6) जब दाऊद फ़िलिस्ती को मारने के बाद सेना के साथ लौटा, तो स्त्रियाँ इस्राएल के सब नगरों से निकल कर नाचते-गाते, डफली और झाँझ बजाते और जयकार करते हुए राजा साऊल की अगवानी करने गयीं।
7) वे नाचती हुई यह गा रही थीं- साऊल ने सहस्रों को मारा और दाऊद ने लाखों को।
8) साऊल यह सुन कर बुरा मान गया और बहुत अधिक क्रुद्ध हुआ। उसने अपने से कहा, ‘‘उन्होंने दाऊद को लाखों दिया और मुझे केवल सहस्रों को। अब राज्य के सिवा उसे किस बात की कमी है?’’
9) उस समय से साऊल दाऊल को ईर्ष्या की दृष्टि से देखने लगा।
1) साऊल ने दाऊल की हत्या के विषय में अपने पुत्र योनातान और अपने सब दरबारियों से बातचीत की। साऊल का पुत्र योनातान दाऊद को बहुत प्यार करता था;
2) इसलिए उसने दाऊद से कहा, ‘‘मेरे पिता साऊल तुम को मार डालना चाहते हैं। कल सबेरे सावधान रहो। तुम किसी जगह छिप जाओ।
3) और मैं शहर से निकल कर उस मैदान में, जहाँ तुम होगे, अपने पिता के पास रहूँगा और तुम्हारे विषय में अपने पिता से बात करूँगा। जो कुछ मालूम होगा, मैं तुम्हें बता दूँगा।’’
4) योनातान ने दाऊद का पक्ष ले कर अपने पिता से यह कहा, ‘‘राजा अपने सेवक दाऊद के साथ अन्याय न करें; क्योंकि उसने आपके विरुद्ध कोई पाप नहीं किया। उलटे; उसने जो कुछ किया, उस से आप को बड़ा लाभ हुआ।
5) उसने अपनी जान हथेली पर रख कर उस फ़िलिस्ती को मारा और इस प्रकार प्रभु ने सारे इस्राएल को महान् विजय दिलायी! आपने यह देखा और आनन्द मनाया। अब आप क्यों अकारण ही दाऊद को मार कर निर्दोष रक्त बहाना चाहते हैं?’’
6) साऊल ने योनातान की बात मान ली और शपथ खा कर कहा, ‘‘जीवन्त ईश्वर की शपथ! दाऊद नहीं मारा जायेगा।’’
7) इसके बाद योनातान ने दाऊद को अपने पास बुलाया और उसे ये सभी बातें बतायी। योनातान दाऊद को साऊल के पास ले आया और वह फिर पहले की तरह साऊल के साथ रहने लगा।
7) ईसा अपने शिष्यों के साथ समुद्र के तट गये। गलीलिया का एक विशाल जनसमूह उनके पीछे-पीछे हो लिया। यहूदिया,
8) येरुसालेम, इदूमैया, यर्दन के उस पार, और तीरूस तथा सीदोन के आस-पास से भी बहुत-से लोग उनके पास इकट्ठे हो गये; क्योंकि उन्होंने उनके कार्यों की चर्चा सुनी थी।
9) भीड़ के दबाव से बचने के लिए ईसा ने अपने शिष्यों से कहा कि वे एक नाव तैयार रखें;
10) क्योंकि उन्होंने बहुत-से लोगों को चंगा किया था और रोगी उनका स्पर्श करने के लिए उन पर गिरे पड़ते थे।
11) अशुद्ध आत्मा ईसा को देखते ही दण्डवत् करते और चिल्लाते थे-’’आप ईश्वर के पुत्र हैं’’;
12) किन्तु वह उन्हें यह चेतावनी देते थे कि तुम मुझे व्यक्त मत करो।
मारकुस के सुसमाचार के अध्याय 3 की पद-संख्याएं 7-12। इन छंदों में, हम येसु के चारों ओर इकट्ठा हुई भारी भीड़ को देखते हैं। मारकुस हमें बताता है कि हर जगह से लोग - गलीलिया, यहूदिया, यरूशलेम, इदुमिया और यर्दन के पार से - येसु के पास आते थे। क्यों? क्योंकि उन्होंने उन अविश्वसनीय कामों के बारे में सुना जो वह कर रहे थे। उन्होंने येसु के चंगाईदायक स्पर्श के बारे में सुना, जो आशा और पुनर्स्थापना ला सकता था। भीड़ इतनी अधिक थी कि भीड़ को कुचलने से रोकने के लिए येसु को एक छोटी नाव तैयार रखने के लिए कहना पड़ा। सबसे पहले, यह हमें शारीरिक और आध्यात्मिक दोनों तरह से चंगाई की हमारी मानवीय आवश्यकता की याद दिलाता है। उस भीड़ की तरह, हम भी अपने जीवन में येसु के स्पर्श के लिए तरसते हैं, एक ऐसा स्पर्श जो हमारे घावों को ठीक करता है और हमारी आत्माओं को आराम देता है। दूसरे, यह येसु के सेवाकार्य की समावेशिता पर जोर देता है। विभिन्न क्षेत्रों, पृष्ठभूमियों और जीवन के क्षेत्रों से लोग उनके पास आए। इससे हमें पता चलता है कि येसु का प्रेम और उपचार सभी के लिए है। उनकी दयालु पहुंच से कोई भी अछूता नहीं है। आइए हम अपने आप से पूछें: क्या हम उस भीड़ की तरह हैं, जो अपने जीवन में येसु के चंगाईदायक स्पर्श की तलाश कर रहे हैं? क्या हम उनका प्यार और अनुग्रह प्राप्त करने के लिए तैयार हैं? और, क्या हम उस प्यार को दूसरों के साथ साझा करने के इच्छुक हैं, जैसे येसु ने अपनी उपस्थिति में सभी का स्वागत किया था?
✍ - फादर पॉल राज (भोपाल महाधर्मप्रान्त)
The Gospel of Mark, chapter 3, verses 7-12. In these verses, we witness the overwhelming crowds that gathered around Jesus. Mark tells us that people from all over – from Galilee, Judea, Jerusalem, Idumea, and beyond the Jordan – flocked to Jesus. Why? Because they heard of the incredible things He was doing. They heard about the healing touch of Jesus, the One who could bring hope and restoration. The crowds were so immense that Jesus had to ask for a small boat to be kept ready to prevent the pressing crowd from crushing Him. Firstly, it reminds us of our human need for healing, both physically and spiritually. Like those crowds, we also yearn for the touch of Jesus in our lives a touch that brings healing to our wounds and comfort to our souls. Secondly, it emphasizes the inclusivity of Jesus’ ministry. People from different regions, backgrounds, and walks of life came to Him. This shows us that the love and healing Jesus offers are for everyone. No one is excluded from His compassionate reach. let’s ask ourselves: Are we like those crowds, seeking the healing touch of Jesus in our lives? Are we open to receiving His love and grace? And, are we willing to share that love with others, just as Jesus welcomed everyone into His presence?
✍ -Fr. Paul Raj (Bhopal Archdiocese)
आज के सुसमाचार में हम येसु के एक व्यस्त दिन को देखते हैं। उन्होंने सुसमाचार का प्रचार किया, बीमारों को चंगा किया और लोगों को दुष्टात्माओं के कब्जे में से निकाला। येसु नाज़रथ के सभागृह में अपने घोषणापत्र मंै घोषित किए गए कार्यों में व्यस्त थे (देखिए लूकस 4:16-21)। जब हमारे पास स्पष्ट लक्ष्य और दृष्टिकोण होते हैं और हम उन्हें प्राप्त करने के तरीकों और साधनों में व्यस्त हो जाते हैं, तब हमारा जीवन सार्थक बन जाता है। येसु ने बहुत अर्थपूर्ण जीवन जिया। हमें अपने विश्वास के सार के बारे में अपने आप को याद दिलाने की जरूरत है। मीकाह 6:8 में हम पढ़ते हैं, "मनुष्य! तुम को बताया गया है कि उचित क्या है और प्रभु तुम से क्या चाहता है। यह इतना ही है- न्यायपूर्ण व्यवहार, कोमल भक्ति और ईश्वर के सामने विनयपूर्ण आचरण।” क्या हम अपने विश्वास और आध्यात्मिकता के सार के बारे में चिंतित हैं या बेकार की बातों में व्यस्त हैं?
✍ - फादर फ्रांसिस स्करिया
We witness a hectic day of Jesus in today’s Gospel. He preached the Word, healed the sick and casted out the demons from those who were possessed. Jesus was busy with the tasks entrusted to him as he declared in his manifesto in the synagogue of Nazareth (cf. Lk 4:16-21). Once we have a clear aim and a vision and occupy ourselves with the ways and means to achieve them, our life becomes meaningful. Jesus lived a very meaningful life. We need to remind ourselves about the essence of our faith. In Micah 6:8 we read, “He has told you, O mortal, what is good; and what does the Lord require of you but to do justice, and to love kindness, and to walk humbly with your God?” Are we concerned about the essence of our faith and spirituality or are we occupied with superficialities?
✍ -Fr. Francis Scaria
आज के पहले पाठ में हम पाते हैं कि साऊल को दाऊद से जलन थी। साऊल यह स्वीकार नहीं कर सका कि इस्राएल के शहरों की महिलाओं ने साऊल की तुलना में दाऊद की अधिक प्रशंसा की। ईर्ष्या धीरे-धीरे क्रोध में बदल गई और साऊल ने दाऊद को नुकसान पहुंचाने और मारने का अवसर खोजा। ईर्ष्या एक अत्यंत खतरनाक बुराई है। सूक्ति 27: 4 में लिखा है, “क्रोध क्रूर होता है और उन्माद दुर्दमनीय; किन्तु ईर्ष्या के सामने कौन टिक सकता है?” साऊल, वास्तव में, गोलियत का मुकाबला करने में असमर्थ था। ईश्वर पर भरोसा रखने वाले छोटे लड़के के रूप में दाऊद ने गोलियत द्वारा दी गई चुनौती का सामना किया। स्वाभाविक रूप से इस कार्य ने उन्हें प्रशंसा दिलाई। हालाँकि साऊल राजा था, वह एक हीन भावना से पीड़ित था। उसने दाऊद की तरह आगे बढ़ने की कोशिश करने के बजाय, दाऊद का विनाश करने की कोशिश की। ईर्ष्या एक अविश्वसनीय रूप से शक्तिशाली भावना है जो एक व्यक्ति को अपराधी बना सकती है। यह हमारी शांति और खुशी को छीन सकती है। ईर्ष्या दुःख और क्रोध को आमंत्रित करती है। यह हमारी कर्तव्यपरायणता और उत्पादकता को भी प्रभावित कर सकता है। इसका लक्ष्य दूसरों का विनाश है, लेकिन यह स्वयं का ही विनाश करता है। आइए हम प्रभु से प्रार्थना करें कि वे हमें दुनिया की सभी अच्छाईयों को स्वीकार करने और उनकी सराहना करने में सक्षम बनायें।
✍ -फादर फ्रांसिस स्करिया
In today’s first reading we find that King Saul was jealous of David. Saul could not accept that the women of the towns of Israel lavished more praises on David than on Saul. Jealousy gradually turned into anger and Saul looked for an opportunity to harm and kill David. Jealousy is an extremely dangerous evil. Proverbs 27:4 reads, “Wrath is cruel, anger is overwhelming, but who is able to stand before jealousy?” Saul was, in fact, incapable of taking on Goliath. David even as a little boy trusting in God faced the challenge thrown by Goliath. Naturally it brought him admiration and praises. Saul, although he was king, suffered from an inferiority complex. Instead of trying to grow like David, he tried to destroy David. Jealousy is an incredibly powerful emotion that can make you a criminal. It can take away your peace and happiness. Jealousy invokes sadness and anger. It can affect your dutifulness and productivity. It aims at the destruction of others but ends up being self-destructive. Let us pray to the Lord that he may enable us to accept and appreciate all goodness in the world no matter where and in whom it is found.
✍ -Fr. Francis Scaria