3) समूएल प्रभु के मन्दिर में, जहाँ ईश्वर की मंजूषा रखी हुई थी, सो रहा था।
4) प्रभु ने समूएल को पुकारा। उसने उत्तर दिया, ‘‘मैं प्रस्तुत हूँ’’
5) और एली के पास दौड़ कर कहा, ‘‘आपने मुझे बुलाया है, इसलिए आया हूँ।’’ एली ने कहा, ‘‘मैंने तुम को नहीं बुलाया। जा कर सो जाओ।’’ वह लौट कर लेट गया।
6) प्रभु ने फिर समूएल को पुकारा। उसने एली के पास जा कर कहा, ‘‘आपने मुझे बुलाया है, इसलिए आया हूँ।’’ एली ने उत्तर दिया, ‘‘बेटा! मैंने तुम को नहीं बुलाया। जा कर सो जाओ।’’
7) समूएल प्रभु से परिचित नहीं था - प्रभु कभी उस से नहीं बोला था।
8) प्रभु ने तीसरी बार समूएल को पुकारा। वह उठ कर एली के पास गया और उसने कहा, ‘‘आपने मुझे बुलाया, इसलिए आया हूँ।’’ तब एली समझ गया कि प्रभु युवक को बुला रहा है। 9) एली ने समूएल से कहा, ‘‘जा कर सो जाओ। यदि तुम को फिर बुलाया जायेगा, तो यह कहना, ‘प्रभु! बोल तेरा सेवक सुन रहा है।’ समूएल गया और अपनी जगह लेट गया।
10) प्रभु उसके पास आया और पहले की तरह उसने पुकारा, ‘‘समूएल! समूएल!’’ समूएल ने उत्तर दिया, ‘‘बोल, तेरा सेवक सुन रहा है।’’
19) समूएल बढ़ता गया, प्रभु उसके साथ रहा और उसने समूएल को जो वचन दिया थे, उन में से एक को भी मिट्टी में नहीं मिलने दिया
13) किन्तु शरीर व्यभिचार के लिए नहीं, बल्कि प्रभु के लिए है और प्रभु शरीर के लिए।
14) ईश्वर ने जिस तरह प्रभु को पुनर्जीवित किया, उसी तरह वह हम लोगों को भी अपने सामर्थ्य से पुनर्जीवित करेगा।
15) क्या आप लोग यह नहीं जानते कि आपके शरीर मसीह के अंग है?
17) किन्तु जिसका मिलन प्रभु से होता है, वह उसके साथ एक आत्मा बन जाता है।
18) व्यभिचार से दूर रहें। मनुष्य के दूसरे सभी पाप उसके शरीर से बाहर हैं, किन्तु व्यभिचार करने वाला अपने ही शरीर के विरुद्ध पाप करता है।
19) क्या आप लोग यह नहीं जानते कि आपका शरीर पवित्र आत्मा का मन्दिर है? वह आप में निवास करता है और आप को ईश्वर से प्राप्त हुआ है। आपका अपने पर अधिकार नहीं है;
20) क्योंकि आप लोग कीमत पर खरीदे गये हैं। इसलिए आप लोग अपने शरीर में ईश्वर की महिमा प्रकट करें।
35) दूसरे दिन योहन फिर अपने दो शिष्यों के साथ वहीं था।
36) उसने ईसा को गुज़रते देखा और कहा, ‘‘देखो- ईश्वर का मेमना!’
37) दोनों शिष्य उसकी यह बात सुन कर ईसा के पीछे हो लिये।
38) ईसा ने मुड़ कर उन्हें अपने पीछे आते देखा और कहा, ‘‘क्या चाहते हो?’’ उन्होंने उत्तर दिया, ‘‘रब्बी! ’’ (अर्थात गुरुवर) आप कहाँ रहते हैं?’’
39) ईसा ने उन से कहा, ‘‘आओ और देखो’’। उन्होंने जा कर देखा कि वे कहाँ रहते हैं और उस दिन वे उनके साथ रहे। उस समय शाम के लगभग चार बजे थे।
40) जो योहन की बात सुन कर ईसा के पीछे हो लिय थे, उन दोनों में एक सिमोन पेत्रुस का भाई अन्द्रेयस था।
41) उसने प्रातः अपने भाई सिमोन से मिल कर कहा, ‘‘हमें मसीह (अर्थात् खीस्त) मिल गये हैं’’
42) और वह उसे ईसा के पास ले गया। ईसा ने उसे देख कर कहा, ‘‘तुम योहन के पुत्र सिमोन हो। तुम केफस (अर्थात् पेत्रुस) कहलाओगे।’’
हम एक खूबसूरत यात्रा की शुरुआत को देख रहे हैं। योहन बपतिस्ता अपने दो शिष्यों के साथ खड़ा है, और जैसे ही येसु पास से गुजरे, योहन ने उनकी ओर इशारा करते हुए कहा, "देखो, ईश्वर का मेमना"। वे शिष्य, जिज्ञासु और प्रेरित होकर, येसु का अनुसरण करना शुरू कर देते हैं। उनमें से एक अन्द्रयस, सिमोन पेत्रुस का भाई है। अन्द्रयस, येसु के साथ कुछ समय बिताने के बाद, इस मुलाकात से इतना प्रभावित हुआ कि उसने अपने भाई की तलाश की और घोषणा की, "हमें मसीहा मिल गया है"। अन्द्रयस का उत्साह संक्रामक है, और सिमोन पेत्रुस ने भी येसु का अनुसरण करने का फैसला किया। येसु हमें आने और देखने, उनका अनुसरण करने के लिए आमंत्रित करते हैं। जिस तरह अन्द्रयस और अन्य शिष्यों ने येसु की पुकार का जवाब दिया, हमें भी अपने जीवन में उनकी पुकार का जवाब देने के लिए आमंत्रित किया गया है। अन्द्रयस की तत्काल प्रतिक्रिया उल्लेखनीय है। वह खुशखबरी को अपने तक ही सीमित नहीं रखता, बल्कि वह इसे अपने भाई, पेत्रुस के साथ साझा करता है। हमारी विश्वास-यात्रा में, येसु से मिलने की खुशी को दूसरों के साथ साझा करना आवश्यक है। जब शिष्यों ने उनसे पूछा कि वह कहाँ रह रहे हैं, तो येसु ने उन्हें वापस नहीं भेजा। इसके बजाय, वह उन्हें आने और देखने के लिए आमंत्रित करते हैं। आइए येसु के आह्वान के प्रति हमारी प्रतिक्रिया पर विचार करें। क्या हम उनका अनुसरण करने, उसके साथ समय बिताने और अपने विश्वास का आनंद दूसरों के साथ साझा करने के इच्छुक हैं? येसु हममें से प्रत्येक को उसके साथ एक गहरे रिश्ते में आमंत्रित करना जारी रखता है। क्या हम उसी उत्सुकता और खुशी के साथ प्रतिक्रिया दे सकते हैं जैसे अन्द्रयस और पेत्रुस ने उस दिन किया था।
✍ - फादर पॉल राज (भोपाल महाधर्मप्रान्त)
We encounter the beginning of a beautiful journey. John the Baptist stands with two of his disciples, and as Jesus walks by, John points to Him, saying, “Behold, the Lamb of God” Those disciples, curious and inspired, begin to follow Jesus. One of them is Andrew, Simon Peter’s brother. Andrew, after spending time with Jesus, is so moved by the encounter that he seeks out his brother and declares, “We have found the Messiah” Andrew’s excitement is contagious, and Simon Peter decides to follow Jesus as well. Jesus invites us to come and see, to follow Him. Just as Andrew and the other disciples responded to Jesus’ call, we too are invited to respond to His call in our lives. Andrew’s immediate response is noteworthy. He doesn’t keep the good news to himself instead, he shares it with his brother, Peter. In our faith journey, it’s essential to share the joy of encountering Jesus with others. When the disciples ask Him where He is staying, Jesus doesn’t send them away. Instead, He invites them to come and see. let’s consider our response to Jesus’ call. Are we willing to follow Him, to spend time with Him, and to share the joy of our faith with others? Jesus continues to invite each one of us into a deeper relationship with Him. May we respond with the same eagerness and joy as Andrew and Peter did on that day.
✍ -Fr. Paul Raj (Bhopal Archdiocese)
आज सामान्य काल का दूसरा रविवार है। हमारे मनन चिंतन का आज का विषय हैं ईश्वर की उपस्थिति में रहना।आज का पहला पाठ हमें बताता है कि किस तरह सामुएल प्रभु के मंदिर में सोते हुए प्रभु की आवाज़ सुनता है और अपने गुरू एली के निर्देश अनुसार प्रभु की वाणी का उत्तर देता है। दूसरे पाठ में संत पौलुस हमें अपने शरीर के प्रति अशुद्धता के बारे में चेतावनी देते हैं कि हमारा शरीर पवित्र आत्मा का मंदिर है इसलिए इसे हमें पवित्र रखना है। आज के सुसमाचार हैं हम देखते हैं कि कुछ शिष्य लोग प्रभु यीशु के पीछे पीछे आते हैं, और प्रभु येसु उन्हें अपने साथ रहने के लिए बुलाते हैं और वे लोग प्रभु येसु के साथ कुछ समय बिताते हैं और प्रभु यीशु को गहराई से जानने का प्रयास करते हैं।
क्या कोई ऐसा स्थान है जहाँ ईश्वर नहीं है? क्या कोई ऐसा व्यक्ति है जिसमें ईश्वर निवास नहीं करता? हम उस दुनियाँ में रहते हैं जिसे स्वयं ईश्वर ने बनाया है। इस सृष्टि की प्रत्येक वस्तु, प्रत्येक जीव-जन्तु, पृथ्वी का कण -कण उसी अपने सृष्टिकर्ता की छाप लिए हुए है। उस महान ईश्वर की उपस्थिति आसमान की ऊँचाइयों में है, पृथ्वी के कोने-कोने में है। स्तोत्रकार कहता है, “यदि मैं आकाश तक चढ़ूँ तो तू वहाँ है। यदि मैं अधोलोक में लेटूँ, तो तू वहाँ है।” (स्तोत्र १३९:८)। हमारी हर साँस हमें उसकी याद दिलाती है, क्योंकि ये साँसें उसी की दी हुई हैं (उत्पत्ति २:७)। उसी का वास हर कण में है, और वही सबके दिलों में रहता है। लेकिन सवाल उठता है कि फिर क्यों कुछ लोग ऐसे व्यवहार करते हैं मानो उनके अन्दर ईश्वर निवास नहीं करता है? अथवा हम अपने अन्दर उसकी उपस्थिति को कैसे पहचान सकते हैं?
अक्सर ऐसा होता है कि ईश्वर तो हममें निवास करता है, लेकिन हम ईश्वर में निवास नहीं करते। ईश्वर की उपस्थिति को गहराई से महसूस करने के लिए हमें सामुएल की तरह प्रभु के मन्दिर में निवास करना होगा। हम कितनी बार परम पवित्र संस्कार में उपस्थित प्रभु येसु के दर्शन करने चर्च जाते हैं? भले ही हम चर्च आते हैं, लेकिन कितनी बार हम प्रभु की आवाज़ सुनने के लिए सामुएल की भाँति अपने कान और हृदय खुले रखते हैं? वह हर पल हमें हमारे नाम से पुकारता है, लेकिन हम उसकी पुकार को सुन नहीं पाते क्योंकि हम संसार की अनेक बातों में व्यस्त हो जाते हैं। जब तक हमारा मन शान्त नहीं होगा तब तक हम उसकी पुकार को नहीं सुन सकते, क्योंकि प्रभु कहता है, “शान्त हो, और जान लो कि मैं ही ईश्वर हूँ।” (स्तोत्र ४६:१०)।
आइए हम उसकी पुकार को सुनने के लिए अपने मन और हृदय खुले रखें, और उसके बुलावे को सुनें, “आओ और देखो और मेरे साथ रहो।” तभी हम उनकी उपस्थिति को गहराई से महसूस कर पाएँगे और हमारा जीवन पूर्ण रूप से बदल जाएगा। वह हमारी सारी चिन्ताएँ अपने ऊपर ले लेगा। उसकी उपस्थिति हमारे मन और आत्मा को शांति और शक्ति प्रदान करेगी। आमेन।
✍ -फादर जॉन्सन बी. मरिया (ग्वालियर धर्मप्रान्त)
Today is the second Sunday in ordinary time. Today's focus for our reflection is ‘being in the presence of God.’ First reading gives us the glimpse of young Samuel sleeping in the Lord's temple and hearing him calling his name and with the guidance of his Guru Eli, he responds to God’s voice. In the second reading St. Paul warns us about the immorality against body because our body is the temple of the Holy Spirit. And in the gospel we see some disciples come behind Jesus and Jesus invites them to come and see where he stayed, and they stayed with him and realised that Jesus is the Christ.
Is there any place where God is not there? Is there any person in whom there is no dwelling of God? We live in a world which is created by God himself. Each created being, each created creature, each particle of the creation bears the mark of God, its creator. God is there in skies high above, he is there in every corner of the earth. He is there even in great depths. The Psalmist says, "If I ascend to heavens, you are there; if I make my bed in the depths, you are there.” (Ps 139:8). Every breath of ours reminds us of his presence, because it is his breath, he has given us. (Gen 2:7). So his presence is everywhere and he lives within everyone. But the question may arise, then why many people behave as if God doesn't dwell in them? Or how do we become aware of his presence within us?
Very often God is within us but we fail to remain within God. To experience God’s presence deeply we need to live in the house of God like Samuel. How often do we visit Jesus in the Blessed Sacrament? Even though we come to the church, how often do we keep our ears and heart open to listen to God’s voice like Samuel? He always calls us with our name, but we fail to hear him calling because we are disturbed and busy with many things. We cannot feel his presence and hear his voice till we quieten ourselves, because he says, "Be still, and know, that I am God.” (Ps 46:10).
Let us open our ears and hearts to hear his voice within us and listen to his call, "Come and see and stay with me.” Then we will experience him deeply and our life will change totally. He will take care of everything which worries us. Being in his presence will recharge us and refresh our soul. Amen.
✍ -Fr. Johnson B.Maria (Gwalior)
आज के पाठों में हम शिष्यों की बुलाहट के बारे में सुनते हैं। पहले पाठ में हम देखते हैं कि बालक समूएल प्रभु के मन्दिर में, जहाँ ईश्वर की मंजूषा रखी हुई थी, सो रहा था। तब प्रभु ने उनको बुलाया, लेकिन बालक ने सोचा कि याजक एली ने उन्हें बुलाया। इसलिए समूएल ने एली के पास जा कर कहा, ‘‘आपने मुझे बुलाया है, इसलिए आया हूँ।’’ एली ने कहा, “मैंने तुम को नहीं बुलाया। जा कर सो जाओ।’’ वह लौट कर लेट गया। प्रभु ने दूसरी बार बालक को पुकारा। समूएल फिर से एली के पास गय़ॆ। एली ने उन्हें फिर से वापस भेजा। प्रभु ने तीसरी बार उन्हें पुकारा। इस बार एली समझ गया कि प्रभु बालक को बुला रहे हैं। इसलिए उन्होंने बालक से कहा, “जा कर सो जाओ। यदि तुम को फिर बुलाया जायेगा, तो यह कहना, ‘प्रभु! बोल तेरा सेवक सुन रहा है।’ समूएल गया और अपनी जगह लेट गया। प्रभु ने पहले की तरह उन्हें पुकारा, ‘‘समूएल! समूएल!’’ समूएल ने उत्तर दिया, ‘‘बोल, तेरा सेवक सुन रहा है।’’ उस समय से समूएल ईश्वर के विश्वस्त सेवक बने रहे।
इस प्रकार एली ने समूएल को अपनी बुलाहट और ईश्वर से मुलाकात को भली भाँति समझने के लिए मार्गदर्शन दिया। इस प्रकार समूएल के ईशसेवा के कार्य में याजक एली का बडा योगदान रहा।
इसी प्रकार आज के सुसमाचार में हम देखते हैं कि संत योहन बपतिस्ता अपने दो शिष्यों को प्रभु येसु के शिष्य बनने के लिए प्रेरित करते हैं। उन में से एक अन्द्रेयस कुछ समय येसु के साथ बिताने के बाद अपने भाई सिमोन का येसु से परिचय कराते हैं। येसु सिमोन को पेत्रुस नाम दे कर उन्हें प्रेरितों का अगुआ बनाते हैं। एली और योहन बपतिस्ता हमारे सामने एक आदर्श व्यवहार प्रस्तुत करते हैं। ये दोनों वास्तव में अपने शिष्यों को अपने अधीन करने के बजाय उन्हें ईश्वर के दर्शन तथा ईश्वर की सेवा के लिए प्रेरित करते हैं।
प्रेरित-चरित, अध्याय 9 में हम पढ़ते हैं कि साऊल अपने मनपरिवर्तन के बाद येरूसालेम पहुँच कर प्रभु येसु के शिष्यों के समुदाय में शामिल होने की कोशिश करता रहा। लेकिन शिष्यों ने उन्हें शामिल नहीं किया क्योंकि उन्हें विश्वास नहीं हो रहा था कि वास्तव में साऊल का मनपरिवर्तन हुआ है। तब बरनाबस ने उसे प्रेरितों के पास ले जा कर उन्हें बताया कि साऊल ने मार्ग में प्रभु के दर्शन किये थे और प्रभु ने उस से बात की थी और यह भी बताया कि साऊल ने दमिश्क में निर्भीकता से ईसा के नाम का प्रचार किया था। फिर साऊल बरनाबस के सहयोगी के रूप में सेवा कार्य करने लगते हैं। बाद में बरनाबस स्वयं साऊल के सहयोगी के रूप में सेवा कार्य करने लगते हैं।
इन सब में हम यह देखते हैं कि सुसमाचार के सच्चे सेवक लोगों को प्रभु की ओर ले जाते हैं। वे कभी भी लोगों को अपने आप तक सीमित नहीं रखते हैं।
रोमियों के नाम पत्र में संत पौलुस नबी इसायाह के ग्रन्थ के वचन को दोहराते हुए कहते हैं, “शुभ सन्देश सुनाने वालों के चरण कितने सुन्दर लगते हैं “ (रोमियों 10:15)! प्रभु येसु ने भी अपने शिष्यों से कहा, फसल तो बहुत है, परन्तु मज़दूर थोड़े हैं। इसलिए फ़सल के स्वामी से विनती करो कि वह अपनी फ़सल काटने के लिए मज़दूरों को भेजे।“ (मत्ती 9:37-38)
गणना ग्रन्थ अध्याय 11 में हम देखते हैं कि मूसा ने सत्तर वयोवृद्धों को बुला कर दर्शन-कक्ष के आसपास खड़ा कर दिया। तब प्रभु ने मूसा की शक्ति का कुछ अंश उन सत्तर वयोवृद्धों को प्रदान किया। इसके फलस्वरूप उन्हें एक दिव्य प्रेरणा का अनुभव हुआ और वे भविष्यवाणी करने लगे। इनके अलावा एलदाद तथा मेदाद नाम के दो पुरुष शिविर में रह गये थे। उन्हें वहीं दिव्य प्रेरणा का अनुभव हुआ और वे शिविर में ही भविष्यवाणी करने लगे। एक नवयुवक दौड़ कर मूसा से यह कहने आया - ''एलदाद और मेदाद शिविर में भविष्यवाणी कर रहे हैं''। मूसा के पास खडे योशुआ ने यह कह कर अनुरोध किया, ''मूसा! गुरूवर! उन्हें रोक दीजिए।'' इस पर मूसा ने उसे उत्तर दिया, ''क्या तुम मेरे कारण ईर्ष्या करते हो? अच्छा यही होता कि प्रभु सब को प्रेरणा प्रदान करता और प्रभु की सारी प्रजा भविष्यवाणी करती।''
इस प्रकार पवित्र बाइबिल ईश्वर के महान सेवकों के आदर्श जीवन को हमारे सामने रखते हुए हमें यह शिक्षा देती है कि हमें सभी लोगों के साथ मिल कर ईश्वर की सेवा करना चाहिए। कभी भी लोगों को अपनी ओर आकर्षित करने की कोशिश नहीं करना चाहिए। संत योहन प्रभु येसु की बढ़ती ख्याति पर आनन्द मनाते हुए कहते हैं, “यह उचित है कि वे बढ़ते जायें और मैं घटता जाऊँ” (योहन 3:30)। आईए, हम भी इसी तरह ईश्वर के विनम्र सेवक बनें।
- फादर फ्रांसिस स्करिया