेरा नाम यहाँ विद्यमान रहेगा। तेरा सेवक यहाँ जो प्रार्थना करेगा, उसे सुनने की कृपा कर।
30) जब इस स्थान पर तेरा सेवक और इस्राएल की समस्त प्रजा प्रार्थना करेगी, तो उनका निवेदन स्वीकार करने की कृपा कर। तू अपने स्वर्गिक निवासस्थान से उनकी प्रार्थना सुन और उन्हें क्षमा प्रदान कर।
1 फ़रीसी और येरूसालेम से आये हुए कई शास्त्री ईसा के पास इकट्ठे हो गये।
2) वे यह देख रहे थे कि उनके शिष्य अशुद्ध यानी बिना धोये हाथों से रोटी खा रहे हैं।
3) पुरखों की परम्परा के अनुसार फ़रीसी और सभी यहूदी बिना हाथ धोये भोजन नहीं करते।
4) बाज़ार से लौट कर वे अपने ऊपर पानी छिड़के बिना भोजन नहीं करते और अन्य बहुत-से परम्परागत रिवाज़ों का पालन करते हैं- जैसे प्यालों, सुराहियों और काँसे के बरतनों का शुद्धीकरण।
5) इसलिए फ़रीसियों और शास्त्रियों ने ईसा से पूछा, "आपके शिष्य पुरखों की परम्परा के अनुसार क्यों नहीं चलते? वे क्यों अशुद्ध हाथों से रोटी खाते हैं?
6) ईसा ने उत्तर दिया, "इसायस ने तुम ढोंगियों के विषय में ठीक ही भविष्यवाणी की है। जैसा कि लिखा है- ये लोग मुख से मेरा आदर करते हैं, परन्तु इनका हृदय मुझ से दूर है।
7) ये व्यर्थ ही मेरी पूजा करते हैं; और ये जो शिक्षा देते हैं, वे हैं मनुष्यों के बनाये हुए नियम मात्र।
8) तुम लोग मनुष्यों की चलायी हुई परम्परा बनाये रखने के लिए ईश्वर की आज्ञा टालते हो।"
9) ईसा ने उनसे कहा, "तुम लोग अपनी ही परम्परा का पालन करने के लिए ईश्वर की आज्ञा रद्द करते हो;
10) क्योंकि मूसा ने कहा, अपने पिता और अपनी माता का आदर करो; और जो अपने पिता या अपनी माता को शाप दे, उसे प्राणदण्ड दिया जाय।
11) परन्तु तुम लोग यह मानते हो कि यदि कोई अपने पिता या अपनी माता से कहे- आप को मुझ से जो लाभ हो सकता था, वह कुरबान (अर्थात् ईश्वर को अर्पित) है,
12) तो उस समय से वह अपने पिता या अपनी माता के लिए कुछ नहीं कर सकता है।
13) इस तरह तुम लोग अपनी परम्परा के नाम पर, जिसे तुम बनाये रखते हो, ईश्वर का वचन रद्द करते हो और इस प्रकार के और भी बहुत-से काम करते रहते हो।"
आज के सुसमाचार में येसु एक आम मानवीय प्रवृत्ति का सामना करते हैं। वह प्रवृत्ति जो सच्ची उपासना को खोकली परंपराओं से बदलने की है। फरीसीयों ने येसु से उनके शिष्यों की कुछ रीतियों का पालन न करने के बारे में पूछा, जिससे बाहरी अनुष्ठानों और हृदय की स्थिति के बीच एक महत्वपूर्ण अंतर सामने आता है। येसु जोर देते हैं कि सच्ची उपासना केवल बाहरी रीतियों से सीमित नहीं है, बल्कि एक सहज हृदय से बहती है। वह इसायाह का उद्धरण करते हुए कहते हैं, “ये लोग मुझे अपने ओंठों से सम्मान देते हैं, लेकिन उनके हृदय मुझसे दूर हैं।” हमारे जीवन में, हम खुद को बिना ईश्वर से कोई सच्चा संबंध बनाए, धार्मिक क्रियाओं में लिप्त पाते हैं। येसु मनुष्यों द्वारा बनाई गई परंपराओं को ईश्वर के आदेशों के स्थान पर रखने के खिलाफ चेतावनी देते हैं। वह हमें अपनी परंपराओं और रीतियों की जांच करने के लिए चुनौती देते हैं, सुनिश्चित करते हुए कि अपने विश्वास की यात्रा में बाधा बनने के बजाय वे हमें ईश्वर के करीब ले जाते हैं। हमें परंपराओं के गुलाम बनने की बजाय ईश्वर के सेवक बनना चाहिए। जब बाहरी अभ्यास हार्दिक भक्ति से अलग हो जाते हैं, तब वे अपना अर्थ खो देते हैं। येसु हमें अपने हृदय के आंतरिक परिवर्तन को केवल बाहरी दिखावे से ऊपर रखने का आह्वान करते हैं। आइए हम अपनी उपासना पर विचार करें, सुनिश्चित करते हुए कि वह ईश्वर से प्रेम और आज्ञाकारिता की एक सहज इच्छा से उभरती है। येसु हमें खोकली परंपराओं से यह पहचानते हुए मुक्त होने का न्योता देते हैं कि सच्ची उपासना ईश्वर को समर्पित हृदय से निकलती है। हमारे कार्य और परंपराएं प्रेम, विश्वास और अपने रचयिता के करीब आने की एक सच्ची इच्छा में जड़े हों।
✍ - फादर पॉल राज (भोपाल महाधर्मप्रान्त)
In today’s Gospel from Mark 7:1-13, Jesus confronts a common human tendency. The inclination to replace genuine worship with empty traditions. The Pharisees questioned Jesus about his disciples’ failure to follow certain rituals, highlighting a crucial distinction between external observances and the condition of the heart. Jesus emphasizes that true worship is not confined to external rituals but flows from a sincere heart. He quotes Isaiah, saying, “These people honours me with their lips, but their hearts are far from me.” In our lives, we may find ourselves going through religious motions without a genuine connection to God.
Jesus warns against substituting man made traditions for God’s commandments. He challenges us to examine our traditions and rituals, ensuring they lead us closer to God rather than becoming obstacles in our journey of faith.
The danger lies in becoming slaves to traditions rather than servants of God. External practices, when divorced from heartfelt devotion, lose their meaning. Jesus calls us to prioritize the inner transformation of our hearts over mere outward appearances. Let us reflect on our worship, ensuring it springs from a sincere desire to love and obey God. Jesus invites us to break free from hollow traditions, recognizing that true worship emanates from a heart surrendered to God. May our actions and traditions be grounded in love, faith, and a genuine desire to draw closer to our Creator.
✍ -Fr. Paul Raj (Bhopal Archdiocese)
सुसमाचार हमें यह समझने में मदद करता है कि येसु का अनुसरण करने का क्या अर्थ है। येसु का अनुसरण करना धार्मिक अनुष्ठानों का एक समूह रखने के बारे में नहीं है। यह ईश्वर के साथ एक रिश्ते के बारे में है। येसु ने मानव परंपराओं से लगाव और ईश्वर की आज्ञा की अवहेलना करने के लिए फरीसियों और शास्त्रियों की आलोचना की। येसु का अनुसरण करना वास्तव में कैसा दिखता है, इसे समझने के लिए यह हमारे लिए एक दृष्टांत या पाठ है। येसु के लिए, केवल धार्मिक क्रिया पर्याप्त नहीं हैं। ईश्वरीयता के बाहरी रूपों की विशेषता वाले जीवन होना संभव है लेकिन हमारा हृदय ईश्वर से दूर हो सकता है। धार्मिक परंपराओं में कुछ भी गलत नहीं है। यह गलत हो जाता है जब धार्मिक परंपराओं के आधार पर लोगों का मूल्यांकन और न्याय किया जाता है।
✍ - फादर संजय कुजूर एस.वी.डी
The gospel helps us to understand what it means to follow Jesus. Following Jesus is not about keeping a bunch of religious rituals. It is about a relationship with God. Jesus criticizes the Pharisees and scribes for clinging to human traditions and disregarding God's commandment. This is an illustration or lesson for us to understand what following Jesus really looks like. For Jesus, empty rituals are not sufficient. It is possible to have lives that are characterized by outward forms of godliness but our hearts can be far from God. There is nothing wrong with the religious traditions. It becomes wrong when people are evaluated and judged based on the religious traditions.
✍ -Fr. Sanjay Kujur SVD