2) इसलिए राजा दाऊद ने अपने सेनाध्यक्ष योआब से यह कहा, ‘‘तुम दान से बएर-शेबा तक सब इस्राएली वंशों में घूम-घूम कर जनगणना करो। मैं लोगों की संख्या जानना चाहता हूँ।’’
9) योआब ने राजा को जनगणना का परिणाम बताया: इस्राएल में तलवार चलाने योग्य आठ लाख योद्धा थे और यूदा में पाँच लाख।
10) जनगणना के बाद दाऊद को पश्चाताप हुआ और उसने प्रभु से कहा, ‘‘मैंने जनगणना करा कर घोर पाप किया है। प्रभु! अपने सेवक का पाप क्षमा कर। मैंने बड़ी मूर्खता का काम किया है।’’
11) जब दाऊद दूसरे दिन प्रातः उठा, तो दाऊद के दृष्टा, नबी गाद को प्रभु की वाणी यह कहते हुए सुनाई पड़ी,
12) ‘‘दाऊद के पास जाकर कहो: प्रभु यह कहता है- मैं तीन बातें तुम्हारे सामने रख रहा हूँ। उनमें एक को चुन लो। मैं उसी के द्वारा तुम को दण्डित करूँगा।’’
13) गाद ने दाऊद के पास आकर यह सूचना दी और पूछा, ‘‘क्या तुम चाहते हो - तुम्हारे राज्य में सात वर्ष तक अकाल पड़े? अथवा तुम तीन महीनों तक पीछा करते हुए शत्रु के सामने भागते रहो अथवा तुम्हारे देश में तीन दिनों तक महामारी का प्रकोप बना रहे? अच्छी तरह विचार कर बताओ कि मैं उस को, जिसने मुझे भेजा है, क्या उत्तर दूँ।"
14) दाऊद ने गाद से कहा, ‘‘मैं बड़े असमंजस में हूँ। हम प्रभु के हाथों पड़ जायें- क्योंकि उसकी दया बड़ी है- किन्तु मैं मनुष्यों के हाथों न पडूँ।’’
15) इसलिए प्रभु ने सबेरे से निर्धारित समय तक इस्राएल में महामारी भेजी और दान से बएर-शेबा तक सत्तर हज़ार लोग मर गये।
16) जब प्रभु के दूत ने येरुसालेम का विनाश करने के लिए अपना हाथ उठाया, तो प्रभु को विपत्ति देख कर दुःख हुआ और उसने लोगों का संहार करने वाले दूत से कहा, ‘‘बहुत हुआ। अब अपना हाथ रोक लो।’’ प्रभु का दूत यबूसी ओरनान के खलिहान के पास खड़ा था।
17) जब दाऊद ने लोगों को संहार करने वाले दूत को देखा, तो उसने प्रभु से यह कहा, ‘‘मैंने ही पाप किया है, मैंने ही अपराध किया है। इन भेड़ों ने क्या किया है? तेरा हाथ मुझे और मेरे परिवार को दण्डित करे।’’
1) वहाँ से विदा हो कर ईसा अपने शिष्यों के साथ अपने नगर आये।
2) जब विश्राम-दिवस आया, तो वे सभागृह में शिक्षा देने लगे। बहुत-से लोग सुन रहे थे और अचम्भे में पड़ कर कहते थे, ’’यह सब इसे कहाँ से मिला? यह कौन-सा ज्ञान है, जो इसे दिया गया है? यह जो महान् चमत्कार दिखाता है, वे क्या हैं?
3) क्या यह वही बढ़ई नहीं है- मरियम का बेटा, याकूब, यूसुफ़, यूदस और सिमोन का भाई? क्या इसकी बहनें हमारे ही बीच नहीं रहती?’’ और वे ईसा में विश्वास नहीं कर सके।
4) ईसा ने उन से कहा, ’’अपने नगर, अपने कुटुम्ब और अपने घर में नबी का आदर नहीं होता’।
5) वे वहाँ कोई चमत्कार नहीं कर सके। उन्होंने केवल थोड़े-से रोगियों पर हाथ रख कर उन्हें अच्छा किया।
6) उन लोगों के अविश्वास पर ईसा को बड़ा आश्चर्य हुआ।
जब येसु अपने गांव नाजरेत में वापस आते हैं, तो लोग उनके उपदेशों से अचंभित होते हैं। वे उनके ज्ञान और अन्य स्थानों पर किए गए असाधारण कार्यों को स्वीकार करते हैं। हालांकि, बजाय उन्हें लंबे समय से प्रतीक्षित मसीह के रूप में अपनाने के, वे परिचित पर ठोकर खाते हैं, पूछते हैं, “क्या यह मरियम का बेटा, बढ़ई नहीं है?” लोग सामान्य में दिव्य को देखने में संघर्ष करते हैं। येसु, जो उनके बीच में बड़े हुए, केवल एक बढ़ई के रूप में देखे जाते हैं, और यह परिचय उनकी वास्तविकता को पहचानने में एक बाधा बन जाता है। हमारे अपने जीवन में, हम कभी-कभी अपने अस्तित्व के सामान्य पहलुओं में ईश्वर के असाधारण कार्यों को खो देते हैं। हम नियमित और सामान्य में पवित्र को पहचानने में विफल हो सकते हैं। जैसे कि नाजरेत के लोगों ने येसु को उनकी सामान्य पृष्ठभूमि के कारण कम अंदाजा लगाया, हम अपने रोजमर्रा के अनुभवों में ईश्वर की गहरी उपस्थिति को अनदेखा कर सकते हैं। येसु इस विश्वास की कमी का जवाब देते हुए चुनौती को स्वीकार करते हैं, “अपने नगर, अपने कुटुम्ब और अपने घर में नबी का आदर नहीं होता”। परिचय संदेह को जन्म दे सकता है, और कभी-कभी हमारे नजदीकी लोग हमारे आध्यात्मिक यात्रा और विकास की गहराई को समझने में संघर्ष कर सकते हैं। जब हम इस पर चिंतन करते हैं, आइए हम अपने जीवन के सामान्य क्षणों में ईश्वर के असाधारण प्रेम के लिए अपने हृदय को खोलें। आइए हम परिचय से अंधे न हों, बल्कि, हम लोगों, घटनाओं, और अनुभवों में दिव्य उपस्थिति को देखें, जो हमारे दैनिक अस्तित्व का हिस्सा बनते हैं।
✍ - फादर पॉल राज (भोपाल महाधर्मप्रान्त)
As Jesus returns to His hometown of Nazareth, the people are astonished by His teachings. They acknowledge His wisdom and the extraordinary deeds performed in other places. However, instead of embracing Him as the long-awaited Messiah, they stumble over the familiar, asking, “Is this not the carpenter, the son of Mary?” The people struggle to see the divine in the ordinary. Jesus, who grew up among them, is seen as just a carpenter, and this familiarity becomes a stumbling block to recognizing His true identity.
In our own lives, we may sometimes miss the extraordinary work of God in the ordinary aspects of our existence. We may fail to recognize the sacred in the routine, and the divine in the commonplace. Just as the people of Nazareth underestimated Jesus because of His common background, we might overlook the profound presence of God in our everyday experiences.
Jesus responds to this lack of faith by acknowledging the challenge, “Prophets are not without honour, except in their hometown and among their relatives and in their household.” Familiarity can breed skepticism, and sometimes those closest to us may struggle to perceive the depth of our spiritual journey and growth.
As we reflect on this, let us open our hearts to the extraordinary love of God in the ordinary moments of our lives. Let us not be blinded by familiarity, but instead, may we see the divine presence in the people, events, and experiences that make up our daily existence.
✍ -Fr. Paul Raj (Bhopal Archdiocese)
जब येसु अपने गांव नाजरेत में वापस आते हैं, तो लोग उनके उपदेशों से अचंभित होते हैं। वे उनके ज्ञान और अन्य स्थानों पर किए गए असाधारण कार्यों को स्वीकार करते हैं। हालांकि, बजाय उन्हें लंबे समय से प्रतीक्षित मसीह के रूप में अपनाने के, वे परिचित पर ठोकर खाते हैं, पूछते हैं, “क्या यह मरियम का बेटा, बढ़ई नहीं है?” लोग सामान्य में दिव्य को देखने में संघर्ष करते हैं। येसु, जो उनके बीच में बड़े हुए, केवल एक बढ़ई के रूप में देखे जाते हैं, और यह परिचय उनकी वास्तविकता को पहचानने में एक बाधा बन जाता है। हमारे अपने जीवन में, हम कभी-कभी अपने अस्तित्व के सामान्य पहलुओं में ईश्वर के असाधारण कार्यों को खो देते हैं। हम नियमित और सामान्य में पवित्र को पहचानने में विफल हो सकते हैं। जैसे कि नाजरेत के लोगों ने येसु को उनकी सामान्य पृष्ठभूमि के कारण कम अंदाजा लगाया, हम अपने रोजमर्रा के अनुभवों में ईश्वर की गहरी उपस्थिति को अनदेखा कर सकते हैं। येसु इस विश्वास की कमी का जवाब देते हुए चुनौती को स्वीकार करते हैं, “अपने नगर, अपने कुटुम्ब और अपने घर में नबी का आदर नहीं होता”। परिचय संदेह को जन्म दे सकता है, और कभी-कभी हमारे नजदीकी लोग हमारे आध्यात्मिक यात्रा और विकास की गहराई को समझने में संघर्ष कर सकते हैं। जब हम इस पर चिंतन करते हैं, आइए हम अपने जीवन के सामान्य क्षणों में ईश्वर के असाधारण प्रेम के लिए अपने हृदय को खोलें। आइए हम परिचय से अंधे न हों, बल्कि, हम लोगों, घटनाओं, और अनुभवों में दिव्य उपस्थिति को देखें, जो हमारे दैनिक अस्तित्व का हिस्सा बनते हैं।
✍ -फादर जॉन्सन बी. मरिया (ग्वालियर धर्मप्रान्त)
As Jesus returns to His hometown of Nazareth, the people are astonished by His teachings. They acknowledge His wisdom and the extraordinary deeds performed in other places. However, instead of embracing Him as the long-awaited Messiah, they stumble over the familiar, asking, “Is this not the carpenter, the son of Mary?” The people struggle to see the divine in the ordinary. Jesus, who grew up among them, is seen as just a carpenter, and this familiarity becomes a stumbling block to recognizing His true identity. In our own lives, we may sometimes miss the extraordinary work of God in the ordinary aspects of our existence. We may fail to recognize the sacred in the routine, and the divine in the commonplace. Just as the people of Nazareth underestimated Jesus because of His common background, we might overlook the profound presence of God in our everyday experiences. Jesus responds to this lack of faith by acknowledging the challenge, “Prophets are not without honour, except in their hometown and among their relatives and in their household.” Familiarity can breed skepticism, and sometimes those closest to us may struggle to perceive the depth of our spiritual journey and growth. As we reflect on this, let us open our hearts to the extraordinary love of God in the ordinary moments of our lives. Let us not be blinded by familiarity, but instead, may we see the divine presence in the people, events, and experiences that make up our daily existence.
✍ -Fr. Johnson B.Maria (Gwalior)
पवित्र बाइबल किसी भी इंसान को परिपूर्ण नहीं मानती क्योंकि कोई भी इंसान परिपूर्ण या त्रुटिहीन नहीं है। राजा दाऊद ईश्वर को बहुत प्रिय था। फिर भी, उसके दो बड़े पाप सभी विवरणों के साथ बाइबल में दर्ज हैं। उसने अपने सैनिक उरिया की पत्नी के साथ व्यभिचार किया और फिर अपने पाप को ढँकने के प्रयास में उसने उरिया की हत्या कर दी। आज के पहले पाठ में हम दाऊद का एक और बड़ा पाप देखते हैं। यह जनगणना का पाप था। बचपन से ही दाऊद ने ईश्वर की शक्ति को उसकी रक्षा करते हुए तथा उसके दुश्मनों को नष्ट करते हुए अनुभव किया। जिस दिन प्रभु ने दाऊद को साऊल समेत अपने सभी शत्रुओं से छुड़ाया, उसने गाया, “प्रभु! मेरे बल! मैं तुझे प्यार करता हूँ। प्रभु मेरी चट्टान है, मेरा गढ़ और मेरा उद्धारक। ईश्वर ही मेरी चट्टान है, जहाँ मुझे शरण मिलती है। वही मेरी ढाल है, मेरा शक्तिशाली उद्धारकर्ता और आश्रयदाता। प्रभु धन्य है! मैंने उसकी दुहाई दी और मैं अपने शत्रुओं पर वियजी हुआ।“ (स्तोत्र 18: 1-4) फिर भी एक समय आता है जब दाऊद सोचने लगता है कि उसकी अपनी शक्तिशाली सेना ही उसे युद्ध में सफलता दिलाती थी। यह पता लगाने के लिए कि उसकी सेना में पर्याप्त ताकत है या नहीं, वह अपने लोगों की जनगणना करने आगे बढ़ता है, हालांकि उसे योआब द्वारा उनके मूर्खता के बारे में सतर्क किया गया था। राजा के इस पापपूर्ण कृत्य के लिए ईश्वर ने इस्राएल के लोगों को दंडित किया। हम यह कभी नहीं भूलें कि प्रभु के बिना हम एक सेकंड के लिए भी जीवित नहीं रह सकते।
✍ -फादर फ्रांसिस स्करिया
The Bible does not present any human being as perfect because no human being is perfect. David was very dear to God. Yet, two of his major sins are recorded in the Bible with all details. He committed adultery with the wife of his soldier Uriah and then in an attempt to cover up his sin he ended up with committing murder. In today’s first reading we find another major sin of David. It was the sin of the census. From his early childhood David experienced the power of God protecting him and destroying his enemies. On the day when the Lord delivered him from all his enemies including Saul, he sang, “I love you, O Lord, my strength. The Lord is my rock, my fortress, and my deliverer, my God, my rock in whom I take refuge, my shield, and the horn of my salvation, my stronghold. I call upon the Lord, who is worthy to be praised, so I shall be saved from my enemies.” (Ps 18:1-3). David was thoroughly aware that it was God who always protected and saved him. Yet a time comes when he begins to think that it was the power of his own mighty army that brought him success in battles. To ascertain that he has sufficient strength in his army he proceeds to take a census of his people although he was alerted about his folly by Joab. God punished the people of Israel for this sinful act of the king. We shall never forget that without God we cannot even be alive for a second.
✍ -Fr. Francis Scaria