गुरुवार, 01 फरवरी, 2024

सामान्य काल का चौथा सप्ताह

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📒 पहला पाठ: राजाओं का पहला ग्रन्थ 2:1-4,10-12

1) जब दाऊद के मरने का समय निकट आया, तो उसने अपने पुत्र सुलेमान को ये अनुदेश दिये,

2) ‘‘मैं भी दूसरे मनुष्यों की तरह मिट्टी में मिलने जा रहा हूँ। धीरज धरो और अपने को पुरुष प्रमाणित करो।

3) तुम अपने प्रभु-ईश्वर के प्रति अपना कर्तव्य पूरा करो। उसके बताये हुए मार्ग पर चलो; उसकी विधियों, आदेशों, आज्ञाओं और नियमों का पालन करो, जेसा कि मूसा की संहिता में लिखा हुआ है। तब तुम अपने सब कार्यों और उद्योगों में सफलता प्राप्त करोगे और

4) मुझे दी गयी प्रभु की यह प्रतिज्ञा पूरी हो जायेगी: ‘यदि तुम्हारे पुत्र ईमानदार हो कर मेरे सामने सारे हृदय और सारी आत्मा से सन्मार्ग पर चलते रहेंगे, तो इस्राएल के सिंहासन पर सदा ही तुम्हारा कोई वंशज विराजमान होगा।’

10) दाऊद ने अपने पूर्वजों के साथ विश्राम किया और वह दाऊदनगर में क़ब्र में रखा गया।

11) दाऊद ने इस्राएल पर चालीस वर्ष तक राज्य किया- हेब्रोन में सात वर्ष तक और येरुसालेम में तैंतीस वर्ष तक।

12) सुलेमान अपने पिता दाऊद के सिंहासन पर बैठा और उसका राज्य सुदृढ़ होता गया।

📙 सुसमाचार : सन्त मारकुस 6:7-13

7) ईसा शिक्षा देते हुए गाँव-गाँव घूमते थे। वे बारहों को अपने पास बुला कर और उन्हें अपदूतों पर अधिकार दे कर, दो-दो करके, भेजने लगे।

8) ईसा ने आदेश दिया कि वे लाठी के सिवा रास्ते के लिए कुछ भी नहीं ले जायें- न रोटी, न झोली, न फेंटे में पैसा।

9) वे पैरों में चप्पल बाँधें और दो कुरते नहीं पहनें

10) उन्होंने उन से कहा, ’’जिस घर में ठहरने जाओ, नगर से विदा होने तक वहीं रहो!

11) यदि किसी स्थान पर लोग तुम्हारा स्वागत न करें और तुम्हारी बातें न सुनें, तो वहाँ से निकलने पर उन्हें चेतावनी देने के लिए अपने पैरों की धूल झाड़ दो।’’

12) वे चले गये। उन्होंने लोगों को पश्चात्ताप का उपदेश दिया,

13) बहुत-से अपदूतों को निकाला और बहुत-से रोगियों पर तेल लगा कर उन्हें चंगा किया।

📚 मनन-चिंतन

आज हम मारकुस 6:7-13 पर विचार करते हैं, जहां येसु अपने शिष्यों को एक स्पष्ट उद्देश्य के साथ भेजते हैं। वह उन्हें सुसमाचार सुनाने और बीमारों को चंगा करने के लिए कहते हैं। यह हमें अपने विश्वास की यात्रा के बारे में बहुमूल्य सबक सिखाता है। येसु शिष्यों को दो-दो करके भेजना शुरू करते हैं। यह हमें अपने विश्वास के जीवन में समुदाय और सहायता के महत्व की याद दिलाता है। हमें अकेले यात्रा करने के लिए नहीं बनाया गया है, हमें एक दूसरे को मजबूत और प्रोत्साहित करना चाहिए। प्रभु उन्हें यात्रा के लिए सिर्फ एक लाठी को छोड़कर कुछ भी नहीं लेने के लिए निर्देश देते हैं। यह सादगी हमें ईश्वर के प्रबंधन पर भरोसा करने की बात कहती है। सांसारिक चीजों पर हमारी निर्भरता प्रभु पर हमारी निर्भरता के खिलाफ है।

इसके अलावा, येसु शिष्यों को सलाह देते हैं कि अगर उन्हें अस्वीकार किया जाता है तो नगर से निकलते समय वे अपने पैरों से धूल भी झाड़ दें। यह नकारात्मकता से अलगाव का प्रतीक है और हमें याद दिलाता है कि हम दूसरों की प्रतिक्रिया पर नियंत्रण नहीं कर सकते, लेकिन हम अपने रवैये पर नियंत्रण रख सकते हैं।

जब शिष्य पश्चाताप का प्रचार करते हैं, तो वे हमें पाप से मुड़ने के लिए बुलाते हैं। उनका पश्चाताप पर ध्यान केंद्रित करना हमें अपनी गलतियों को स्वीकार करने और ईश्वर की कृपा की तलाश करने के महत्व को उजागर करता है। बीमारों पर तेल का विलेप करने का कार्य ईश्वर के प्रेम की चंगाई प्रदान करने वाली शक्ति का प्रतीक है। यह हमें उसकी करुणा के चैनल बनने के लिए प्रेरित करता है, जो जरूरतमंदों के पास दया भरे दिल के साथ पहुंचते हैं। येसु द्वारा शिष्यों को भेजना हमारे ख्रीस्तीय मिशन के लिए एक उदाहरण के रूप में काम करता है। आइए हम ईश्वर के प्रबंधन पर भरोसा करते हुए, नकारात्मकता से अलग होकर, और अपने सामने आने वाले सभी के लिए उसका प्यार फैलाते हुए विश्वास में साथ-साथ यात्रा करें। हम शिष्यों की तरह एक उद्देश्य के साथ भेजे जाएं, ताकि हम सुसमाचार को साझा करें और एक जरूरतमंद दुनिया को चंगा कर सकें।

- फादर पॉल राज (भोपाल महाधर्मप्रान्त)


📚 REFLECTION

Today, we reflect on Mark 6:7-13, where Jesus sends out His disciples with a clear purpose. He calls them to share the Good News and heal the sick. It teaches us valuable lessons about our journey of faith. Jesus starts by sending the disciples in pairs. This reminds us of the importance of community and support in our Christian walk. We are not meant to journey alone together, we strengthen and encourage one another. The Lord instructs them to take nothing for the journey except a staff. This simplicity speaks to the trust we should place in God’s provision. Our reliance on material things should not overshadow our reliance on Him.

Furthermore, Jesus advises the disciples to shake off the dust from their feet if rejected. This symbolizes detachment from negativity and reminds us that we can’t control others’ responses, but we can control our attitudes.

As the disciples preach repentance, they mirror the call for us to turn away from sin. Their focus on repentance highlights the importance of acknowledging our faults and seeking God’s mercy. The act of anointing the sick with oil represents the healing power of God’s love. It prompts us to be channels of His compassion, reaching out to those in need with a heart full of empathy. Jesus sending out the disciples serves as a template for our Christian mission. Let us journey together in faith, trusting in God’s provision, detaching from negativity, and spreading His love to all we encounter. May we, like the disciples, be sent forth with a purpose to share the Good News and bring healing to a world in need.

-Fr. Paul Raj (Bhopal Archdiocese)

📚 मनन-चिंतन-2

येसु बारह शिष्यों को प्रेरिताई कार्य के लिए भेजते है। उन्हें बिना तैयारी यात्रा करनी है। हालाँकि, हम जानते हैं कि प्रभु उनकी ज़रूरतों को पूरा करता है। उन्हें एक-दूसरे को सहारा और साथ देने के लिए जोड़ियों में भेजा गया था। प्रेरिताई कार्य अत्यावश्यक है, और उनके पूर्ण ध्यान की आवश्यकता है। शिष्यों को एक महत्वपूर्ण खेल में एक खिलाडी जैसा एकचित्त होना चाहिए। चंगाई और ईश्वर के राज्य के बारे में प्रचार करना बारह शिष्यों का प्रेरिताई कार्य की मुख्य विशेषताएं हैं। इसलिए कह सकते है कि सुसमाचार के प्रचार को सामाजिक और शारीरिक जरूरतों की देखभाल से अलग नहीं किया जा सकता है। रोगियों की चंगाई करुणा का कार्य है, लेकिन यह इस संदेश की ओर भी ध्यान आकर्षित करता है कि ईश्वर का राज्य निकट आ गया है। करुणा और उद्घोषणा, कर्मों और वचनों का यह संयोजन आज शक्तिशाली गवाह के रूप में कार्य करता है।

- फादर संजय कुजूर एस.वी.डी


📚 REFLECTION

Jesus sends the twelve on mission. They have to travel unprepared. However, we know that the Lord will provide for their needs. They were sent in pairs to give support and companionship to each other. The mission is urgent, and requires their full attention. Disciples are to be single-minded as an athlete in a crucial game. Healing and preaching the kingdom of God is the principle features of the mission of the twelve. Therefore one can say that preaching of the gospel can never be separated from care for social and physical needs. The healing of the sick is an act of compassion, but it also draws attention to the message that the kingdom of God has come near. This combination of compassion and proclamation, deeds and words serves as powerful witness today.

-Fr. Sanjay Kujur SVD

📚 मनन-चिंतन - 3

आज के सुसमाचार में, हम देखते हैं कि येसु अपने बारह शिष्यों को दो-दो करके भेज रहे हैं। उन्होंने उन्हें अशुद्ध आत्माओं पर अधिकार दिया। उन्होंने उन्हें अपने साथ कुछ भी न ले जाने की हिदायत दी। वे चाहते थे कि शिष्य अपनी सुरक्षा और व्यवस्था के लिए प्रभु पर भरोसा करें। उन्हें केवल स्वर्गराज्य का संदेश अपने साथ ले जाना था। येसु की शक्ति उनके साथ थी। उन्होंने स्वयं गांवों का दौरा करने के बाद अपने शिष्यों को भेजा। प्रभु येसु ने अपनी यात्राओं के दौरान जो कार्य किया था, उसी को आगे बढ़ाने के लिए उन्होंने अपने शिष्यों को भेजा। लूकस 10: 1 में हम पढ़ते हैं, "इसके बाद प्रभु ने अन्य बहत्तर शिष्य नियुक्त किये और जिस-जिस नगर और गाँव में वे स्वयं जाने वाले थे, वहाँ दो-दो करके उन्हें अपने आगे भेजा”। प्रभु ने उन स्थानों पर अपने सत्तर शिष्यों को भेजा, जहाँ वे स्वयं जाने वाले थे। वे येसु के लिए रास्ता तैयार करने के लिए भेजे गए प्रतीत होते हैं। येसु के शिष्यों होने के नाते हमें यह याद रखना चाहिए कि उद्घोषणा के हमारे कार्य के पहले और बाद में प्रभु हमारे कार्यों में जो भी कमी है, उसे पूरा करते हैं। इसलिए, हमें वह करने की आवश्यकता है जो हमारे लिए संभव है और बाकी को प्रभु पर छोड़ दें।

-फादर फ्रांसिस स्करिया


📚 REFLECTION

In today’s gospel, we see Jesus sending out his twelve disciples two by two. He gave them authority over unclean spirits. He instructed them not to carry anything with them. He wanted them to rely on God for their protection and upkeep. They were to take only the message of the Kingdom of God with them. The power of Jesus was accompanying them. He sent them after having made a tour of the villages himself. He now seems to be sending them to follow-up what he had done during his visits. In Lk 10:1 we read, “After this the Lord appointed seventy others and sent them on ahead of him in pairs to every town and place where he himself intended to go”. He sent the seventy disciples prior to his own apostolate in those places. They seem to be sent to prepare the way for Jesus. As the disciples of Jesus we should remember that before and after our work of proclamation the Lord supplements whatever is lacking in our work. Hence, we need to do what is possible for us and leave the rest to the Lord.

-Fr. Francis Scaria