इतवार, 21 जनवरी, 2024

सामान्य काल का तीसरा रविवार

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पहला पाठ: योना का ग्रन्थ 3:1-5,10

1) प्रभु के वाणी योना को दूसरी बार यह कहते हुए सुनाई पडी,

2) ’’उठो! महानगर निनीवे जा कर वहाँ के लोगों को उपदेश दो, जैसा कि मैंने तुम्हें बताया है’’।

3) इस पर योना उठ खडा हुआ और प्रभु के आज्ञानुसार निनीवे चला गया। निनीवे एक बहुत बड़ा शहर था। उसे पार करने में तीन दिन लगते थे।

4) योना ने उस में प्रवेश किया और एक दिन की यात्रा पूरी करने के बाद वह इस प्रकार उपदेश देने, लगा ’’चालीस दिन के बाद निनीवे का विनाश किया जायेगा’’।

5) निनीवे के लोगों ने ईश्वर की बात पर विश्वास किया। उन्होंने उपवास की घोषणा की और बडों से लेकर छोटों तक सबों ने टाट ओढ लिया।

10) ईश्वर ने देखा कि वे क्या कर रहे हैं और किस प्रकार उन्होंने कुमार्ग छोड दिया है, तो वह द्रवित हो गया और उसने जिस विपत्ति की धमकी दी थी, उसे उन पर नहीं आने दिया।

दूसरा पाठ : कुरिन्थियों के नाम सन्त पौलुस का पहला पत्र 7:29-31

29) भाइयो! मैं आप लोगों से यह कहता हूँ - समय थोड़ा ही रह गया है। अब से जो विवाहित हैं, वे इस तरह रहे मानो विवाहित नहीं हों;

30) जो रोते है, मानो रोते नहीं हो; जो आनन्द मनाते हैं, मानो आनन्द नहीं मनाते हों; जो खरीद लेते हैं, मानो उनके पास कुछ नहीं हो;

31) जो इस दुनिया की चीज़ों का उपभोग करते है, मानो उनका उपभोग नहीं करते हों; क्योंकि जो दुनिया हम देखते हैं, वह समाप्त हो जाती है।

सुसमाचार : सन्त मारकुस 1:14-20

14) योहन के गिरफ़्तार हो जाने के बाद ईसा गलीलिया आये और यह कहते हुए ईश्वर के सुसमाचार का प्रचार करते रहे,

15) ’’समय पूरा हो चुका है। ईश्वर का राज्य निकट आ गया है। पश्चाताप करो और सुसमाचार में विश्वास करो।’’

16) गलीलिया के समुद्र के किनारे से हो कर जाते हुए ईसा ने सिमोन और उसके भाई अन्द्रेयस को देखा। वे समुद्र में जाल डाले रहे थे, क्योंकि वे मछुए थे।

17) ईसा ने उन से कहा, ’’मेरे पीछे चले आओ। मैं तुम्हें मनुष्यों के मछुए बनाऊँगा।’’

18) और वे तुरन्त अपने जाल छोड़ कर उनके पीछे हो लिये।

19) कुछ आगे बढ़ने पर ईसा ने जेबेदी के पुत्र याकूब और उसके भाई योहन को देखा। वे भी नाव में अपने जाल मरम्मत कर रहे थे।

20) ईसा ने उन्हें उसी समय बुलाया। वे अपने पिता ज़ेबेदी को मज़दूरों के साथ नाव में छोड़ कर उनके पीछे हो लिये।

📚 मनन-चिंतन

मारकुस का सुसमाचार, अध्याय 1, पदसंख्याएं 14-20, जहां येसु अपना सार्वजनिक सेवकाई शुरू करते हैं और प्रथम शिष्यों को बुलाते हैं। इन छंदों में, येसु ने ईश्वर की खुशखबरी की घोषणा करते हुए कहा, "समय पूरा हो गया है, और ईश्वर का राज्य निकट है, पश्चाताप करो और सुसमाचार में विश्वास करो।" यह घोषणा एक नए युग की शुरुआत का प्रतीक है, हमारे दिलों को ईश्वर की ओर मोड़ने और उनके राज्य को अपनाने का निमंत्रण। जैसे ही येसु गलीलिया के समुद्र के किनारे चल रहा था, उन्होंने सिमोन और अन्द्रयस को जाल डालते हुए देखा। वह उन्हें पुकारते हैं, "मेरे पीछे चले आओ, और मैं तुम्हें मनुष्यों के मछुआरे बनाऊंगा।" बिना किसी हिचकिचाहट के, वे अपना जाल छोड़ देते हैं और येसु का अनुसरण करते हैं। इसके तुरंत बाद, याकूब और योहन ने भी बुलावे का जवाब दिया, और अपने पिता और अपनी नाव को गुरू का अनुसरण करने के लिए छोड़ दिया। पश्चाताप करने और सुसमाचार में विश्वास करने के लिए येसु का आह्वान हम सभी के लिए एक निरंतर निमंत्रण है। यह उन सभी चीज़ों से दूर होने का निमंत्रण है जो हमें ईश्वर से अलग करती हैं और उनके प्रेम और मोक्ष की खुशखबरी को अपनाने का निमंत्रण है। मछुआरों की प्रतिक्रिया शिष्यत्व का एक सबक है। वे येसु का अनुसरण करने के लिए अपने परिचित जीवन और अपनी आजीविका को पीछे छोड़ देते हैं। इसी तरह, येसु हममें से प्रत्येक को उन चीजों को पीछे छोड़ने के लिए कहते हैं जो उसके साथ हमारी यात्रा में बाधा डालती हैं - चाहे वह पाप हो, आसक्ति हो, या ध्यान भटकाने वाली बातें हों - और खुले दिल से जवाब दें। 'मनुष्य के मछुआरे' बनने का आह्वान हमें याद दिलाता है कि हमारा विश्वास केवल अपने तक ही सीमित रखने के लिए नहीं है। हमें दूसरों के साथ येसु के प्रेम और संदेश को साझा करने के लिए बुलाया गया है, ताकि अधिक से अधिक दिलों को उनके राज्य में लाने के लिए ईश्वर की कृपा का जाल बिछाया जा सके। आइए हम विचार करें कि हम अपने जीवन में येसु के आह्वान का कैसे जवाब देते हैं। क्या हमारे दिल उसका अनुसरण करने के लिए खुले हैं, भले ही इसके लिए आराम और अपनेपन को पीछे छोड़ना पड़े? क्या हम 'मनुष्यों के मछुआरे' बनने और अपने आसपास के लोगों के साथ मसीह के प्रेम और सच्चाई को साझा करने के इच्छुक हैं? आइए हम, प्रथम शिष्यों की तरह, येसु के आह्वान का तत्परता और उत्सुकता के साथ जवाब दें, यह विश्वास करते हुए कि उनका अनुसरण करने में, हमें ईश्वर के राज्य में सच्ची पूर्ति और उद्देश्य मिलेगा।

- फादर पॉल राज (भोपाल महाधर्मप्रान्त)


📚 REFLECTION

p>The Gospel of Mark, chapter 1, verses 14-20, where Jesus begins His public ministry and calls the first disciples. In these verses, Jesus proclaims the good news of God, saying, “The time is fulfilled, and the kingdom of God is at hand repent and believe in the gospel.” This announcement marks the beginning of a new era, an invitation to turn our hearts towards God and embrace His kingdom. As Jesus walks by the Sea of Galilee, He encounters Simon and Andrew casting their nets. He calls out to them, “Follow me, and I will make you become fishers of men.” Without hesitation, they leave their nets and follow Jesus. Soon after, James and John also respond to the call, leaving their father and their boat to follow the Master. Jesus’ call to repentance and belief in the gospel is an ongoing invitation for all of us. It’s an invitation to turn away from anything that separates us from God and to embrace the good news of His love and salvation. The response of the fishermen is a lesson in discipleship. They leave behind their familiar lives, and their livelihoods, to follow Jesus. Similarly, Jesus calls each of us to leave behind the things that hinder our journey with Him – be it sin, attachments, or distractions – and respond with open hearts. The call to be ‘fishers of men’ reminds us that our faith is not meant to be kept to ourselves. We are called to share the love and message of Jesus with others, casting the net of God’s grace to bring more hearts into His kingdom. let us ponder how we respond to Jesus’ call in our lives. Are our hearts open to follow Him, even if it means leaving behind comfort and familiarity? Are we willing to be ‘fishers of men,’ sharing the love and truth of Christ with those around us? May we, like the first disciples, respond with readiness and eagerness to the call of Jesus, trusting that in following Him, we find true fulfilment and purpose in the kingdom of God.

-Fr. Paul Raj (Bhopal Archdiocese)

📚 मनन-चिंतन-2

आज सामान्य काल का तीसरा रविवार है और इसे ईश वचन रविवार के रूप में मनाया जाता है। आज के पाठ हमें बताते हैं कि ईश वचन किस तरह हमारे जीवन में प्रभावशाली है तथा और किस तरह ईश्वर धैर्यपूर्वक हमारे मन परिवर्तन का इंतज़ार करता है। सब लोग एक अटल सत्य से भली-भाँति परिचित हैं, और वह अटल सत्य है कि एक न एक दिन मृत्यु से हमारा सामना होना है, लेकिन कब होना है, ये हमें नहीं मालूम। किसी की मौत कब होगी, अब, कल, अगले महीने या दस साल बाद, किसी को नहीं पता। चूँकि हमें अपना अंत समय नहीं मालूम है, या हमें निश्चित समय ज्ञात नहीं है, इसलिए हम इसके लिए तैयारी भी नहीं करते। हम ईश्वर से मुलाक़ात के लिए तैयारी नहीं करते। अंत समय तक हम सिर्फ़ तैयारी करने का ही इंतज़ार करते हैं।

पहले पाठ में हम देखते हैं कि लोग अपने पापमय जीवन में व्यस्त थे, लेकिन जब नबी योनस ने चेतावनी दी कि चालीस दिन बाद सब कुछ नष्ट हो जाएगा क्योंकि ईश्वर उनके शहर निनेवे को नष्ट करने वाले थे, तो सभी लोग भयभीत हो जाते हैं, और पश्चाताप और उपवास करने लग जाते हैं। सब के सब पश्चाताप करने लगते हैं, बच्चों से लेकर बड़ों तक। उनका टाट ओड़ना और उपवास करना यह दर्शाता था कि वे अपनी ग़लतियों और पापों के लिए दुखी थे और ग़लत रास्ता छोड़कर ईश्वर के बताए रास्ते पर चलना चाहते थे। ईश्वर उनके पश्चाताप को देखकर उन्हें नष्ट करने का विचार त्याग देता है। नवी योनस की चेतावनी से पहले उन्होंने ग़लत रास्ता क्यों नहीं छोड़ा? जब उन्हें उनका अंत दिखाई दिया तभी क्यों वे कुमार्ग छोड़ना चाहते थे? वे यह जानकर भयभीत हो गए कि अब उनका अन्त आ गया है, अब उन्हें ईश्वर का सामना करना पड़ेगा। हमारा मानव स्वभाव अंत तक टालते रहने का स्वभाव है, हम आख़िर में ही कुछ करते हैं।

आज प्रभु येसु हम में से प्रत्येक व्यक्ति से कहते हैं, ‘समय पूरा हो चुका है, पश्चाताप करो और सुसमाचार में विश्वास करो।’ ईश्वर के पास लौटने का सही समय आज और अभी है। क्या हम येसु मसीह का सामना करने के लिए तैयार हैं? हम अपने हृदय में झाँकें - क्या मैं ईश्वर के रास्ते पर हूँ? क्या मेरे जीवन में कुछ सुधार होना बाक़ी है? ये शब्द हमारे हृदय में गूंजते रहने चाहिए, ‘समय पूरा हो चुका है, पश्चाताप करो और ईश्वर के पास लौट आओ।’ आमेन।

-फादर जॉन्सन बी. मरिया (ग्वालियर धर्मप्रान्त)


📚 REFLECTION


Today is the third Sunday in ordinary time and it is celebrated as the ‘Word of God Sunday.’ The readings today tell us how the Word of God is effective in our lives and how God waits patiently for us to change. Everybody is aware of one eternal truth, and that truth is ‘that one day we all have to face our death.’ But we do not know the time of it. When will the death come, no one knows, now, tomorrow, next month or after 10 years? Since we do not know, and we have no “deadline” of our life here on earth, so we do not prepare to face it. We do not prepare to meet God. We continue in the preparation time till we die.

In the first reading we see, people were busy in their sinful life, but when Jonah announced that after 40 days, it all will end, because God was going to destroy their city Nineveh, they got panicked, and started to fast and repent. They all repented, even small children to old-age people, all fasted and repented. They even made the animals to fast. Their fasting and sack clothes were the indication that they were sorry for their wrongdoings, now they wanted to leave their old ways and change their lives according to God’s will. God, seeing their sincere repentance gave up the idea of destroying them. Why didn't they mend their ways before the warning of Jonah? Why did they act only when a deadline was given to them? They panicked only when they saw that their time is over, they will meet their end. Our nature is to wait for the deadline, to wait for the given time to be over and then only we start to act.

Today Jesus tells each and everyone of us, ‘the time is over, repent and believe in the gospel.’ Today and now is the right time to return to God. Are we prepared to meet Jesus? Let us look into our hearts and lives - is my life straight? Is there anything that I need to set right? Let these words ring into our ears "the time is over, repent and return to God.” Amen.

-Fr. Johnson B.Maria (Gwalior)

मनन-चिंतन - 3

आज के पाठों में हम देखते हैं कि ईश्वर मनुष्य को अपने ही जीवन के सहभागी बनाते हैं। परन्तु पाप कर मनुष्य ईश्वर से दूर चला जाता है। फिर भी ईश्वर उसे उनके पास लौटने का मौका प्रदान करते हैं।

पापी मनुष्य को पश्चात्ताप के लिए प्रेरित करने हेतु प्रभु ईश्वर कुछ सहयोगियों को चुनते हैं। आज का पहले पाठ हमें बताता है कि ईश्वर ने निनीवे के लोगों को पश्चात्ताप का सन्देश सुनाने के लिए नबी योना को चुनते हैं। योना शुरू में तो इस बुलाहट को अस्वीकार करते हैं। वे निनीवे के बदले तरशीश जाने का मन बनाता है। परन्तु रास्ते में उसे बहुत-सी कठिनाईयों तथा बाधाओं का सामना करना पडता है।

“ईश्वर न तो अपने वरदान वापस लेता और न अपना बुलावा रद्द करता है” (रोमियों 11:29)। ईश्वर उनका पीछा नहीं छोडते हैं। ईश्वर द्वारा दूसरी बार बुलाये जाने पर योना ईश्वर का वचन सुनाने के अपने कार्य को ठीक से करते हैं। इस के फलस्वरूप निनीवे के राजा और नागरिक पश्चात्ताप करते हैं। इस पर ईश्वर द्रवित हो कर महानगर निनीवे को विपत्तियों से बचाते हैं।

सुसमाचार में प्रभु येसु स्वयं पश्चात्ताप का सन्देश सुनाते हैं। इसी कार्य में शामिल होने के लिए वे कुछ साधारण लोगों को चुनते और बुलाते हैं। वे सिमोन और उसके भाई अन्द्रेयस को बुलाते हैं, और याकूब और उसके भाई योहन को भी। प्रभु ने उन से कहा, “मेरे पीछे चले आओ। मैं तुम्हें मनुष्यों के मछुए बनाऊँगा” (मारकुस 1:17)।

किसी भी कार्य को ठीक से कारने के लिए हमें उस कार्य का ज्ञान और अनुभव प्राप्त करना चाहिए, उस कार्य के विभिन्न तरीके समझना चाहिए तथा उस के लिए सक्षम बनना चाहिए। ये मछुए मछली पकडने के लिए सक्षम थे। प्रभु येसु चाहते हैं कि वे इस क्षमता और अनुभव को एक आध्यात्मिक कार्य के लिए इस्तेमाल करें। वे मछली के मछुए थे। अब उन्हें मनुष्यों के मछुए बनना चाहिए।

प्रभु चाहते हैं कि प्रेरित अपने प्रेरिताई कार्य में अपनी क्षमताओं तथा प्रतिभाओं का उपयोग करें। इन चुने हुए लोगों को प्रभु येसु ने अपने ही समान सुसमाचार सुनाने का कार्य सौंप दिया। जो भी लोग सुसमाचार को सुन कर उसे ग्रहण करते हैं, उनके हृदय में पश्चात्ताप उत्पन्न होता है और वे ईश्वर के पास लौट जाते हैं। ईश्वर हमारे साथ रहना चाहते हैं। प्रभु येसु का नाम ही एम्मानुएल है (मत्ती 1:23) जिसका अर्थ है “ईश्वर हमारे साथ है”।

प्रभु ईश्वर चाहते हैं हम हमेशा उनके साथ रहें क्योंकि उसी में हमारा कल्याण है। मनुष्य पाप कर ईश्वर के साथ रहने से इनकार करता है। जब वह पश्चात्ताप करता है, तब वह ईश्वर के साथ रहने लगते हैं। हमें पापों से बचाने के लिए ही प्रभु येसु इस दुनिया में आये। उन्होंने हमें पापों से बचाने के लिए ही दुखभोग और क्रूस-मरण को स्वीकार किया। प्रभु येसु द्वारा प्राप्त मुक्ति को अपनाने के लिए हमें अपने पापों को छोड कर पश्चात्ताप कर येसु के पास पुन: लौटना चाहिए। “प्रज्ञा उस आत्मा में प्रवेश नहीं करती, जो बुराई की बातें सोचती है और उस शरीर में निवास नहीं करती, जो पाप के अधीन है; क्योंकि शिक्षा प्रदान करने वाला पवित्र आत्मा छल-कपट से घृणा करता है। वह मूर्खतापूर्ण विचारों को तुच्छ समझता और अन्याय से अलग रहता है।” (प्रज्ञा 1:4-5)

सुसमाचार हमारी मुक्ति का सन्देश है और इसलिए वह खुश खबरी है, आनन्द का समाचार है। हम अपने पापों के लिए पश्चात्ताप कर इस सुसमाचार को ग्रहण करें।

- फादर फ्रांसिस स्करिया